दोस्तों,
पिछले कई दिनों से इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आपके आंदोलन की खबरे पढ़ता रहा हूं। मन किया कि आपको बधाई दूं सो लिख रहा हूं । आपको सलाम! इस बात पर कि आपने अपनी असहमति जाहिर करने की ठानी, विरोध का हौसला दिखाया. आपका आंदोलन किसी तरह की हार या जीत के उद्देश्य से नहीं है, होना भी नहीं चाहिए. इतने जोश-खरोश के साथ अगर आप विद्या और ज्ञान के तिजारत के खिलाफ खड़े हैं तो फिर नतीजा चाहे जो हो, जीते हुए आप ही माने जाएंगे. आपके बाद वहां पढ़ने आने वाले लोगों के लिए यह सबक ही नहीं होगा, संतोष की बात भी होगी कि कम से कम आपने विद्या मंदिर को कलंकित करने, पढ़ाई के नाम पर गोरखधंधे को रोकने की कोशिश की और साम›र्य भर की. इलाहाबाद में कुछ बरस रहा हूं, विश्वविद्यालय से करीब का नाता रहा है. वहां कई शिक्षक मेरे आत्मीय हैं और इन वर्षों में पश्रकारिता विभाग के तमाम विद्यार्थियों को मैं जानता आया हूं. विभाग में संसाधनों की कमी और तमाम तरह की विषमताओं के बीच मैंने सुनील को अपने विद्यार्थियों की बेहतर पढ़ाई के लिए जूझते हुए देखा है. सुनील अपनी पेशेगत ज्मेदारियों को लेकर किस कदर संजीदा हैं, यह आपके सीनियर्स बखूबी समझते होंगे. ये बातें मैं सटिüफिकेट देने के इरादे से नहीं कह रहा हूं, और यह मेरा अधिकार क्षेश्र भी नहीं है. मगर सेंट्रल यूनिवçर्सटी बनने और आपके नए स्वनामधन्य वीसी के आने की खबर पर सुनील का उत्साह मैंने देखा है. वह उन्साह एक समर्पित शिक्षक का उत्साह था, जिसे अब अपने विद्यार्थियों के लिए जयादा संसाधन मिलने की उम्मीद बंधी थी. उस शिक्षक को ऐसी सांसत में डालने का उपक्रम जिन लोगों ने भी किया हो, वे स्वधन्यमान (यानी जो खुद को धन्य मानता हो) भले हों, विश्वविद्यालय और विद्यार्थियों के हितैषी हरगिज नहीं हो सकते. अंधी कमाई के लिए उटपटांग तरीके अख्तियार करते आए लोगों से भला आप सबको भी और क्या उम्मीद होनी चाहिए. मैं ये बातें किसी व्यक्ति के लिए नहीं कह रहा. व्यक्ति चाहे वह कितना बड़ा और विद्वान क्यों न हो अगर अपने संस्थान, अपने समाज की भलाई नहीं कर सकता तो उसकी विद्वता का मोल दो कौड़ी भी नहीं. व्यक्ति संस्थान से बड़ा नहीं होता, लोग आते-जाते रहते हैं, संस्थाएं और व्यवस्थाएं बची रहती हैं और वे ही किसी काम को आगे ले जाती हैं. कलम को सन्ता के खिलाफ होना चाहिए, यही उसका धर्म है. अच्छा है कि पढ़ाई के दौरान आपने यह सबक भी सीख लिया. यकीन करें, यह जिदगी में बहुत काम आने वाला सबक है. विरोध के लिए नारे लगाना भर काफी नहीं, जरूरी है कि सच्चाई में भरोसा हो और अपनी आन की हिफाजत करने का शऊर आता हो। वरना अना की दुहाई देने से तो वे लोग भी नहीं चूकते जो मौका पड़ने पर बड़ी खामोशी से इसकी तिजारत कर आते हैं- कभी ओहदे और पैसे के फायदे के लिए, कभी टुच्ची सहूलियतों के लिए और कभी यूं ही यानी आदतन. सहूलियतों के लिए समझौते की लत पड़ जाती है और हकीम लुकमान अगर होते तो उनके पास भी इसका इलाज शायद ही होता. आप उन तमाम सहूलियतपसंद और सुविधाभोगियों के बारे में जरा भी न सोचें जो आपको सच के साथ खड़ा जानकर भी साथ आने या खड़ा होने में संकोच कर रहे हैं. कोई प्रपंच या कपट आपके आन्मबल से बढ़कर नहीं. और अब तक तो आप भी यह जान गए हैं कि इस लड़ाई में आप अकेले नहीं हैं. इलाहाबाद के इंसाफपसंद लोगों की बड़ी जमात तो आपके साथ है ही, हम सभी आपके साथ हैं. फैज की यह नजम याद हैं न आपको. मौका है कि एक बार इसे फिर पढ़ें, जोर-जोर से पढ़े और हो सके तो उन्हें भी सुना दें, जिन्हें अपने सिंहासन और ताज पर बड़ा नाज है.
हम देखेंगे/ लाजीम है कि हम भी देखेंगे/ वो दिन के जिसका वादा है/ हम देखेंगे।जब जुल्म- ओ-सितम के कोह-ए-गरां/ रूई की तरह उड़ जाएंगे/ हम मेहकुमों के पांवों तले/ ये धरती धड़ धड़धड़केगी/ और अहल-ए-हुकुम के सर ऊपर/ जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी/ हम देखेंगे.
प्रभात
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