16 सित॰ 2009

कम्पनी बाग में देसी फूल

साथियों,

आज पत्रकारिता के निजीकरण विरोधी आंदोलन का पहला चरण समाप्त हुआ दूसरे चरण की शुरुआत होने के साथ ही आन्दोलन को तोड़ने वाले तत्व और अधिक सक्रिय हो गए हैं। साथियों ऐसे दौर में जब हमारे कुलपति एक तरफ गांधीवादी होने का ढिढोरा पीटते हैं तो दूसरी तरफ विश्वविद्यालय को दुकान में तब्दील करने में लगे लोगों की हर संभव मदद कर रहें हो तो ऐसे में हमारे वरिष्ठ पत्रकार अनिल यादव का अमर उजाला में अगस्त 2000 में छपा लेख ‘कंपनी बाग में देसी फूल’ आज फिर प्रासंगिक हो उठा है। लेख वैसे तो सालों पुराना है फिर भी आज विश्वविद्यालय और इस पूरे पूर्वांचल और बुन्देलखंड से आए लाखांे छात्रों की आकंाक्षाओं को अभिव्यक्त करता है। पर विश्वविद्यालय को कुछ लोग अचार की दुकान में तब्दील करना चाहतें है. साथियों यह कोई जुमला नही है। प्रोफेशनल स्टडीज के नाम पर हमारे सम्मानित महोदयों ने अचार ही नही रेडिमेड़ कपड़ों की फैक्टरी भी खोल ली है इसी ओवरकांफिडेंस में अब वे कैमरामैन और रिपोर्टर की फैक्टरी खोल रहे हैं। ये सही है कि अपना धंधा बढाने का सबको सवैधानिक अधिकार है पर विश्वविद्यालय को तो बक्श ही देना चाहिए था। पता नही किस ‘‘भावना’’ से फेरी वाले यूनिवर्सिटी में चक्कर नही लगाते। हमारे सम्मानित मास्टरों को तो इस भावना का तो ख्याल रखते हुए फेरी वालो से ही सीख लेनी चाहिए। इसी भावना का आदर करते हुए हमारे फुटपाथ के दुकानदार भाई यूनिवर्सिटी के बाहर सड़को पर दुकान लगाते है।
ऐसे में जब कुलपति जैसा पढ़ा-लिखा व्यक्ति मानसिक रुप से दिवालिया होकर पूरे विश्ववि़द्यालय को बंेच-खाने पर उतारु हो तो हम चाहते हैं कि आप इस बीमार व्यक्ति को ‘‘जादू की झप्पी’’ देकर ‘‘गेट वेल सून मेंटली’’ बोले।
लेकिन सावधान! इस बीमार के बारे में यहां बताना जरुरी होगा कि ये फोन करने पर एफआईआर की धमकी देने की ब्लैकमेंलिग भी करते हैं और बात बढ़ जाने पर कर भी देते हैं। एक सूचना के मुताबिक पिछले दिनों विश्वविद्यालय में छात्रों को मुर्गा बनाने की घटना पर जब जनसत्ता के पत्रकार राघवेंद्र प्रताप सिंह ने इनसे पूछा तो इन्होंने बताया कि मैं राज्यपाल का प्रतिनिधि हू. मुझसे बात नहीं कर सकते मैं मुकदमा कर दूंगा और दूसरे दिन इस बीमार व्यक्ति ने राघवेंद्र पर मुकदमा भी कर दिया। इन्हें यह भी बताना होगा कि वो राज्यपाल नहीं बल्कि राष्ट्रपति के प्रतिनिधि हैं। और जितनी भी हमें जानकारी है उसके अनुसार कुलपति से सार्वजनिक तौर पर कोई भी व्यक्ति बात कर सकता है और पत्रकार के ऊपर अगर वो मुकदमा करते हैं तो यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है।
खैर बात जो भी हो कुलपति महोदय के विश्वविद्यालय में पद ग्रहण करने के बाद से साल दर साल पदभ्रष्ट हुए हैं। अंदरखाने की ख़बर है कि कुलपति विश्वविद्यालय में सक्रिय शिक्षा माफियाओं के दबाव में काम कर रहें है।
हम कुलपति महोदय का मेल और फोन नंबर सार्वजनिक करते हुए कंपनी बाग में देसी फूल लेख को भी प्रस्तुत कर रहे हैं।

मोबाइल नं0 - 09935354578
rgharshe@gmail.com
rgharshe@sify.com



कम्पनी बाग में देसी फूल

अनिल यादव

उन्हे यहां देखकर अनायास पीटर्सबर्ग में पढ़ने वाले दोस्तोवस्की के आत्मपीड़ा में डूबे छात्र याद आते हैं। प्रयाग में खड़े होकर पीटर्सबर्ग को याद करने की वजह कोई बौद्धिक चोंचलापन नहीं है, सीधी सी बात यह है कि सड़कों पर और गलियों में सबसे अधिक वही दीखते हैं, फिर भी अपने साहित्य में कहीं नजर नहीं आते यह हिन्दी के बाबू टाइप के लेखकों का मोतियाबिन्द है, उसकी वजह से दोस्तोवस्की और चेखव से उधार मांग कर काम चलाना पड़ता है। साहित्य ही क्यों वे नाटकों , फिल्मों, अखबारों में भी नजर नहीं आते। हिन्दी में छात्रों के नाम पर अक्सर गुनाहों का देवता मार्का ‘चंदर’ ही नजर आते हैं जो भूरे रंग की सैंडिल पहनते हैं, जिनके माथे पर बालों की एक लट लापरवाही से झूलती रहती हैं और जिनकी मोहनी मुस्कान पर लड़कियां निसार हुयी रहती हैं। जिन्दगी भर दलिद्दर भोगने के बावजूद हिन्दी का लेखक पता नहीं क्यों यर्थात् से मुंह चुराते हुए हाय चंदर हाय चंदर करता रहता है । सोने से दिल और लोहे के हाथों वाले ये लड़के कभी कभार फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यासों मे जुगनु की तरह चमक उठते हैं फिर अंधियारे में खो जाते हैं, बहुत ढूंढने पर एक काशीनाथ सिंह मिले, जिन्होनें ‘अपना मोर्चा’ में ‘ज्वान’ के जरिए विश्वविद्यालय को लेकर एक फंतासी बयान की है। ‘अपना मोर्चा’ शायद हिन्दी का अकेला दुबला-पतला उपन्यास है जिसमें ऐसे छात्रों की कहानी कही गयी है, जो जब एडमिशन लेने आते थे तो उनके बालों में भूसे के तिनके फंसे होते थे और घुटनों पर बैलों की दुलत्ती के निशान पाये जाते थे। जो सड़क पर गुजरते बैलों को ‘सोकना’ और ‘धौरा’ कहकर पहचानते थे, जो घर से सतुआ, पिसान और गुड़ लाते थे और जिनकी जांघें लंगोट की काछ से बरसात के दिनों में कट जाया करती थीं। उपन्यासों और कहानियांे से बेदखल हो कर वे कहीं गये नहीं, वे यहीं हैं, हमारे अगल-बगल और पड़ोस में, वे इन दिनों भी डिग्री वाले विश्वविद्यालय से लेकर जीवन के टेढ़े मेढ़े गलियारों तक अपने अस्तित्व की पीड़ा भरी खामोश लड़ाई लड़ रहे हैं। हो यह रहा है कि बाजार, कंपनियां, विश्वविद्यालय, सरकार और मीडिया इन दिनों छात्रों की जो चिकनी-चिकनी प्यारी-प्यारी छवियों बेच रहें हैं, उनकी चकाचैंध में धूप से पक कर कांसा हुए चेहरों वाले ये लड़के कहीं किनारे भकुआए खड़े रह जाते हैं, उन पर किसी की नजर नहीं जाती।

उनसे मिलना है तो आजकल किसी दिन दुपहरिया में कंपनी बाग आइए, विक्टोरिया टाॅवर के पास किसी झुरमुट में तीन छल्ले की झूलन सीट और चैड़े कैरियर वाली इक्का दुक्का साइकिलें दिखेंगी, गियर वाली डिजाइनर छरहरी साइकिलों के बीच वे चैड़ी हड्डियों वाले मजबूत देहाती की तरह लगती हैं। इन्हें वे गांव से अपने साथ लायें हैं। किसान परिवार में और एक जोड़ा मेहनती हाथ जोड़ने की जरूरत के चलते वे बहुत कम उम्र में ब्याह दिये जाते हैं। इन दिनों सरकार यह कह रही है कि धनी परिवारों के छात्र ही विश्वविद्यालय में पढ़ने आते हैं इसलिए उच्च शिक्षा के सस्ते होने का कोई औचित्य नहीं है। यह महान सूत्र खोजने वाले जड़ जमीन से कटे नेताओं और बाबूओं को जान लेना चाहिए कि जिन्हे अब भी दहेज में यह साइकिल, चपटे माॅडल वाली एचएमटी सोना घड़ी और बाजा मिलता है, वे इन्ही विश्वविद्यालयों में पढ़ते है और उनकी तादात बहुत ज्यादा है। उनका किसी बैंक में कोई खाता नहीं है, जिसमें उनके मां बाप के भेजे चेक जमा होते हांे। वे हर महीने गांव जाते हैं और अनाज बेचकर पढ़ाई का खर्चा लाते हैं। वे औने पौने अनाज बेचने की तकलीफ जानते हैं इसीलिए घरों से शहर वापस लौटते हुए जेब भरी होने के बावजूद गुमसुम रहतेे हैं। वे हमारे गांवों के सबसे होनहार लोग हैं जो बहुत ही क्रूर और सघन सामाजिक चयन से गुजरकर यहां पहुंचते हैं। वे अपने घर और ससुराल के आशाओं के केन्द्र हैं। वे खिड़कियां हैं जो सपनों की आधुनिक दुनिया में खुलती हैं। इन्ही सपनों में झूलते ढेर सारे गांव जीते हैं।
वे यहां कंपनी बाग की मुलायम अभिजन दूब पर बैठकर उंचे रुतबे की नौकरियों के लिए हर साल होने वाली प्रतियोगी परिक्षाओं की तैयारी करते हैं कलेक्टर, कत्तान या मुंसिफ होना उनके लिए बहुत दूर का सपना है। इस सपने की बात छाड़िये, उनका पीछा करने में ही बड़ा थ्रिल है। वे इसी रोमांच में जीते है। कंपनी बाग के रुमानी झुरमुटों में किताबों के साथ होना भी उनके लिए बड़ी बात चीज है क्योंकि वे सस्ते किराए की जिन कोठरियोें में रहते हैं पकाते है, वहां हवा और रोशनी आने की मनाही है। वहां काइयां और लोलुप मकान मालिकों की पाबंदियां और नखरे है। चालीस वाॅट से ज्यादा पाॅवर का बल्ब जलाने पर कोई बल्ब फोड़ देता है तो कोई रात में पाखाने में ताला लगाकर सोता है।ये लड़के किरासिन तेल की तलाश में जेब में परिचय पत्र और हाथ में कनस्तर लिए लाइनों में लगते हैं खर्च चलाने के लिए ट्यूशन पढ़ाते हैं। सेकेंड हैंड किताबें और किलो के भाव बिकने वाली काॅपियां तलाशते हैं। शहर की इन अंधेरी कोठरियों और क्लास में टिके रहने की जद्दोजहद ही इनमें से कइयों को इतना थका डालती है कि उनकी टहनियों पर कमीजंे लटकती मिलती हैं।
किताबों के इर्दगिर्द उंहे देखकर यह नतीजा निकालना कत्तई गलत होगा कि ये लड़के बहुत मेधावी हैं और उन सबमें ज्ञान की अदम्य पिपासा है। इनमें से ज्यादातर के लिए शिक्षा हंसिए जैसा कोई औजार है जिसमें वे अपने भविष्य के रास्ते पर उगे झाड़-झंखाड़ की निराई करते हैं। अगर उनकी मेधा जाननी है तो उंहे लार्ड मैकाले के नही किसी और पैमाने पर जांचिए। आप इनमें किसी को अंगे्रजी में सोशियोलाॅजी लिखने को कहें और वह सुशीला जी लिख दे तो हंसिए मत, वे आपको आधुनिक वर्णाश्रम और जातिवाद की सामाजिक इंजिनियरी कई दिनों तक लगातार पढ़ा सकते हैं क्योंकि इसे उन्होने पढ़ा और सुना नही, भोगा और जिया हैै।
अभी-अभी ग्राम पंचायतों के चुनाव बीते हैं, उसमें वे गले-गले डूबे थे। जातिवाद राजनीति का एक-एक पेंच वे जानते हैं आने वाले दिनों में इस चुनाव से उपजे नए दोस्ती और दुश्मनी के समीकरणांे का दंश भी वे झेलेंगे। इनमें से कितने ऐसे हैं जो जर-जमीन के झगड़ों की तारीखों पर हर तीसरे महीने मुफस्सिल की कचहरियों में जाते है उंहे भारतीय यथार्थ की गहरी समझ है लेकिन उनके पास प्रोफेसरों के बौद्धिक लटक-झटके और अदांए नही हैं कि वे उसे वातानुकूलित सभागारों में बयान कर सकें। कभी-कभी इलीट और काॅमनर के बीच की चैड़ी सांस्कृतिक खाई और कभी-कभी तो हमारी शिक्षा पद्धति ही चीन की दीवार बन जाती है।
यथार्थ की इस समझदारी और समाज से उनके गहरे सरोकारों की वजह से ही वे हमेशा संघर्षाें के बीच फंसे नजर आते हैं। याद कीजिए आपने आखिरी बार जो छात्रों का जूलूस देखा था उसके सबसे अधिक चेहरे कैसे थे? यही हैं वे जो लाठी चार्ज के बाद अस्पताल में और गिरफ्तारी के बाद जेलों में सबसे अधिक पाए जाते हैं।वे चुपचाप लड़ते हैं और इस संघर्ष का कभी प्रतिदान नही मांगते और न ही शहरी बाबुओं की तरह ‘आई हेट पालिटिक्स’ जैसे जुमले बोलकर नकली हंसी हंसते हैं।
उनके बारे में इतनी बातचीत का सबब, एक अध्यापक का वो बयान है जिसमंे उन्होने कहा है कि उच्चशिक्षा सरकार का संवैधानिक दायित्व नही है। यह अध्यापक संयोग से भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री भी हैं इधर देश की सरकार दुकानदार जैसा सलूक कर रही है जो शिक्षा को उन्हीं लोगों के हाथों बेंचना चाहता है, जो उसकी ज्यादा क़ीमत दे सकें। यही वजह है कि फीसें धुआधार बढ़ी हैं। और विश्वविद्यालय में सीटें कम हो रही हैं। ऐसे पाठ्यक्रमों को प्रात्साहित किया जा रहा है जिंहे पढ़कर अधकचरी जानकारी वाले आपरेटर, सेल्समैन और मैनेजर पैदा होतें हैं। इनका अपने ध्ंाधे और पैसे के अलावा और किसी चीज से सरोकार नही होता। इस कठिन समय में गांवों के ये लड़के कहां जायेंगे? क्योंकि उनके पास पैसा ही नही है, बाकी सब कुछ है। कोई ताज्जुब नही कि आने वाले दिनों में आपको विश्वविद्यालय परिसरों में से लड़के न दिखाई पड़े। वे कंपनी बाग के खिले देशी फूल हैं। उन्हे जी भरकर देख लीजिए।क्या पता कल रहें न रहें

(साभार अमर उजाला, 17 अगस्त 2000 को प्रकाशित)

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