17 सित॰ 2009

‘अब पुलिस के हवाले कैंपस साथियों’

- अनुराग शुक्ला

सामाजिक बदलावों के लिए अपने तरीके से काम कर देश विदेश में नाम काम चुकी गुलाबी गैंग की राष्ट्ीय अध्यक्ष संपत पाल को जब इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के लाइब्रेरी गेट पर सिक्योरिटी और पुलिस वालों से बहस कर रहीं थी तब उन्हें नहीं पता था कि हमारी यूनिवर्सिटी के ‘अकादमिक‘ मुखिया कैंपस को पुलिस के हवाले कर गए हैं. संपत जर्नलिज्म और जनसंचार विभाग के उन स्टूडेंटस के समर्थन में आई थी जो अपने कोर्स के समांतार खोले जा रहे मीडिया स्टडी सेंटर नाम की एक डिग्री बेंचू दुकान के विरोध में आंदोलन कर रहे हैं. संपत यूनिवर्सिटी प्रशासन के प्रोफेशनल स्टडीज के नाम पर की जा रही उस भूल चूक लेनी देनी वाली अकादमिक सेटिंग का विरोध करने आईं थीं जिसमें कोई भी लक्ष्मीपु़त्र आए हरे भरे नोटों के बंडल फेंक कर पत्रकार और मीडिया प्रोफेशनल की डिग्री ले जाए. संपत गांव गरीब के बीच में काम करती हैं और गांव गरीब की बात करने आईं थीं. संपत अपनी गुलाबी गैंग के साथ कहने आई थीं कि डिग्रियां मत बेचो,गांव के लोगों को नरेगा के काम से इतने पैसे नहीं मिलते कि वह प्रोफेशनल स्टीडज के महंगे शो रूम से एक लाख बीस हजार वाली पत्रकारिता की डिग्री खरीद सकें. लेकिन संपत की गुलाबी गैंग को विचारवानांे की यूनिवर्सिटी में लाठी और संगीनों के बल पर घुसने नहीं दिया गया. लाठी और संगीन यूनिवर्सिटी के नए अकादमिकों का नया विचार है. पता लगा है कि मिस्टर राजन हर्षे यूनिवर्सिटी से जाते वक्त पत्रकारों और मास्टरी में ही अफसरी का मजा ले रहे कुछ सहयोगियों से कह गए थे ‘अब पुलिस के हवाले कैंपस साथियों’.

एकेडमिक थानेदारी

संपत जब पुलिस के छोटे बडे थानेदारों से मुखातिब थीं, तभी यूनिवर्सिटी के एकेडमिक थानेदार को फोन लगाया गया लेकिन वज्र वाहनों और बूटों की ठक ठक की संगत में रहने वाले प्राक्टर साहब ने फरमाया कि युनिवर्सिटी में बाहरी लोगों का प्रवेश वर्जित है. बाहरी शब्द की यूनिवर्सिटी के संविधान में क्या व्याख्या है इस बात को राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर मिस्टर हर्षे शायद ज्यादा बेहतर बता पाएं क्योंकि उन्होंने यूनिवर्सिटी में अपने लिए पीस जोन और छात्रों के लिए वार जोन की अवधारणा विकसित की हैं. और हो सकता है आगे के अकादमिक इतिहास में प्रो. हर्षे यूनिवर्सिटीज में फोर्स डिप्लाॅव्यमेंट की वार जोन पीस जोन अवधारणा और शिक्षा को ज्यादा से ज्यादा कीमत पर बेचने का कंस्पेट देने के लिया याद किया जाए
लेकिन जिस वक्त गुलाबी गैंग की सामाजिक कार्यकर्ताओं को बाहरी कहकर कैंपस में आने से रोक दिया गया सुना है उसी समय यूनिवर्सिटी में काई सेमिनार चल रहा था वाइस चांसलर के आज्ञाकारी प्राक्टर क्या ये बताना चाहेंगे कि उस सेमिनार में बोलने वाले सारे लोग भीतरी थे. यूनिवसिटी प्रोफेसरानों की नई भाषा में भीतरी का मतलब छात्रों से ही होगा. गेट पर खडे सभी लोग देख रहे थे गुलाबी गैंग के आने से कुछ देर पहले गेट पर बिना बाहरी भीतरी की पहचान किए लोगों को आने जाने दिया जा रहा था.

विचारों की पहरेदारी का साइंस
लेकिन यूनिवर्सिटी की अकादमिक दुनिया ने विचारों की पहरेदारी के साइंस को ऐसे डेवलेप किया है है कि उनका जवाब होगा कि सेमिनार में आए हुए लोग यूनिवर्सिटी में बौद्धिक व्यायाम करने के लिए बतौर मेहमान आए थे. उनकी आवभगत यूनिवर्सिटी का फर्ज था. तो साहबान गलाबी गैंग को क्यूं रोका गया. संपत भी यूनिवर्सिटी की मेहमान थी और पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के छात्रों के आंदोलन के समर्थन में आईं थीं. विभाग के छात्र और अध्यापक उनकी आवभगत में खडे थे लेकिन फिर भी जंजीरों और संगीनों का सहारा लेना ही पडा. विचारों को रोकने के लिए जंजीरों और संगीनों से रोकने का तरीका बहुत पुराना है. हिटलर से लेकर मुसोलिनी ने इस तरीके का इस्तेमाल किया है. लेकिन अब इस तरीके के इस्तेमाल में खसियत यह है कि अब ये तरीके वे लोग आजमाते हैं जो क्लास में लोकतंत्र की अवधारणाएं पढाते हुए अगले पे कमीशन का इंतजार किया करते हैं.

यूनिवर्सिटी में विचारों की कमी है

संपत भी यूनिवर्सिटी में एक विचार लेकर आई थी जो उन्हेोंने बुंदेलखंड में लोगों के साथ काम करके हासिल किए हैं, अकादमिक अनुलोम विलोम में टीए डीए बनाकर नहीं. संगीनों के साए में घिरी यूनिवर्सिटी में संपत के विचारों का आना इसलिए भी जरूरी था क्योंकि प्रोफेसरों से भरी हमारी यूनिवर्सिटी में विचारों की कमी है. खैर गुलाबी गैंग जो विचार,अनुभव लेकर आया था वह छात्रों तक पहुंचा पुलिस से तकरीर और तकरारों के बाद ताले और जंजीर ख्ुालीं और छात्र एक बार फिर मार्च करते हुए उस अधनंगे फकीर गांधी केे पास पहुंचे जिसने आजाद भारत को विचारों की कद्र करना सिखाया था. वह विचार चाहें सरकारों के सलाहकार रह चुके किसी प्रोफेसर का हो या गुलाबी गैंग की संपत का. संपत शिक्षाविद नहीं है लेकिन उन्होंने कहा कि प्रोफेशनल स्टडीज के नाटकों में लाखों रूपए लेकर पत्रकार बनाने वाली शिक्षा व्यवस्था उन्हीं काले अंग्रेजों की व्यवस्था है जो शिक्षा के जरिए साहब और नौकर की वर्गीय अवधारणा बनाए रखना चाहते हैं. ये उन्हीं दकानदार नुमा सलाहकार प्रोफेसरों की विचारधारा है जो गांव में बच्चों को खिचडी बंटवाने और हर हाथ को जीने भर का काम देने की योजनाएं बनवाते हैं.

हम्टी डम्टी मेंटलिटी

लेकिन यूनिवर्सिटी में आकर इन प्रोफेसरानों की हम्टी डम्टी मेंटलिटी हावी हो जाती है. फिर डिग्रयों को लाखों में बेंचने की तरकीबें शुरू होती हैं. चिकने चुपडे चेहरों का लालच देकर डिग्री के नाम पर ग्लैमर की दुनिया में घुसने के एंट्ी कार्ड बांटे जाते हैं. लेकिन इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में प्रोफेशनल स्टडीज के नाम पर इन एंट्ी कार्ड की कीमत लाखों में रखी जा रही है. जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन डिपार्टमेंट के छात्र इसी बात को लेकर आंदोलन कर रहे हैं कि हमारे जैसा सेलेबेस का दूसरा कोर्स यूनिवर्सिटी में इतने महंगे दाम पर क्यूं बेंचा जा रहा है, जहां सिर्फ पैसा ही आपकी योग्यता है. क्या धीरे धीरे ये पूरे पत्रकारिता विभाग के निजीकरण की तैयारी है.

डिग्री को दुकानों पर मत बेचिए


पत्रकारिता शिक्षा है व्यवसाय नही, इसकी डिग्री को दुकानों पर मत बेचिए के नारे के साथ शुरू हुए आंदोलन में संपत ने अपने तरीके से अपनी बात रखी. पिछले दस दिनों से स्टूडेंटस के आंदोलन में अपनी आवाज से आवाज मिलाने वाले डिपार्टमेंट के टीचर सुनील उमराव ने कहा कि यूनिवर्सिटी प्रशासन की गुंडागर्दी के चलते छात्र और शिक्षकों को एक बार फिर गांधी की शरण में आना पडा. सुनील ने कहा कि विश्वविघालय का मतलब है कि दुनिया भर के विचारों को अपने में जगह दें. प्रो हर्षे अपनी मंचीय तकरीरों में अमरिकी सामा्रज्य विरोधी नोम चेामस्की का खूब नाम लेते हैं तो फिर क्यूं कैंपस को पुलिस के हवाले कर देते हैं. सुनील ने कहा कि अगर विश्वविधालय अपने में अलग अलग तरह के बिचारों को जगह नहीं दे सकता है और उसे कुलपति और प्राक्टर की तानाशाही में ही चलना है तो यूनिवर्सिटी की जगह वाइस चांसलर एंड कंपनी कहा जाए तो ज्यादा बेहतर होगा. पत्रकारिता के दोनों बैचों के स्टूडेंटस ने अपनी बात रखी है और मीडिया स्टडीज को ऐसा धीमा जहर बताया जो मास क्म्युनिकेशन की डिग्री को खरीद फरोख्त की दुकान बना देगा.
डिपार्टमेंट के पुरा छात्र शहनवाज और राजीव ने कहा कि आज गुलाबी गैंग की संपत को यूनिवर्सिटी में आंदोलन का समर्थन करने के लिए रोक दिया गया. लेकिन कल संदीप पांडे, अरूणा राय जैसे लोग आंदोलन को समर्थन देने आएंगे तो यूनिवर्सिटी प्रशासन उन्हें रोक पाएगा. दरअसल मीडिया स्टडीज के नाम पर दुकान खोल कर डिग्री बेचने और संपत को रोके जाने की घटना का सीधा ताल्लुक है. महज कुछ लोगों की दुकानें चमकाने के लिए पत्रकारित्रा की शिक्षा को मीडिया स्टडीज की दुकान में मुहैया कराया जा रहा है. अपनी दुकानों के चमकाने के साथ ये कैंपस की एजूकेशन को अपर मिडिल क्लास का होम प्ले बना देना चाहते हैं. वे नहीं चाहते कि यहां मिड डे मील खाने वाले बच्चे भी दुनिया की खबरनवीसी का सपना पूरा कर सकें.


(अनुराग इलाहाबाद यूनिवर्सिटी पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के पूर्व छात्र हैं. वह फिलहाल दैनिक जागरण से जुड हुए हैं और अवकाश लेकर पत्रकारिता विभाग के छात्र आंदोलन के हमकदम हैं.)

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