16 फ़र॰ 2010

नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों से जेयूसीएस की अपील

साथी,
पत्रकार बंधुओं,



देश में नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद के नाम पर चल रहे सरकारी दमन के बीच मीडिया और आप सभी की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। सत्ता जब मीडिया को अपना हथियार व पुलिस पत्रकारों को अपने बंदूक की गोली की भूमिका में इस्तेमाल करे तो ऐसे समय में हमे ज्यादा सर्तक रहने की जरूरत है। पुलिस की ही तरह हमारे कलम से निकलने वाली गोली से भी एक निर्दोष के मारे जाने की भी उतनी ही सम्भावना होती है, जितनी की एक अपराधी की। हमें यहां यह बातें इसलिए कहनी पड़ रही हैं क्योंकि नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद जैसे मुददों पर रिपोर्टिंग करते समय हमारे ज्यादातर पत्रकार साथी न केवल पुलिस के प्रवक्ता नजर आते हैं, बल्कि उससे कहीं ज्यादा वह उन पत्रकारीय मूल्यों को भी ताक पर रख देते हैं, जिसके बल पर उनकी विश्वसनियता बनी है।

हमें दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हाल ही में इलाहाबाद में पत्रकार सीमा आजाद व कुछ अन्य लोगों की गिरफ़्तारी के बाद भी मीडिया व पत्रकारों का यही रूख देखने को मिला। सीमा आजाद इलाहाबाद में करीब 12 सालों से एक पत्रकार, सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता के बतौर सक्रिय रही हैं। इलाहाबाद में कोई भी सामाजिक व्यक्ति या पत्रकार उन्हें आसानी से पहचानता होगा। कुछ नहीं तो वैचारिक-साहित्यिक सेमिनार/गोष्ठियां कवर करने वाले पत्रकार उन्हें बखूबी जानते होंगे। लेकिन आश्चर्य की बात है कि जब पुलिस ने उन्हीं सीमा आजाद को माओवादी बताया तो किसी पत्रकार ने आगे बढ़कर इस पर सवाल नहीं उठाया। आखिर क्यो? क्यों अपने ही बीच के एक व्यक्ति या महिला को पुलिस के नक्सली/माओवादी बताए जाने पर हम मौन रहे? पत्रकार के तौर पर हम एक स्वाभाविक सा सवाल क्यों नहीं पूछ सके कि किस आधार पर एक पत्रकार को नक्सली/माओवादी बताया जा रहा है? क्या कुछ किताबें या किसी के बयान के आधार पर किसी को राष्ट्रद्रोही करार दिया जा सकता है? और अगर पुलिस ऐसा करती है तो एक सजग पत्रकार के बतौर क्या हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती?

पत्रकार साथियों को ध्यान हो, तो यह अक्सर देखा जाता है कि किसी गैर नक्सली/माओवादी की गिरफ्तारी दिखाते समय पुलिस एक रटा-रटाया सा आरोप उन पर लगाती है। मसलन यह फलां क्षेत्र में फलां संगठन की जमीन तैयार कर रहा था/रही थी, या कि वह इस संगठन का वैचारिक लीडर था/थी, या कि उसके पास से बड़ी मात्रा में नक्सली/माओवादी साहित्य (मानो वह कोई गोला बारूद हो) बरामद हुआ है। आखिर पुलिस को इस भाषा में बात करने की जरूरत क्यों महसूस होती है? क्या पुलिस के ऐसे आरोप किसी गंभीर अपराध की श्रेणी में आते हैं? किसी राजनैतिक विचारधारा का प्रचार-प्रसार करना या किसी खास राजनैतिक विचारधारा (भले ही वो नक्सली/माओवादी ही क्यों न हो) से प्रेरित साहित्य पढ़ना कोई अपराध है? अगर नहीं तो पुलिस द्वारा ऐसे आरोप लगाते समय हम चुप क्यों रहते हैं? क्यों हम वही लिखते हैं,जो पुलिस या उसके प्रतिनिधि बताते हैं। यहां तक की पुलिस किसी को नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी बताती है और हम उसके आगे ‘कथित’ लगाने की जरूरत भी महसूस नहीं करते। क्यों ?

हम जानते हैं कि हमारे वो पत्रकार साथी जो किसी खास दुराग्रह या पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होते, वह भी खबरें लिखते समय ऐसी ‘भूल’ कर जाते हैं। शायद उन्हें ऐसी ‘भूल’ के परिणाम का अंदाजा न हो। उन्हें नहीं मालूम की ऐसी 'भूल' किसी की जिंदगी और सत्ता-पुलिसतंत्र की क्रूरता की गति को तय करते हैं।

जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) सभी पत्रकार बंधुओं से अपील करती हैं कि नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग करते समय कुछ मूलभूत बातों का ध्यान अवश्य रखें.


* साथियों, नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद तीनों अलग-अलग विचार हैं। नक्सलवाद/माओवाद राजनैतिक विचारधाराएं हैं तो आतंकवाद किसी खास समय, काल व परिस्थियों से उपजे असंतोष का परिणाम है। यह कई बार हिंसक व विवेकहीन कार्रवाई होती है जो जन समुदाय को भयाक्रांत करती है. इन सभी घटनाओं को एक ही तराजू में नहीं तौला जा सकता। नक्सलवादी/माओवादी विचारधारा का समर्थक होना कहीं से भी अपराध नहीं है। इस विचारधारा को मानने वाले कुछ संगठन खुले रूप में आंदोलन चलाते हैं और चुनाव लड़ते हैं तो कुछ भूमिगत रूप से संघर्ष में विश्वाश करते हैं। कुछ भूमिगत नक्सलवादी/माओवादी संगठनों को सरकार ने प्रतिबंधित कर रखा है। लेकिन यहीं यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इन संगठनों की विचारधारा को मानने पर कोई मनाही नहीं है। इसीलिए पुलिस किसी को नक्सलवादी/माओवादी विचारधारा का समर्थक बताकर गिरफ्तार नहीं कर सकती है, जैसा की पुलिस अक्सर करती है.। हमें विचारधारा व संगठन के अंतर को समझना होगा।


* इसी प्रकार पुलिस जब यह कहती है कि उसने नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य (कई बार धार्मिक साहित्य को भी इसमें शामिल कर लिया जाता है) पकड़ा है तो उनसे यह जरूर पूछा जाना चाहिये कि आखिर कौन-कौन सी किताबें इसमें शामिल हैं। मित्रों, लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी खास तरह की विचारधारा से प्रेरित होकर लिखी गई किताबें रखना/पढ़ना कोई अपराध नहीं है। पुलिस द्वारा अक्सर ऐसी बरामदगियों में कार्ल मार्क्स/लेनिन/माओत्से तुंग/स्टेलिन/भगत सिंह/चेग्वेरा/फिदेल कास्त्रो/चारू मजूमदार/किसी संगठन के राजनैतिक कार्यक्रम या धार्मिक पुस्तकें शामिल होती हैं। ऐसे समय में पुलिस से यह भी पूछा जाना चाहिए कि कालेजों/विश्वविद्यलयों में पढ़ाई जा रही इन राजनैतिक विचारकों की किताबें भी नक्सली/माओवादी/आतंकी साहित्य हैं? क्या उसको पढ़ाने वाला शिक्षक/प्रोफेसर या पढ़ने वाले बच्चे भी नक्सली/माओवादी/आतंकी हैं? पुलिस से यह भी पूछा जाना चाहिए कि प्रतिबंधित साहित्य का क्राइटेरिया क्या है, या कौन सा वह मीटर/मापक है जिससे पुलिस यह तय करती है कि यह नक्सली/माओवादी/आतंकी साहित्य है।

* यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है की अक्सर देखा जाता है की पुलिस जब कोई हथियार, गोला-बारूद बरामद करती है तो मीडिया के सामने खुले रूप में (कई बार बड़े करीने से सजा कर) पेश की जाती है, लेकिन वही पुलिस जब नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य बरामद करती है तो उसे सीलबंद लिफाफों में पेश करती है. इन लिफाफों में क्या है हमें नहीं पता होता है लेकिन हमारे सामने इसके लिए कुछ 'अपराधी' हमारे सामने होते हैं. आप पुलिस से यह भी मांग करे कीबरामद नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य को खुले रूप में सार्वजनिक किया जाए.


* मित्रों, नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तारियों के पीछे किसी खास क्षेत्र में चल रहे राजनैतिक/सामाजिक व लोकतांत्रिक आन्दोलनों को तोड़ने/दबाने या किसी खास समुदाय को आतंकित करने जैसे राजनैतिक लोभ छिपे होते हैं। ऐसे समय में यह हमें तय करना होता है कि हम किसके साथ खड़े होंगे। सत्ता की क्रूर राजनीति का सहभागी बनेंगे या न्यूनतम जरूरतों के लिए चल रहे जनआंदोलनों के साथ चलेंगे।


* हम उन तमाम संपादकों/स्थानीय संपादकों/मुख्य संवाददातों से भी अपील करते हैं , की वह अपने क्षेत्र में नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी घटनाओं की रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी अपराध संवाददाता (क्राइम रिपोर्टर) को न दें. यहाँ ऐसा सुझाव देने के पीछे इन संवाददाताओं की भूमिका को कमतर करके आंकना हमारा कत्तई उद्देश्य नहीं है. हम केवल इतना कहना चाहते हैं की यह संवाददाता रोजाना चोर, उच्चकों, डकैतों और अपराधों की रिपोर्टिंग करते-करते अपने दिमाग में खबरों को लिखने का एक खांचा तैयार कर लेते हैं और सारी घटनाओं की रिपोर्ट तयशुदा खांचे में रहकर लिखते है. नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग हम तभी सही कर सकते हैं जब हम इस तयशुदा खांचे से बहार आयेगे. नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद कोई महज आपराधिक घटनाएँ नहीं है, यह शुद्ध रूप से राजनैतिक मामला है.


* हमे पुलिस द्वारा किसी पर भी नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी होने के लगाए जा रहे आरोपों के सत्यता की पुख्ता जांच करनी चाहिये। पुलिस से उन आरोपों के संबंध में ठोस सबूत मांगे जाने चाहिये। पुलिस से ऐसे कथित नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी के पकड़े जाने के आधार की जानकारी जरूर लें।

* हमें पुलिस के सुबूत के अलावा व्यक्तिगत स्तर पर भी सत्यता की जांच करने की कोशिश करना चाहिये। मसलन अभियुक्त के परिजनों से बातचीत करना चाहिये। परिजनों से बातचीत करते समय अतिरिक्त सावधानी बरतने की जरूरत होती है। अक्सर देखा जाता है कि पुलिस के आरोपों के बाद ही हम उस व्यक्ति को अपराधी मान बैठते हैं और उसके बाद उसके परिजनों से भी ऐसे सवाल पूछते हैं जो हमारी स्टोरी व पुलिस के दावों को सत्य सिद्ध करने के लिए जरूरी हों। ऐसे समय में हमें अपने पूर्वाग्रह को कुछ समय के लिए किनारे रखकर, परिजनों के दर्द को सुनने/समझने की कोशिश करनी चाहिए। शायद वहां से कोई नयी जानकारी निकल कर आए जो पुलिस के आरोपों को फर्जी सिद्ध करे।

* मित्रों, कोई भी अभियुक्त तब तक अपराधी नहीं है, जब तक कि उस पर लगे आरोप किसी सक्षम न्यायालय में सिद्ध नहीं हो जाते या न्यायालय उसे दोषी नहीं करार देती। हमें केवल पुलिस के नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी बताने के आधार पर ही इन शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। ऐसे शब्द लिखते समय ‘कथित’ या ‘पुलिस के अनुसार’ जरूर लिखना चाहिये। अपनी तरफ से कोई जस्टिफिकेशन नहीं देना चाहिये।



पत्रकार बंधुओं,

यहां इस तरह के सुझाव देने के पीछे हमारा यह कत्तई उद्देश्य नहीं है कि आप किसी नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी का साथ दें। हम यहां कोई ज्ञान भी नहीं देना चाहते। हमारा उद्देश्य केवल इतना सा है कि ऐसे मसलों की रिपोर्टिंग करते समय हम जाने/अनजाने में सरकारी प्रवक्ता या उनका हथियार न बन जाए। ऐसे में जब हम खुद को लोकतंत्र का चौथा-खम्भा या वाच डाग कहते हैं तो जिम्मेदारी व सजगता की मांग और ज्यादा बढ़ जाती है। जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) आपको केवल इसी जिम्मेदारी का एहसास करना चाहती है।

उम्मीद है कि आपकी लेखनी शोषित/उत्पीड़ित समाज की मुखर अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकेगी !!


- निवेदक
आपके साथी,

विजय प्रताप, राजीव यादव, अवनीश राय, ऋषि कुमार सिंह, चन्द्रिका, शाहनवाज आलम, अनिल, लक्ष्मण प्रसाद, अरूण उरांव, देवाशीष प्रसून, दिलीप, शालिनी वाजपेयी, पंकज उपाध्याय, विवेक मिश्रा, तारिक शफीक, विनय जायसवाल, सौम्या झा, नवीन कुमार सिंह, प्रबुद़ध गौतम, पूर्णिमा उरांव, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, अर्चना मेहतो, राकेश कुमार।


जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) की ओर से जनहित में जारी

18 दिस॰ 2009

क्या आप मीडिया के छात्र या युवा पत्रकार हैं?




* क्या आप मीडिया के छात्र या युवा पत्रकार हैं?
* क्या आपको लगता है की क्लास की पढ़ाई भविष्य में आपको किसी मीडिया संस्थान में एक अदद नौकरी दिलाने के लिए काफी है ?
* या क्या आप पत्रकारिता की पढ़ाई एक अदद नौकरी के लिए करना चाहते हैं या इसके पीछे कोई और सामाजिक-आर्थिक कारण है।
* क्या आप मीडिया में किसी तरह के सामाजिक बदलाव की कल्पना लिए जुड़े हैं ?
* आपको लगता है कि किसी मीडिया संस्थान से जुड़कर, हाथ में कलम या माइक थामकर इस भ्रष्ट सामाजिक तंत्र की कोई ईंट हिलाई जा सकती है। अगर ऐसा है तो क्या आपने अभी तक ऐसी कोई ईंट हिलाई है?
* क्या आपको कभी लगा कि आप ने पत्रकारिता की क्लास में जो कुछ भी पढ़ा वह सबकुछ केवल किताबी ज्ञान था ?
* या इससे इतर पत्रकारिता का सैद्धान्तिक ज्ञान आपको मीडिया माध्यमों को नियंत्रित करने वाली षक्तियों को समझने में कुछ मदद करता है।
* आपको लगता है कि आप मीडिया में जो कुछ करने के लिए आए थे वह नहीं कर पा रहे ?
* अपने छोटे से कैरियर में कभी आपके मन में ऐसा विचार आया कि इससे अच्छी सरकारी नौकरी है?

अगर ये सवाल आपके मन को कभी कचोटते हैं, विछोभ पैदा करते हैं या अपने अनुभव आप दूसरों से भी बांटना चाहते हैं तो वैकल्पिक वेब मीडिया के क्षेत्र में नई प्रतिमान स्थापित कर रहे जनादेश ऐसे लोगों के लिए विशेष काॅलम शुरू कर रहा है। इस काॅलम में आप मीडिया से जुड़ी अपनी कल्पनाओं व हकीकत को साझा कर सकते हैं। आप अपने अनुभव इस पते पर भेंज सकते हैं -

savitakumar123@gmail.com

4 दिस॰ 2009

न रहे प्रभाष जोशी, न रहा वो जनसत्ता

राकेश कुमार

‘हिन्दी पत्रकारिता का अंतिम सम्पादक, ‘स्टेट्समैन‘ ‘भारतीय पत्रकारिता के शिखर पुरुष, ‘हिन्दी पत्रकारिता का एक स्तंभ, ‘शोषित-पीड़ित, वंचित और बेजुबानों की आवाज, असाधारण बौद्धिक साहस के धनी, यानी प्रभाष जोशी। इन तमाम सम्बोंधनों से सुशोभित पत्रकारिता का लौहपुरुष अब अंतिम रुप से विदा ले चुका है। इतिहास बन चुके प्रभाश जोशी के नाम पर अब हमारे बीच केवल उनक द्वारा कारे किये गये कागद ही रह गये हैं। प्रभाष जी को उपरोक्त सभी सम्बोधनों से याद करते हुए तमाम वरिष्ठ पत्रकार, राजनेता और बुद्धिजीवी साथियों ने उनके पंचतत्व में विलीन होने से पहले अपने-अपने हिसाब से उनके ऋणों को चुकाने की कोशिश कीे।
जिस नर्मदा की तलहटी में बसे गाँव मोती (इंदौर) की सरजमीं में जन्में प्रभाष जी पले-बढे़ और अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत की, अंततः उसी नर्मदा की गोद में समाहित भी हो गये। नर्मदा नदी जिस तरह अन्य तमाम नदियों की अपेक्षा विपरीत दिशा पश्चिम में बही, उसी नदी के साये में पले-बढे प्रभाष जी पत्रकारिता जगत में एक अलग धारा बनकर आजीवन जनसरोकारी पत्रकारिता के प्रति ईमानदारी से समर्पित रहे। अपने जीवन में उन्होंने पत्रकारिता के लिए इतना कुछ किया, जिसे गिनाना मुश्किल नहीं, तो नामुमकिन जरुर है। अपने सम्पादकत्व में शुरु किये गये अखबार ‘जनसत्ता‘ के माध्यम से हिन्दी पत्रकारिता को जो धार, और जो कलेवर प्रभाष जी ने दिया, पत्रकारिता जगत ही नहीं, जनसरोकारों से संबंध रखने वाला हर आदमी इसके लिए, उनका आभारी रहेगा। 5 नवम्बर की रात अकस्मात उनका जाना लोकतंत्र के चैथे खम्भे ‘खबरपालिका‘ के उस सशक्त स्तम्भ का ढहना है, जिसके बिना उसका वजूद अंधकारमय नहीं तो धंुधला तो जरुर रहेगा।
सर्वोदयी और गांधीवादी आदर्शों में रचे-बसे प्रभाष जी 1972 में जेपी के आंदोलन में हमसफर बने और चम्बल के खूंखार डाकुओं का आत्मसर्पण करवाने से लेकर इन्दिरा गांधी सरकार का तख्तापलट करवाने तक में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। 1992 में बाबरी मस्ज़िद विध्वंस के समय आरएसएस व कारसेवकों के विरोध में खड़े रहकर उन्होंने जैसे धारदार काॅलम व लेख लिखे, वे आज भी प्रांसगिक हैं। साम्प्रदायिकता रुपी जहर को देश के लिए खतरा
मानकर उनने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके राजनीतिक मंच भाजपा से भी लोहा लिया और उनकी काली करतूतों को सामने लाने तक का काम किया। भारत की तथाकथित वामपंथी पार्टियों की भी खूब लानत-मलामत की। वे ताउम्र जनसरोकारी पत्रकारिता के प्रति समर्पित रहे। प्रभाष जी ये सब काम बड़े सहज ढंग से कर लेने वाले एक ऐसे मूर्धन्य पत्रकार थे, जिनकी जगह भर पाना शायद मुनासिब नहीं है। वे अपनी कलम के सामने किसी को नहींे बक्शते थे। उनकी कलम जब भी जिसके खिलाफ उठी, उसे लिख कर ही रुकी। इन्हीं आदर्शों ने उन्हें पत्रकारिता की कसौटी पर खरा सोना साबित किया, जिसकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ेगी।
इसे प्र्रभाष जी की खूबी ही कही जाय कि उन्होंने जनसत्ता की टीम में कई विचाराधारा के लोगों को शामिल किये थे। वे जिन राजनेताओं, पार्टियों और धर्मावलंबियों की रीति-नीति पर खूब खरी-खोटी लिखते थे, वे भी उनके प्रसंशक के बतौर देखे गये। वे वास्तव में एक असाधारण बौद्धिक साहस के धनी व्यक्ति थे। इंदौर के एक हिन्दी दैनिक ‘नई दुनिया‘ से पत्रकारिता की शुरुआत करने वाले प्रभाष जोशी आज कितने पत्र-पत्रिकाओं में बिखरे थे, इसका भी अनुमान लगा पाना कठिन है।
यह प्रभाष जी की लेखनी की ही देन थी कि कभी जनसत्ता उनके समय में दो लाख के आकंड़े को पार कर रहा था। इसी से उनके विचारों, आदर्शों और जनसरोकारी पत्रकारिता का पता लगाया जा सकता है। मीडिया में बढ़ रहे बाजारवाद को लेकर वे न केवल चिंतित रहे बल्कि उसके विरोध में संघर्ष छेड़ने से भी पीछे नहीं हटे। पत्रकारिता के गिरते मूल्यों के प्रति न केवल चिंतित रहे बल्कि उसके विरोध में लिखा भी। यहां तक कि उन्होंने अपने रहते जनसत्ता पर बाजारवाद को दूर-दूर तक फटकने नहीं दिया। जनसत्ता से सेवानिवृत्त होने के बाद भी जब तक उनका प्रभाव चलता रहा, उन्होंने जनसत्ता में विज्ञापन तक निकलना मुश्किल कर देते थे। उनका यह प्रभाव जैसे-जैसे कम होता गया वैसे-वैसे आम जन की ‘जनसत्ता‘ में भी विज्ञापनों की भरमार होने लगी, जो सिलसिला निरन्तर जारी है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि जनसत्ता में शुरु हुआ विज्ञापन का यह खेल आखिरकार कहां जाकर थमता है।
11 नवम्बर की सुबह उठा दरवाजा खोला, तो कुर्सी पर पड़ा अखबार देखा जो कुछ बदला सा नजर आ रहा था। अखबार उठाया और खोला तो आखे एक बार ठहर सी गयी कि ‘जनसत्त‘ का भी ऐसा हस्र हो सकता था, जो कभी सोचा भी नहीं था। 11 नवम्बर के लखनऊ अंक में पूरे पेज पर एक विज्ञापन छपा था जो तमाम अन्य हिन्दी-अंग्रेजी अखबारांे की भांति ‘जनसत्ता‘ में भी फ्रंट में फ्रंट पेज लगाया गया था। विज्ञापन में एक बच्ची हाथों में हवाई जहाज लिये दौड़ रही थी और उसके उपरी हिस्से में बड़े अक्षरों में लिखा था कि ‘90 वर्ष से अधिक समय से एक बैंक दे रहा है प्रेरणा, इंडिया को सपने देखने की‘। ये शब्द साफ तौर पर इस बात को बयां कर रहे हैं कि ‘जनसत्ता‘ भी 15 सालों से इस सपने को सजोये बैठे था जिसे वह प्रभाष जी के निधन के छठे दिन पूरा कर दिखाया। वह चित्र भी इस बात का संकेत दे रहा है कि आमजन के लिए बनाया गया ‘जनसत्ता‘, की अगली जनवादी उड़ान में कुछ ऐसे लोगों की ही आवाज होगी। अच्छी बात तो यह है कि यूनियन बैंक 90 सालो से भारत को सुनहरे सपने देखने की प्रेरणा देता ही रहा लेकिन ‘जनसत्ता‘ के बाजारवादी सम्पदकों ने 15 सालों से सजोये अपने सपने को पूरा कर दिखाया। ‘जनसत्ता‘ के इतिहास में शायद यह पहला दिन था जब इस तरह का कोई विज्ञापन छपा।
इस बात का स्पष्टीकरण करना चाहा कि ‘जनसत्ता‘ में कभी इस प्रकार के विज्ञापन छपे थे। सुबह-सुबह ‘जनसत्ता‘ से जुड़े एक वरिष्ठ पत्रकार से बात की तो वे बड़े दुखी भाव में बोेले कि अब ‘जनसत्ता‘, वो ‘जनसत्ता‘ नहीं रहा जिसे प्रभाष जोशी ने गढ़ा और रचा था। जनसत्ता पर उनका इतना प्रभाव था कि उनके रहते इस तरह का विज्ञापन निकालने की हिम्मत कभी कोई सम्पादक नहीं जुटा सका। एक वो दिन थे और यह भी एक दिन है, जिसे ‘जनसत्ता‘ में बढ़े बाजावादी बर्चस्व के रुप में याद किया जायेगा। उन्होंने यहां तक बताया कि अब इस बदलाव को प्रभाष जी के चहेते भी नहीं रोक सकते हंै चूंकि यह सब दिल्ली के एसी कोठरियों में सालों-सालों तक बाहर न निकलने वाले बुद्धिजीवी लोग डिसाइड करते है कि अखबार का लेआउट आज कैसे बनेगा और पहले पन्ने पर क्या-क्या जायेगा, क्या नहीं ?
जिस प्रभाष जोशी ने अपना खून-पसीना एक कर ‘जनसत्ता‘ को आमजन का अखबार बनाया और आजीवन बनाये रखने के लिए प्रतिबद्ध रहे उसी प्रभाष जोशी के निधन पर ‘जनसत्ता‘ में एक सम्पादकीय भी नहीं छपा, जबकि उस दिन के लगभग सभी अखबारों में छपा था। पर इससे भी बड़ी दुखद बात तो यह है कि प्रभाष जी अपने जीते जी जनसत्ता में जिस चीज को दूर-दूर तक फटकने नहीं दिये उसी चीज को उनके पंचतत्व में विलीन हुए सप्ताह भी नहीं हुआ होगा कि बाजारु किस्म के संपादकों ने जनता के सामने परोसना शुरु कर दिया। हालांकि बाजारवाद का प्रभाव पिछले कुछ महीनों से बढ़ने लगा था। मई-जून के महीनों में हेड मास्ट के नीचे ‘टोरेक्स‘ कफ सीरप का ऐड निकल रहा था। जो सम्भवतः पहले से ही ‘जनसत्ता‘ के जनवादी पत्रकारों की गले की खिचखिच दूर करने और मानसिक रुप से तैयार रहने के लिए दिया जा रहा था।
इन सब के बावजूद जीवन के आखिरी साल में कुछ पत्रकार बंधुओं द्वारों पत्रकारिता के इस युगपुरुष को भी कर्मकाण्डी-ब्राह्मणवादी सोच वाला पत्रकार कहकर प्रचारित किया गया। जो बहुत हद तक सही भी है जिसे वे स्वयं स्वीकार भी करते थे कि वे एक कर्मकाण्डीय हिन्दू हैं। लेकिन उनका यहां हिन्दू होने का धर्म त्रिसूल और लाठी चलाने वाले संघियों के समनान्तर ही नहीं उनके खिलाफ भी था। जिसे उन्होंने अपनी पुस्तक हिन्दू होने के धर्म में व्याख्यायित भी किया है। हालांकि एक कर्मकाण्डीय हिन्दू और गांधीवादी-सर्वोदयी होने की जो राजनैतिक कमजोरियां होती हैं उनसे वे भी मुक्त नहीं थे और समय-समय पर ये कमजोरिया उजागर भी हो जाती थीं। जैसे पिछले दिनों ही वे जनसत्ता में जेपी आंदोलन में संघियों को शामिल करने की ऐतिहासिक ‘भूल’ को जायज ठहराने लगे थे, या भाजपा के वरिष्ठ नेता हृदय नारायण दिक्षित के पुस्तक का विमोचन करने पहुंच गये थे।
आमजन के मुद्दे की आवाज बनकर जनप्रतिनिधियों और संसद को कठघरे में खड़ा करने के लिए तत्पर रहने वाले प्रभाष जोशी आजीवन बिना रुके बिना थके वंचित, बेजुबान लोगों की आवाज बनने के लिए प्रतिबद्ध रहे। मीडिया में सत्ता प्रतिष्ठानों और बाजारवाद के बढ़ते दखल के खिलाफ लड़ने के लिए बेचैन रहे।
उनके इसी स्वभाव के चलते हम पत्रकारिता के छात्रों ने उनको, इलाहाबाद विश्वविद्यायल में हो रहे शिक्षा के निजीकरण के विरोध म,ें चल रहे अपने आंदोलन में बुलाना चाहा। जब हमने उनसे बात की तो उन्होंने पत्रकारिता में बढ़ रहे बाजारवाद के विरोध में अपनी आवाज मुखर करने के लिए हमारे आंदोलन में आने का आमंत्रण सहस्र स्वीकार कर लिया। जबकि प्रभाष जी हममें से किसी को पहले से नहीं जानते थे। 30 सितम्बर को उनके आने को लेकर हम सभी छात्रों में एक अलग ही प्रकार का माहौल था। हमने तय किया कि इस पूरे आंदोलन का केन्द्र रहा पत्रकारिता विभाग का लान जिसे हमने ‘खबरचैरा‘ का नाम दिया है और जहां मीडिया की ताकत को दर्शाता स्टैचू है, जिसके इर्द-गिर्द हमने आंदोलन से जुड़े झण्डों और खबरों को चिपकाया है, उसका विधिवत उद्घाटन प्रभाष जी से करवायेंगे। और हमने करवाया भी।
इस समय तक आन्दोलन में कोई सफलता न देख हम छात्रों का उत्साह काफी कम हो गया था। छात्रों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा ‘‘पत्रकारिता के जिस मूल्य को बचाने और जिन बाजारवादी शक्तियों के दखल को रोकने की लड़ाई लड़ रहे हो उसमें कभी पीछे मत हटना, चाहे इसके लिये सर कटाने की नौबत ही क्यों न आ जाय।‘‘ ऐसी नौबत आयी तो इसमें कटने वाला पहला सर प्रभाश जोशी का होगा। 72 वर्षीय श्री जोशी की इन बातो को सुनकर छात्रों में आंदोलन के प्रति एक नया उत्साह जागा। उनकी बातों का छात्रों में इतना प्रभाव रहा कि जो छात्र आंदोलन में भाग लेने से कतराते थे वे भी अब आंदोलन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने लगे। पत्रकारिता में खत्म हो रही जनक्षधरता और उसके मूल्य के प्रति वे कितने चिंतित रहते थे उनकी इस चिंता का पता इसी बात से लगा सकता हैं कि अपने उस दिन के पूरे व्याख्यान में कई बार उनकी आखे आंसू से भर आईं। इस दौरान वे एक-एक छात्र, जो उनके पास गया सब से बातें करते रहे, कभी किसी के सर पर हाथ रखते हुए तो कभी किसी के कन्धे पर हाथ फेरते और उनसे पूछते कि पत्रकारिता में आने का मन कैसे हुआ।
इन सब के साथ-साथ प्रभाष जी के अन्दर अपने पुराने मित्रों के प्रति अगाध प्रेम देखने को मिला। वे अपने जितने अन्य कामों में उत्सुक रहते थे उतने ही अपने मित्रों से मिलने-जुलने में भी उत्सुक दिखे। दोपहर के समय अपने एक अजीज मित्र वरिष्ठ वामपंथी नेता कामरेड जियाउल हक से मिलने उनके घर स्वयं चलकर गये और देर शाम गेस्ट हाउस जाने तक वे उनके साथ रहे। प्रभाष जी की यह विशेषता ही थी कि बच्चे हों या बूढ़े वे सब को अपना दोस्त बना लेते थे। उनका यह पहलू तब देखने को मिला जब हम अपने कुछ साथियों सहित उन्हें रेलवे स्टेशन छोड़ने गये। प्रभाष जी को एक दफा सीट पर बैठा दिया गया लेकिन प्रभाष जी थे कि एक दोस्त की तरह बोगी से बाहर निकलकर ट्रेन छूटने तक प्लेटफार्म पर खड़े होकर हम छात्रों से आंदोलन व पत्रकारिता तथा विश्वविद्यालयों के बदलते स्वरुप पर चर्चाएं करते रहे। इसी बीच ट्रेन की सीटी बजी और वे चले गये-----।

16 नव॰ 2009

आलोक तोमर
प्रभाष जोशी चले गए। उनकी अस्थियां भी उस नर्मदा में विसर्जित हो गई जिस वे हमेशा मां कहते थे और अक्सर नर्मदा को याद कर के इतने भावुक हो जाते थे कि गला भर आता था। इन दिनों हमारे प्रभाष जी को ले कर संवेदनाओं के लेख, संस्मरण और शोक सभाओं का दौर चल रहा है। वे लोग जो कुछ दिन पहले तक इंटरनेट पर प्रभाष जी को इस युग का सबसे पतित, मनुवादी और ब्राह्मणवादी पत्रकार करार दे रहे थे, उनकी बोलती बंद है। उनमें से कई तो उनके निधन पर घड़ियाली आंसू भी बहाते दिखे।
लेकिन अब वक्त प्रभाष जी को याद करने से ज्यादा उनके सरोकारो को याद करने का है। तिहत्तर साल की उम्र में भी जिन सरोकारो को ले कर प्रभाष जी देश के हर कोने तक हर किस्म के वाहन से और होटलों से ले कर लोगों के घरों में ठहर कर पत्रकारिता के कायाकल्प और उसमें आ गए दोषों से कलंक मुक्ति की अलख जगा रहे थे, उनके इसी सरोकार को जारी रखना और आगे बढ़ाना शायद प्रभाष जी को सबसे बड़ी श्रध्दांजलि होगी। पता नहीं आज जो लोग आंसू बहा रहे हैं वे इस सरोकार को सहेजने में कितनी रुचि दिखाएंगे। सरोकार रोटी और शराब के पैसा नहीं देता। उसके लिए तो प्रभाष जी जैसा कलेजा चाहिए और एक सक्रिय और तेजस्वी वैराग्य चाहिए।
प्रभाष जी पत्रकारिता के नाम पर हो रही धंधेबाजी के खिलाफ जूझ रहे थे। वे समाज की हर बुराई और हर अन्याय के खिलाफ लड़ रहे थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ भी वे खड़े थे और बंगाल के नंदीग्राम के ग्रामीणों के साथ भी शामिल थे। हमारे मित्र और विश्वविख्यात कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा बता रहे थे कि चंडीगढ़ में एक्सप्रेस के संपादक रहने के दौरान उन्होंने एक सवाल किया था कि जिस देश में 70 प्रतिशत लोग खेती पर आधारित हो वहां गंभीर कृषि पत्रकारिता क्यों नहीं हो सकती? देवेंद्र शर्मा कृषि वैज्ञानिक बनने के रास्ते पर थे मगर कृषि पत्रकार बन गए और इन दिनों उन्हीं से पता लगा कि विदेशी बीजों और मल्टीनेशनल खेती के अलावा किसानों पर कर्जे के खिलाफ भी प्रभाष जी की जंग जारी थी।
प्रभाष जी के बेटे संदीप ने उनके अंतिम क्षणों का वर्णन किया है। सचिन के आउट होते ही वे टीवी वाले कमरे से उठ कर चले गए थे और संदीप जो खुद भी रणजी और कांउटी तक खेल चुके थे, ने पिता को फोन किया तो आखिरी सवाल था कि क्या स्कोर हुआ है? इसके बाद फोन मां ने लिया और कहा कि बेटा जल्दी आओ, पिता जी बेहोश हो गए। सो प्रभाष जी के अंतिम शब्द थे- ‘क्या स्कोर हुआ है’।
क्रिकेट की भाषा में ही कहे तो प्रभाष जी ने अपने आपको हिट विकेट कर दिया। उम्र हो चली थी। पच्चीस साल से शुगर के मरीज थे। एक बाई पास सर्जरी हो चुकी थी। पेस मेकर लगा हुआ था। फिर भी अगर किसी से मिलना है तो मिलना है। तीन मंजिल चढ़ के चले जाएंगे। प्रभाष जी जैसा न कोई हुआ है, न कोई होगा क्योंकि जैसा कि पहले और हमेशा कहा कि प्रभाष जोशी बनने के लिए कलेजा चाहिए। जिस समय प्रभाष जी का जनसत्ता अपने चरम पर था और विज्ञापन देने वालों की और पैसा दे कर खबर छपवानों वालों की लाइन लगी होती थी, प्रभाष जी ने जनसत्ता को घाटे में चलने दिया लेकिन वे सौदे नहीं किए जिनके खिलाफ वे आखिर तक लड़ रहे थे। इंडियन एक्सप्रेस के एक्सप्रेस टॉवर्स की किराएदार न्यू बैंक ऑफ इंडिया के घपलों को बैंक के निपट जाने तक उजागर करने का पूरा मौका दिया और इसके बावजूद दिया कि उनके खास मित्र और बड़े वकील लक्ष्मी मल्ल सिंघवी रामनाथ गोयनका तक पहुंच गए थे। इसके अलावा अखबार को साल में करोड़ों का विज्ञापन देने वाले मारुति उद्योग समूह के मुखिया के खिलाफ अभियान चलाया, विज्ञापन बंद हो गए मगर उन्हें परवाह नहीं थी।
बाजार के कुछ नियम होते हैं मगर पत्रकारिता की एक पूरी आचार संहिता होती है। प्रभाष जी ने इस आचार संहिता को वास्तविकता बनाने के लिए कई मोर्चे खोल रखे थे। इतना ही नहीं एक मोर्चा हिंद स्वराज का भी था। प्रभाष जी भारत की पत्रकारिता को आजादी का मंत्र देने वाले रामनाथ गोयनका की एक प्रमाणिक जीवनी लिखना चाहते थे और एक किताब आजादी के बाद की राजनीति पर लिखना चाहते थे और यह सब दो साल में यानी 75 का आंकड़ा पार करने के पहले कर लेना चाहते थे। मगर काल ने मौका ही नहीं दिया।
प्रभाष जोशी को याद करना असल में उन कामनाओं को पूरा करना होगा जिनमें से एक भी खुद उनके लिए नहीं थी। वे एक मुक्त और ताकतवर समाज चाहते थे। ऐसा समाज बने और वही प्रभाष जी को याद करे, इससे बड़ी श्रध्दांजलि दूसरी नहीं हो सकती। मगर दिक्कत यह है कि आज अखबार चलाने के साथ शराब की फैक्ट्रियां और दूसरे कारोबार करने वाले लोगों की जो जमात है और इसमें से कई अखबार को सिर्फ अपने कारोबार का कवच बनाना चाहते हैं उनके लिए उनके पत्रकार उनके धंधे के चौकीदार के अलावा कुछ नहीं होते। प्रभाष जी की लड़ाई पत्रकार को चौकीदार बनाने के खिलाफ थी। जो यह लड़ाई जारी रखेगा वही प्रभाष जी की परंपरा का हिस्सेदार होने का हक पाएगा।
प्रभाष जी के जाने के यथार्थ का आभास सिर्फ पत्रकारिता जगत को नहीं बल्कि पूरे समाज को होने में वक्त लगेगा। अभी से बहुत सारे आंदोलनकर्मी, बहुत सारे जूझारू पत्रकार और बहुत से साहित्यकार कहने लग गए हैं कि प्रभाष जी के बिना सब कुछ अधूरा लग रहा है। प्रभाष जी को भी इस संसार में जो अधूरा लगता था उसे पूरा करने की कोशिश वे कर रहे हैं। पहले भी कह चुका हूं और फिर कह रहा हूं कि प्रभाष जी वैरागी नहीं थे मगर उनकी सांसारिकता और उनके संघर्ष हमारे संसार को बेहतर और रहने लायक बनाने वाले थे। प्रभाष जी के आत्मा को भगवान कभी शांति नहीं दे। उनकी आत्मा हमारी नायक बनी रहे। आंखे बंद कर के सुनिए यह आत्मा पुकार रही है- आओ और संघर्ष के सहयात्री बनो। कोई है?
Mohlla se sabhar

7 नव॰ 2009

'सर कटाने की नौबत आई तो कटने वाला पहला सर प्रभाष जोशी का होगा'

-प्रभाष जोशी को एक आंदोलन की श्रद्धांजलि

अनुराग शुक्ला

ऑफिस से निकल चुका था लेकिन सिटी एडिशन से सुशील का फोन आया कि प्रभाष जी नहीं रहे. यकीन नहीं हुआ, टीवी चैनलों को उलटना पुलटना शुरू किया. लेकिन कहीं कोई सूचना नहीं थी. दिल्ली के दो चार साçथयों को फोन लगाया. तब तक एनडीटीवी पर स्लग लैश हुआ कि प्रभाष जी नहीं रहे.

टीवी पर लिख के आ रहा था "जाने माने पत्रकार प्रभाष जोशी का निधन" . उन शब्दों को पढ़ने समझने के बजाय प्रभाष जी की वह मूर्ति याद आ गई जब वह इलाहाबाद यूनिवçर्सटी के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के छात्रों के शिक्षा के व्यापारीकरण के खिलाफ आंदोलन में शामिल होने आए थे. बिल्कुल ठीक और तेवर के साथ. प्रभाष जी विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ जमकर बोले. सार्वजनिक मंच से बताया कि यूनिवçर्सटी में डिगि्रयां बेचने वालों ने उनको आंदोलन में न आने देने के लिए कितने कागद कारे किए. ये भी बताया कि कैसे उनके करीबियों से कहलवाया गए कि शिक्षा के निजीकरण विरोध आंदोलन में वो न आए. लेकिन प्रभाष जी आए और निजीकरण के दलालों की पोल भी खोली. सुनील उमराव और शहनवाज ने आंदोलन का पक्ष रखा तो प्रभाष जी भावुक हो गए और कहा कि मैं तो बुजुर्ग आदमी हूं, छात्रों की इस लड़ाई में अगर सर कटाने की नौबत आई तो कटने वाला पहला सर प्रभाष जोषी का होगा.

प्रभाष जी के इन शब्दों ने वहां मौजूद छात्रों की लड़ाई को एक नया जोश नया जज्बा दिया था. व्यवस्था के एक प्रति मूधüन्य पत्रकार के गुस्से ने हम सबको एक नई ताकत दी थी. गेस्ट हाउस में प्रभाष जी से मिलने वालों की भीड थी. उसमें सत्ताकामी भी थे और सत्ता के प्रतिगामी भी. लेकिन प्रभाष जी अडिग थे. उन्होंने आंदोलन के समथन में बार-बार आने का वादा किया था.

प्रभाष जी ने कहा था कि अगर इस लड़ाई में सर कटाने की नौबत आई तो कटने वाला पहला सर प्रभाष जोषी का होगा. लेकिन हम से किसी को ये न मालूम था कि फिर से लौट कर आने का वादा करने वाले प्रभाष जी यूं चले जाएंगे. अभी तो उन्हें कितने कागद कारे करने थे. एमएनसी के दलालों के खिलाफ कितनी लड़ाई लड़नी थी. अभी कुछ दिनों पहले एक साथी से फोन पर बातचीत में उन्होंने हरियाण और महाराष्ट्र के चुनाव में अखबारों के खबरों के धंधे का खुलासा करने का वादा किया था. आज सुबह शहनवाज भाई का फोन आया बता रहे थे कि प्रभाष जी से बात करने की सोच रहा था कि एक पत्रकार महोदय शिक्षा के निजीकरण के आंदोलन को बदनाम करने की साजिश कर रहे हैं. लेकिन बात अधूरी रह गई. पत्रकारिता धर्म पर खरी बात करने वाला चुपचाप चला गया. अब कौन मीडिया के विज्ञापन के धंधे को उजागर करेगा. अब शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ तमाम दबावों को दरकिनार कर छात्रों का साथ देने कौन इलाहाबाद आएगा?

प्रभाष जी को हमारे और हमारे जैसे तमाम आंदोलनों की श्रद्धांजलि.

6 नव॰ 2009

पत्रकारिता जगत के पुरोधा प्रभाष जोशी के निधन पर श्रद्धांजलि



प्रभाष जोशी आम आदमी के लिए लड़ने वाले योद्धा थे: जियाउल हक

इलाहाबाद, 6 नवम्बर 2009! पत्रकारिता ज़गत के सशक्त हस्ताक्षर एवं जनसत्ता के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी नहीं रहे। देश के अंदर पत्रकारिता को जनसरोकारों से जोड़ने में उन्होंने प्रभावकारी भूमिका निभाई थी। वे आजीवन पत्रकारिता को आम जनजीवन की आवाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध रहे। मीडिया जगत में सत्ता प्रतिष्ठानो और बाजार के दखल के खिलाफ लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए वे अंतिम समय तक बेचैन रहे। आज वह हमारे बीच मौजूद नहीं हैं। देश के सामाजिक और लोकतांत्रिक आंदोलनों को उनकी कमी लम्बे समय तक खलेगी। उनके निधन पर पत्रकारिता विभाग की तरफ से आज एक शोक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें बतौर मुख्य अतिथि जाने-माने समाजसेवी और प्रभाष जोशी के पुराने साथी वरिष्ठ काॅमरेड जियाउल हक ने विभाग के सामने बने खबर चैरा प्रांगण में उनकी तस्वीर पर माल्यार्पण कर श्रद्धासुमन अर्पित किये। इसी क्रम में विभाग के समस्त छात्र छात्राओं द्वारा भी उनकी तस्वीर पर पुष्पार्पण किया गया।

प्रभाष जी को श्रद्धांजलि देते हुए काॅमरेड जियाउल हक ने कहा कि जोशी जी का जाना पूरे हिन्दुस्तान के जनवादी प्रगतिशील सोच रखने वाले लोगों के लिए एक अपूरणीय क्षति है। उन्होंने कहा कि प्रभाष जी की अचानक हुई मृत्यु से उन्हे इतना सदमा पहुंचा है जिसे वे शब्दों में बयां नहीं कर सकते। उनका कहना था कि प्रभाष जी सिर्फ एक पत्रकार ही नहीं थे बल्कि आम जनता से जुड़े मुद्दों पर अपनी मुखर आवाज और धारदार कलम के बूते संघर्ष करने वाले एक योद्धा थे। वे आम आदमी के मुद्दों पर उनकी आवाज बनकर जनप्रतिनिधियोें और संसद तक को कटघरे में खड़ा करने वाले एक सशक्त आधार स्तम्भ थे। इस स्तम्भ का न रहना आमजन के लिए एक ऐसी क्षति है जिसकी भरपाई होना आने वाले समय में मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
इस दौरान छात्रों का कहना था कि पिछले 30 सितम्बर को विभाग द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन के समर्थन में आये प्रभाष जोशी ने छात्रों से ये वादा लिया था कि वे किसी भी कीमत पर अपने कदम पीछे नहीं हटायेंगे। छात्रों ने अपने आन्दोलन के 65वें दिन आज एक बार फिर उनकी उस बात को याद करते हुए संकल्प लिया कि वे अपने आंदोलन को जारी रखेंगे। छात्रों ने कहा कि प्रभाष जी, पत्रकारिता के जिस जनपक्षधर स्वरुप और लोकतंात्रिक मूल्यों को बचाने लिए आजीवन संघर्षरत रहे, हम पत्रकारिता के छात्र उनके इन आदर्शों को आत्मसात करते हुए पत्रकारिता के इन सरोकारों को बचाने के लिए दृढ़संकल्पित हैं।
इस क्रम में प्रभाष जोशी द्वारा आंदोलन के समर्थन में विभाग में दिये गये भाषण की डाक्यूमेंट्रªªी फिल्म भी दिखाई गयी। इस दौरान पूर्व आइएएस श्री राम वर्मा, वरिष्ठ गांधीवादी श्री बल्लभ, पुनीत मालवीय,जनसत्ता के पत्रकार राघवेंद्र, आदि लोग उपस्थित रहे।

समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
9721446201,9793867715,9307761822

प्रभाष जोशी जी ने दी पत्रकारिता छात्र आन्दोलन को नई धार

हिन्दी पत्रकारिता के पितामह और पत्रकारिता के पेशेगत आदर्शाें को एक नई ऊंचाई देने वाले प्रभाष जोशी अब हमारे बीच नहीं रहे। एक बारगी सुनकर यकीन नहीं हुआ कि जन अधिकारों और प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करने वाला पुरोधा अचानक हमे छोड़ गया। पिछले 30 सितम्बर को ही वो हमारे बीच हमारे विभाग में थे- हमारे आंदोलन के हमराह के रुप में। विश्वविद्यालय के कोने में उपेक्षित पड़े हमारे छोटे से विभाग द्वारा विश्वविद्यालय प्रशासन की गलत नीतियों और शिक्षा के निजीकरण के विरोध में जब अपने आंदोलन की शुरुआत की गयी तो हमारे इस संघर्ष में सबसे पहले आने वालों में एक नाम प्रभाष जोशी का भी था। हम लोगों में कोई भी ऐसा नहीं था, जिसे वे पहले से जानते रहे हों, लेकिन जब हमने उन्हें अपने आंदोलन के बारे बताया और उनसे साथ आने का आग्रह किया तो उन्होंने अपनी सेहत और स्वास्थ्य की बिल्कुल परवाह न करते हुए हमारे समर्थन में इलाहाबाद आना सहर्ष स्वीकार कर लिया और इसके बाद विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा उन्हें आने से रोकने की सारी कोशिशों के बावजूद वे यहां आये। हमारे मंच से बोलते हुए वे कई बार भावुक हुए और कई बार अपनी मृत्यु को भी याद किया। यहां तक कि हमारे विभाग के आंदोलन के लिए उन्होंने अपना सर तक कटाने की बात कही।
प्रभाष जी का पूरा जीवन हमारे जैसी युवा पीढ़ी के लिए आदर्श और प्रेरणा स्रोत रहेगा, विशेष कर हमारे विभाग के लिए क्योंकि हमारे विभाग में आकर उन्होंने हमारे संघर्ष को एक नई धार दी। प्रभाष जोशी का जाना हिन्दी पत्रकारिता के एक ऐसे मूर्धन्य सितारे का जाना है, जिसकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ने वाली। उनके जाने से पत्रकारिता जगत में जो शून्य पैदा हुआ है उसकी पूर्ति आने वाले लम्बे समय तक सम्भव नहीं दिखती। इस दुख की घड़ी मे हम उनके परिवार के प्रति अपनी पूरी संवेदना और सहानुभूति व्यक्त करते हैं और ईश्वर से कामना करते हैं कि उनके परिवार को इस दुख को सहने की शक्ति प्रदान करे। जाते समय विभाग के छात्रों से भावुक होकर उन्होंने कहा था कि तुम लोगों ने जो लड़ाई शुरु की है, इससे कभी पीछे मत हटना और इस आंदोलन में हर कदम पर मैं तुम्हारे साथ हूं। उन्होंने यहां तक कहा कि इस संघर्ष में अगर कभी सर कटाने की भी नौबत आयी तो उसमें पहला सर प्रभाष जोशी का होगा। इसके बाद हम सभी ने उन्हें विश्वास दिलाया कि हम किसी भी हालत में अपने कदम पीछे नहीं लेंगे। आज हमारे आंदोलन का 65वां दिन है और हमारा विरोध लगातार जारी है। पत्रकारिता के सरोकारों को जिन्दा रखने के लिए हम आज भी सड़को पर हैं और इस बात के लिए दृढ़ संकल्पित भी, कि हम आजीवन पत्रकारिता के आदर्शाें को बचाने के लिए लड़ेंगे और अगर जरुरत पड़ी तो मरेंगे भी। शायद यही हमारी तरफ से पत्रकारिता जगत के इस भीष्मपितामह को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

नाम आँखों के साथ

समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद