20 सित॰ 2009

बीहड़ रास्तों का सफर

प्रतिभा कटियार

हवाएं हमेशा नर्म नहीं होतीं. कभी-कभी पत्थर सी सख्त भी होती हैं. पानी की बूंदें हमेशा छई छप्प छई नहीं होतीं, वे तेज धार भी हो सकती हैं ऐसी कि तलवार को मात दे दें. तरुणाई ऐसी ही हवा और ऐसी ही पानी की बूंदों का नाम है. इलाहाबाद में चल रहा आंदोलन कई मामलों में प्रेरणापरक है. यह चलती हुई हवा के खिलाफ खड़े होने जैसा है. इस आंदोलन की बाबत मेरी कई यूनिवर्सिटीज में, कई लोगों से बात हुई. हर जगह गहरे असंतोष की जड़ें नजर आईं. छात्रों से बात हुई. आहत छात्रों से. शिक्षकों से भी. झुंझलाते, चिड़चिड़ाते लेकिन खामोश. मेरी समझ में नहीं आता कि ये खामोशी आखिर टूटती क्यों नहीं? चलो, इलाहाबाद में यह चुप्पी टूटी तो सही.

बहाव के साथ बहना हमेशा आसान होता है. लेकिन जरूरत वक्त के धारों को मोडऩे की होती है. गलत के खिलाफ डटकर खड़े होने की होती है. 27 सितंबर करीब है. यह दिन ज़ेहन से कभी नहीं निकलता. बंदूकों की खेती करने का दिन. सपने देखने का दिन. खुद पर विश्वास करने का दिन. भगतसिंह का जन्मदिन. भगतसिंह ऐसा नाम है, जिसे सुनते ही एक ओज महसूस होता है. जो हमेशा युवा ही रहा. चेग्वेरा का नाम भी ऐसा ही नाम है. ये नाम युवाओं के लिए प्रेरणा हैं. सारी प्रेरणाएं क्या किताबों में दर्ज होने के लिए हैं? बहुत हुआ तो कुछ लेख लिख देने के लिए. या और हुआ तो राजनीति में उतरकर मंच से भाषण देने के लिए. फिर एक शानदार पॉलिटिकल करियर.

छात्र जीवन में एक साफ दृष्टिकोण बनने की नींव पड़ती है. वही साफ दृष्टिकोण जो जीवन की हर मुश्किल राह पर संबल बनता है. जब विचार और विचारधाराएं किताबों से निकलकर िदगी में दाखिल होती हैं. अगर छात्र पत्रकारिता के हों तब बात और भी सं$जीदा हो जाती है. छात्रों के लिहाज से भी और शिक्षकों के लिहाज से भी.

जब शिक्षा की शुरुआत ही ऐसी समझौतापरस्ती पर पडऩे लगे तो क्या उम्मीद की जा सकती है. इलाहाबाद के छात्रों और उनके शिक्षक सुनील ने अपनी भूमिकाओं को समझा और विरोध का रास्ता अख्तियार किया. एक शांतिपूर्ण विरोध. अब देखना बस इतना है कि कितने कदम हैं जो इन लोगों के साथ होकर इसे कारवां बनाते हैं.

कई बार लडऩा ही जीतना होता है उस लिहाज से जीत हो चुकी है.

मेरी बधाई!

कार्ल मार्क्स की कविता सबके लिए-

बीहड़ रास्तों का सफर
आओ
हम बीहड़ और कठिन सुदूर
यात्रा पर चलें
आओ,
क्योंकि छिछला
निरुद्देश्य जीवन
हमें स्वीकार नहीं.
हम ऊंघते,
कलम घिसते हुए
उत्पीडऩ और लाचारी में
नहीं जियेंगे.
हम आकांक्षा
आक्रोश, आवेग
और अभिमान से
जियेंगे
असली इनसान की तरह.
- कार्ल मार्क्स

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