18 दिस॰ 2009
क्या आप मीडिया के छात्र या युवा पत्रकार हैं?
* क्या आप मीडिया के छात्र या युवा पत्रकार हैं?
* क्या आपको लगता है की क्लास की पढ़ाई भविष्य में आपको किसी मीडिया संस्थान में एक अदद नौकरी दिलाने के लिए काफी है ?
* या क्या आप पत्रकारिता की पढ़ाई एक अदद नौकरी के लिए करना चाहते हैं या इसके पीछे कोई और सामाजिक-आर्थिक कारण है।
* क्या आप मीडिया में किसी तरह के सामाजिक बदलाव की कल्पना लिए जुड़े हैं ?
* आपको लगता है कि किसी मीडिया संस्थान से जुड़कर, हाथ में कलम या माइक थामकर इस भ्रष्ट सामाजिक तंत्र की कोई ईंट हिलाई जा सकती है। अगर ऐसा है तो क्या आपने अभी तक ऐसी कोई ईंट हिलाई है?
* क्या आपको कभी लगा कि आप ने पत्रकारिता की क्लास में जो कुछ भी पढ़ा वह सबकुछ केवल किताबी ज्ञान था ?
* या इससे इतर पत्रकारिता का सैद्धान्तिक ज्ञान आपको मीडिया माध्यमों को नियंत्रित करने वाली षक्तियों को समझने में कुछ मदद करता है।
* आपको लगता है कि आप मीडिया में जो कुछ करने के लिए आए थे वह नहीं कर पा रहे ?
* अपने छोटे से कैरियर में कभी आपके मन में ऐसा विचार आया कि इससे अच्छी सरकारी नौकरी है?
अगर ये सवाल आपके मन को कभी कचोटते हैं, विछोभ पैदा करते हैं या अपने अनुभव आप दूसरों से भी बांटना चाहते हैं तो वैकल्पिक वेब मीडिया के क्षेत्र में नई प्रतिमान स्थापित कर रहे जनादेश ऐसे लोगों के लिए विशेष काॅलम शुरू कर रहा है। इस काॅलम में आप मीडिया से जुड़ी अपनी कल्पनाओं व हकीकत को साझा कर सकते हैं। आप अपने अनुभव इस पते पर भेंज सकते हैं -
savitakumar123@gmail.com
4 दिस॰ 2009
न रहे प्रभाष जोशी, न रहा वो जनसत्ता
राकेश कुमार
‘हिन्दी पत्रकारिता का अंतिम सम्पादक, ‘स्टेट्समैन‘ ‘भारतीय पत्रकारिता के शिखर पुरुष, ‘हिन्दी पत्रकारिता का एक स्तंभ, ‘शोषित-पीड़ित, वंचित और बेजुबानों की आवाज, असाधारण बौद्धिक साहस के धनी, यानी प्रभाष जोशी। इन तमाम सम्बोंधनों से सुशोभित पत्रकारिता का लौहपुरुष अब अंतिम रुप से विदा ले चुका है। इतिहास बन चुके प्रभाश जोशी के नाम पर अब हमारे बीच केवल उनक द्वारा कारे किये गये कागद ही रह गये हैं। प्रभाष जी को उपरोक्त सभी सम्बोधनों से याद करते हुए तमाम वरिष्ठ पत्रकार, राजनेता और बुद्धिजीवी साथियों ने उनके पंचतत्व में विलीन होने से पहले अपने-अपने हिसाब से उनके ऋणों को चुकाने की कोशिश कीे।
जिस नर्मदा की तलहटी में बसे गाँव मोती (इंदौर) की सरजमीं में जन्में प्रभाष जी पले-बढे़ और अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत की, अंततः उसी नर्मदा की गोद में समाहित भी हो गये। नर्मदा नदी जिस तरह अन्य तमाम नदियों की अपेक्षा विपरीत दिशा पश्चिम में बही, उसी नदी के साये में पले-बढे प्रभाष जी पत्रकारिता जगत में एक अलग धारा बनकर आजीवन जनसरोकारी पत्रकारिता के प्रति ईमानदारी से समर्पित रहे। अपने जीवन में उन्होंने पत्रकारिता के लिए इतना कुछ किया, जिसे गिनाना मुश्किल नहीं, तो नामुमकिन जरुर है। अपने सम्पादकत्व में शुरु किये गये अखबार ‘जनसत्ता‘ के माध्यम से हिन्दी पत्रकारिता को जो धार, और जो कलेवर प्रभाष जी ने दिया, पत्रकारिता जगत ही नहीं, जनसरोकारों से संबंध रखने वाला हर आदमी इसके लिए, उनका आभारी रहेगा। 5 नवम्बर की रात अकस्मात उनका जाना लोकतंत्र के चैथे खम्भे ‘खबरपालिका‘ के उस सशक्त स्तम्भ का ढहना है, जिसके बिना उसका वजूद अंधकारमय नहीं तो धंुधला तो जरुर रहेगा।
सर्वोदयी और गांधीवादी आदर्शों में रचे-बसे प्रभाष जी 1972 में जेपी के आंदोलन में हमसफर बने और चम्बल के खूंखार डाकुओं का आत्मसर्पण करवाने से लेकर इन्दिरा गांधी सरकार का तख्तापलट करवाने तक में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। 1992 में बाबरी मस्ज़िद विध्वंस के समय आरएसएस व कारसेवकों के विरोध में खड़े रहकर उन्होंने जैसे धारदार काॅलम व लेख लिखे, वे आज भी प्रांसगिक हैं। साम्प्रदायिकता रुपी जहर को देश के लिए खतरा
मानकर उनने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके राजनीतिक मंच भाजपा से भी लोहा लिया और उनकी काली करतूतों को सामने लाने तक का काम किया। भारत की तथाकथित वामपंथी पार्टियों की भी खूब लानत-मलामत की। वे ताउम्र जनसरोकारी पत्रकारिता के प्रति समर्पित रहे। प्रभाष जी ये सब काम बड़े सहज ढंग से कर लेने वाले एक ऐसे मूर्धन्य पत्रकार थे, जिनकी जगह भर पाना शायद मुनासिब नहीं है। वे अपनी कलम के सामने किसी को नहींे बक्शते थे। उनकी कलम जब भी जिसके खिलाफ उठी, उसे लिख कर ही रुकी। इन्हीं आदर्शों ने उन्हें पत्रकारिता की कसौटी पर खरा सोना साबित किया, जिसकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ेगी।
इसे प्र्रभाष जी की खूबी ही कही जाय कि उन्होंने जनसत्ता की टीम में कई विचाराधारा के लोगों को शामिल किये थे। वे जिन राजनेताओं, पार्टियों और धर्मावलंबियों की रीति-नीति पर खूब खरी-खोटी लिखते थे, वे भी उनके प्रसंशक के बतौर देखे गये। वे वास्तव में एक असाधारण बौद्धिक साहस के धनी व्यक्ति थे। इंदौर के एक हिन्दी दैनिक ‘नई दुनिया‘ से पत्रकारिता की शुरुआत करने वाले प्रभाष जोशी आज कितने पत्र-पत्रिकाओं में बिखरे थे, इसका भी अनुमान लगा पाना कठिन है।
यह प्रभाष जी की लेखनी की ही देन थी कि कभी जनसत्ता उनके समय में दो लाख के आकंड़े को पार कर रहा था। इसी से उनके विचारों, आदर्शों और जनसरोकारी पत्रकारिता का पता लगाया जा सकता है। मीडिया में बढ़ रहे बाजारवाद को लेकर वे न केवल चिंतित रहे बल्कि उसके विरोध में संघर्ष छेड़ने से भी पीछे नहीं हटे। पत्रकारिता के गिरते मूल्यों के प्रति न केवल चिंतित रहे बल्कि उसके विरोध में लिखा भी। यहां तक कि उन्होंने अपने रहते जनसत्ता पर बाजारवाद को दूर-दूर तक फटकने नहीं दिया। जनसत्ता से सेवानिवृत्त होने के बाद भी जब तक उनका प्रभाव चलता रहा, उन्होंने जनसत्ता में विज्ञापन तक निकलना मुश्किल कर देते थे। उनका यह प्रभाव जैसे-जैसे कम होता गया वैसे-वैसे आम जन की ‘जनसत्ता‘ में भी विज्ञापनों की भरमार होने लगी, जो सिलसिला निरन्तर जारी है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि जनसत्ता में शुरु हुआ विज्ञापन का यह खेल आखिरकार कहां जाकर थमता है।
11 नवम्बर की सुबह उठा दरवाजा खोला, तो कुर्सी पर पड़ा अखबार देखा जो कुछ बदला सा नजर आ रहा था। अखबार उठाया और खोला तो आखे एक बार ठहर सी गयी कि ‘जनसत्त‘ का भी ऐसा हस्र हो सकता था, जो कभी सोचा भी नहीं था। 11 नवम्बर के लखनऊ अंक में पूरे पेज पर एक विज्ञापन छपा था जो तमाम अन्य हिन्दी-अंग्रेजी अखबारांे की भांति ‘जनसत्ता‘ में भी फ्रंट में फ्रंट पेज लगाया गया था। विज्ञापन में एक बच्ची हाथों में हवाई जहाज लिये दौड़ रही थी और उसके उपरी हिस्से में बड़े अक्षरों में लिखा था कि ‘90 वर्ष से अधिक समय से एक बैंक दे रहा है प्रेरणा, इंडिया को सपने देखने की‘। ये शब्द साफ तौर पर इस बात को बयां कर रहे हैं कि ‘जनसत्ता‘ भी 15 सालों से इस सपने को सजोये बैठे था जिसे वह प्रभाष जी के निधन के छठे दिन पूरा कर दिखाया। वह चित्र भी इस बात का संकेत दे रहा है कि आमजन के लिए बनाया गया ‘जनसत्ता‘, की अगली जनवादी उड़ान में कुछ ऐसे लोगों की ही आवाज होगी। अच्छी बात तो यह है कि यूनियन बैंक 90 सालो से भारत को सुनहरे सपने देखने की प्रेरणा देता ही रहा लेकिन ‘जनसत्ता‘ के बाजारवादी सम्पदकों ने 15 सालों से सजोये अपने सपने को पूरा कर दिखाया। ‘जनसत्ता‘ के इतिहास में शायद यह पहला दिन था जब इस तरह का कोई विज्ञापन छपा।
इस बात का स्पष्टीकरण करना चाहा कि ‘जनसत्ता‘ में कभी इस प्रकार के विज्ञापन छपे थे। सुबह-सुबह ‘जनसत्ता‘ से जुड़े एक वरिष्ठ पत्रकार से बात की तो वे बड़े दुखी भाव में बोेले कि अब ‘जनसत्ता‘, वो ‘जनसत्ता‘ नहीं रहा जिसे प्रभाष जोशी ने गढ़ा और रचा था। जनसत्ता पर उनका इतना प्रभाव था कि उनके रहते इस तरह का विज्ञापन निकालने की हिम्मत कभी कोई सम्पादक नहीं जुटा सका। एक वो दिन थे और यह भी एक दिन है, जिसे ‘जनसत्ता‘ में बढ़े बाजावादी बर्चस्व के रुप में याद किया जायेगा। उन्होंने यहां तक बताया कि अब इस बदलाव को प्रभाष जी के चहेते भी नहीं रोक सकते हंै चूंकि यह सब दिल्ली के एसी कोठरियों में सालों-सालों तक बाहर न निकलने वाले बुद्धिजीवी लोग डिसाइड करते है कि अखबार का लेआउट आज कैसे बनेगा और पहले पन्ने पर क्या-क्या जायेगा, क्या नहीं ?
जिस प्रभाष जोशी ने अपना खून-पसीना एक कर ‘जनसत्ता‘ को आमजन का अखबार बनाया और आजीवन बनाये रखने के लिए प्रतिबद्ध रहे उसी प्रभाष जोशी के निधन पर ‘जनसत्ता‘ में एक सम्पादकीय भी नहीं छपा, जबकि उस दिन के लगभग सभी अखबारों में छपा था। पर इससे भी बड़ी दुखद बात तो यह है कि प्रभाष जी अपने जीते जी जनसत्ता में जिस चीज को दूर-दूर तक फटकने नहीं दिये उसी चीज को उनके पंचतत्व में विलीन हुए सप्ताह भी नहीं हुआ होगा कि बाजारु किस्म के संपादकों ने जनता के सामने परोसना शुरु कर दिया। हालांकि बाजारवाद का प्रभाव पिछले कुछ महीनों से बढ़ने लगा था। मई-जून के महीनों में हेड मास्ट के नीचे ‘टोरेक्स‘ कफ सीरप का ऐड निकल रहा था। जो सम्भवतः पहले से ही ‘जनसत्ता‘ के जनवादी पत्रकारों की गले की खिचखिच दूर करने और मानसिक रुप से तैयार रहने के लिए दिया जा रहा था।
इन सब के बावजूद जीवन के आखिरी साल में कुछ पत्रकार बंधुओं द्वारों पत्रकारिता के इस युगपुरुष को भी कर्मकाण्डी-ब्राह्मणवादी सोच वाला पत्रकार कहकर प्रचारित किया गया। जो बहुत हद तक सही भी है जिसे वे स्वयं स्वीकार भी करते थे कि वे एक कर्मकाण्डीय हिन्दू हैं। लेकिन उनका यहां हिन्दू होने का धर्म त्रिसूल और लाठी चलाने वाले संघियों के समनान्तर ही नहीं उनके खिलाफ भी था। जिसे उन्होंने अपनी पुस्तक हिन्दू होने के धर्म में व्याख्यायित भी किया है। हालांकि एक कर्मकाण्डीय हिन्दू और गांधीवादी-सर्वोदयी होने की जो राजनैतिक कमजोरियां होती हैं उनसे वे भी मुक्त नहीं थे और समय-समय पर ये कमजोरिया उजागर भी हो जाती थीं। जैसे पिछले दिनों ही वे जनसत्ता में जेपी आंदोलन में संघियों को शामिल करने की ऐतिहासिक ‘भूल’ को जायज ठहराने लगे थे, या भाजपा के वरिष्ठ नेता हृदय नारायण दिक्षित के पुस्तक का विमोचन करने पहुंच गये थे।
आमजन के मुद्दे की आवाज बनकर जनप्रतिनिधियों और संसद को कठघरे में खड़ा करने के लिए तत्पर रहने वाले प्रभाष जोशी आजीवन बिना रुके बिना थके वंचित, बेजुबान लोगों की आवाज बनने के लिए प्रतिबद्ध रहे। मीडिया में सत्ता प्रतिष्ठानों और बाजारवाद के बढ़ते दखल के खिलाफ लड़ने के लिए बेचैन रहे।
उनके इसी स्वभाव के चलते हम पत्रकारिता के छात्रों ने उनको, इलाहाबाद विश्वविद्यायल में हो रहे शिक्षा के निजीकरण के विरोध म,ें चल रहे अपने आंदोलन में बुलाना चाहा। जब हमने उनसे बात की तो उन्होंने पत्रकारिता में बढ़ रहे बाजारवाद के विरोध में अपनी आवाज मुखर करने के लिए हमारे आंदोलन में आने का आमंत्रण सहस्र स्वीकार कर लिया। जबकि प्रभाष जी हममें से किसी को पहले से नहीं जानते थे। 30 सितम्बर को उनके आने को लेकर हम सभी छात्रों में एक अलग ही प्रकार का माहौल था। हमने तय किया कि इस पूरे आंदोलन का केन्द्र रहा पत्रकारिता विभाग का लान जिसे हमने ‘खबरचैरा‘ का नाम दिया है और जहां मीडिया की ताकत को दर्शाता स्टैचू है, जिसके इर्द-गिर्द हमने आंदोलन से जुड़े झण्डों और खबरों को चिपकाया है, उसका विधिवत उद्घाटन प्रभाष जी से करवायेंगे। और हमने करवाया भी।
इस समय तक आन्दोलन में कोई सफलता न देख हम छात्रों का उत्साह काफी कम हो गया था। छात्रों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा ‘‘पत्रकारिता के जिस मूल्य को बचाने और जिन बाजारवादी शक्तियों के दखल को रोकने की लड़ाई लड़ रहे हो उसमें कभी पीछे मत हटना, चाहे इसके लिये सर कटाने की नौबत ही क्यों न आ जाय।‘‘ ऐसी नौबत आयी तो इसमें कटने वाला पहला सर प्रभाश जोशी का होगा। 72 वर्षीय श्री जोशी की इन बातो को सुनकर छात्रों में आंदोलन के प्रति एक नया उत्साह जागा। उनकी बातों का छात्रों में इतना प्रभाव रहा कि जो छात्र आंदोलन में भाग लेने से कतराते थे वे भी अब आंदोलन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने लगे। पत्रकारिता में खत्म हो रही जनक्षधरता और उसके मूल्य के प्रति वे कितने चिंतित रहते थे उनकी इस चिंता का पता इसी बात से लगा सकता हैं कि अपने उस दिन के पूरे व्याख्यान में कई बार उनकी आखे आंसू से भर आईं। इस दौरान वे एक-एक छात्र, जो उनके पास गया सब से बातें करते रहे, कभी किसी के सर पर हाथ रखते हुए तो कभी किसी के कन्धे पर हाथ फेरते और उनसे पूछते कि पत्रकारिता में आने का मन कैसे हुआ।
इन सब के साथ-साथ प्रभाष जी के अन्दर अपने पुराने मित्रों के प्रति अगाध प्रेम देखने को मिला। वे अपने जितने अन्य कामों में उत्सुक रहते थे उतने ही अपने मित्रों से मिलने-जुलने में भी उत्सुक दिखे। दोपहर के समय अपने एक अजीज मित्र वरिष्ठ वामपंथी नेता कामरेड जियाउल हक से मिलने उनके घर स्वयं चलकर गये और देर शाम गेस्ट हाउस जाने तक वे उनके साथ रहे। प्रभाष जी की यह विशेषता ही थी कि बच्चे हों या बूढ़े वे सब को अपना दोस्त बना लेते थे। उनका यह पहलू तब देखने को मिला जब हम अपने कुछ साथियों सहित उन्हें रेलवे स्टेशन छोड़ने गये। प्रभाष जी को एक दफा सीट पर बैठा दिया गया लेकिन प्रभाष जी थे कि एक दोस्त की तरह बोगी से बाहर निकलकर ट्रेन छूटने तक प्लेटफार्म पर खड़े होकर हम छात्रों से आंदोलन व पत्रकारिता तथा विश्वविद्यालयों के बदलते स्वरुप पर चर्चाएं करते रहे। इसी बीच ट्रेन की सीटी बजी और वे चले गये-----।
‘हिन्दी पत्रकारिता का अंतिम सम्पादक, ‘स्टेट्समैन‘ ‘भारतीय पत्रकारिता के शिखर पुरुष, ‘हिन्दी पत्रकारिता का एक स्तंभ, ‘शोषित-पीड़ित, वंचित और बेजुबानों की आवाज, असाधारण बौद्धिक साहस के धनी, यानी प्रभाष जोशी। इन तमाम सम्बोंधनों से सुशोभित पत्रकारिता का लौहपुरुष अब अंतिम रुप से विदा ले चुका है। इतिहास बन चुके प्रभाश जोशी के नाम पर अब हमारे बीच केवल उनक द्वारा कारे किये गये कागद ही रह गये हैं। प्रभाष जी को उपरोक्त सभी सम्बोधनों से याद करते हुए तमाम वरिष्ठ पत्रकार, राजनेता और बुद्धिजीवी साथियों ने उनके पंचतत्व में विलीन होने से पहले अपने-अपने हिसाब से उनके ऋणों को चुकाने की कोशिश कीे।
जिस नर्मदा की तलहटी में बसे गाँव मोती (इंदौर) की सरजमीं में जन्में प्रभाष जी पले-बढे़ और अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत की, अंततः उसी नर्मदा की गोद में समाहित भी हो गये। नर्मदा नदी जिस तरह अन्य तमाम नदियों की अपेक्षा विपरीत दिशा पश्चिम में बही, उसी नदी के साये में पले-बढे प्रभाष जी पत्रकारिता जगत में एक अलग धारा बनकर आजीवन जनसरोकारी पत्रकारिता के प्रति ईमानदारी से समर्पित रहे। अपने जीवन में उन्होंने पत्रकारिता के लिए इतना कुछ किया, जिसे गिनाना मुश्किल नहीं, तो नामुमकिन जरुर है। अपने सम्पादकत्व में शुरु किये गये अखबार ‘जनसत्ता‘ के माध्यम से हिन्दी पत्रकारिता को जो धार, और जो कलेवर प्रभाष जी ने दिया, पत्रकारिता जगत ही नहीं, जनसरोकारों से संबंध रखने वाला हर आदमी इसके लिए, उनका आभारी रहेगा। 5 नवम्बर की रात अकस्मात उनका जाना लोकतंत्र के चैथे खम्भे ‘खबरपालिका‘ के उस सशक्त स्तम्भ का ढहना है, जिसके बिना उसका वजूद अंधकारमय नहीं तो धंुधला तो जरुर रहेगा।
सर्वोदयी और गांधीवादी आदर्शों में रचे-बसे प्रभाष जी 1972 में जेपी के आंदोलन में हमसफर बने और चम्बल के खूंखार डाकुओं का आत्मसर्पण करवाने से लेकर इन्दिरा गांधी सरकार का तख्तापलट करवाने तक में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। 1992 में बाबरी मस्ज़िद विध्वंस के समय आरएसएस व कारसेवकों के विरोध में खड़े रहकर उन्होंने जैसे धारदार काॅलम व लेख लिखे, वे आज भी प्रांसगिक हैं। साम्प्रदायिकता रुपी जहर को देश के लिए खतरा
मानकर उनने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके राजनीतिक मंच भाजपा से भी लोहा लिया और उनकी काली करतूतों को सामने लाने तक का काम किया। भारत की तथाकथित वामपंथी पार्टियों की भी खूब लानत-मलामत की। वे ताउम्र जनसरोकारी पत्रकारिता के प्रति समर्पित रहे। प्रभाष जी ये सब काम बड़े सहज ढंग से कर लेने वाले एक ऐसे मूर्धन्य पत्रकार थे, जिनकी जगह भर पाना शायद मुनासिब नहीं है। वे अपनी कलम के सामने किसी को नहींे बक्शते थे। उनकी कलम जब भी जिसके खिलाफ उठी, उसे लिख कर ही रुकी। इन्हीं आदर्शों ने उन्हें पत्रकारिता की कसौटी पर खरा सोना साबित किया, जिसकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ेगी।
इसे प्र्रभाष जी की खूबी ही कही जाय कि उन्होंने जनसत्ता की टीम में कई विचाराधारा के लोगों को शामिल किये थे। वे जिन राजनेताओं, पार्टियों और धर्मावलंबियों की रीति-नीति पर खूब खरी-खोटी लिखते थे, वे भी उनके प्रसंशक के बतौर देखे गये। वे वास्तव में एक असाधारण बौद्धिक साहस के धनी व्यक्ति थे। इंदौर के एक हिन्दी दैनिक ‘नई दुनिया‘ से पत्रकारिता की शुरुआत करने वाले प्रभाष जोशी आज कितने पत्र-पत्रिकाओं में बिखरे थे, इसका भी अनुमान लगा पाना कठिन है।
यह प्रभाष जी की लेखनी की ही देन थी कि कभी जनसत्ता उनके समय में दो लाख के आकंड़े को पार कर रहा था। इसी से उनके विचारों, आदर्शों और जनसरोकारी पत्रकारिता का पता लगाया जा सकता है। मीडिया में बढ़ रहे बाजारवाद को लेकर वे न केवल चिंतित रहे बल्कि उसके विरोध में संघर्ष छेड़ने से भी पीछे नहीं हटे। पत्रकारिता के गिरते मूल्यों के प्रति न केवल चिंतित रहे बल्कि उसके विरोध में लिखा भी। यहां तक कि उन्होंने अपने रहते जनसत्ता पर बाजारवाद को दूर-दूर तक फटकने नहीं दिया। जनसत्ता से सेवानिवृत्त होने के बाद भी जब तक उनका प्रभाव चलता रहा, उन्होंने जनसत्ता में विज्ञापन तक निकलना मुश्किल कर देते थे। उनका यह प्रभाव जैसे-जैसे कम होता गया वैसे-वैसे आम जन की ‘जनसत्ता‘ में भी विज्ञापनों की भरमार होने लगी, जो सिलसिला निरन्तर जारी है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि जनसत्ता में शुरु हुआ विज्ञापन का यह खेल आखिरकार कहां जाकर थमता है।
11 नवम्बर की सुबह उठा दरवाजा खोला, तो कुर्सी पर पड़ा अखबार देखा जो कुछ बदला सा नजर आ रहा था। अखबार उठाया और खोला तो आखे एक बार ठहर सी गयी कि ‘जनसत्त‘ का भी ऐसा हस्र हो सकता था, जो कभी सोचा भी नहीं था। 11 नवम्बर के लखनऊ अंक में पूरे पेज पर एक विज्ञापन छपा था जो तमाम अन्य हिन्दी-अंग्रेजी अखबारांे की भांति ‘जनसत्ता‘ में भी फ्रंट में फ्रंट पेज लगाया गया था। विज्ञापन में एक बच्ची हाथों में हवाई जहाज लिये दौड़ रही थी और उसके उपरी हिस्से में बड़े अक्षरों में लिखा था कि ‘90 वर्ष से अधिक समय से एक बैंक दे रहा है प्रेरणा, इंडिया को सपने देखने की‘। ये शब्द साफ तौर पर इस बात को बयां कर रहे हैं कि ‘जनसत्ता‘ भी 15 सालों से इस सपने को सजोये बैठे था जिसे वह प्रभाष जी के निधन के छठे दिन पूरा कर दिखाया। वह चित्र भी इस बात का संकेत दे रहा है कि आमजन के लिए बनाया गया ‘जनसत्ता‘, की अगली जनवादी उड़ान में कुछ ऐसे लोगों की ही आवाज होगी। अच्छी बात तो यह है कि यूनियन बैंक 90 सालो से भारत को सुनहरे सपने देखने की प्रेरणा देता ही रहा लेकिन ‘जनसत्ता‘ के बाजारवादी सम्पदकों ने 15 सालों से सजोये अपने सपने को पूरा कर दिखाया। ‘जनसत्ता‘ के इतिहास में शायद यह पहला दिन था जब इस तरह का कोई विज्ञापन छपा।
इस बात का स्पष्टीकरण करना चाहा कि ‘जनसत्ता‘ में कभी इस प्रकार के विज्ञापन छपे थे। सुबह-सुबह ‘जनसत्ता‘ से जुड़े एक वरिष्ठ पत्रकार से बात की तो वे बड़े दुखी भाव में बोेले कि अब ‘जनसत्ता‘, वो ‘जनसत्ता‘ नहीं रहा जिसे प्रभाष जोशी ने गढ़ा और रचा था। जनसत्ता पर उनका इतना प्रभाव था कि उनके रहते इस तरह का विज्ञापन निकालने की हिम्मत कभी कोई सम्पादक नहीं जुटा सका। एक वो दिन थे और यह भी एक दिन है, जिसे ‘जनसत्ता‘ में बढ़े बाजावादी बर्चस्व के रुप में याद किया जायेगा। उन्होंने यहां तक बताया कि अब इस बदलाव को प्रभाष जी के चहेते भी नहीं रोक सकते हंै चूंकि यह सब दिल्ली के एसी कोठरियों में सालों-सालों तक बाहर न निकलने वाले बुद्धिजीवी लोग डिसाइड करते है कि अखबार का लेआउट आज कैसे बनेगा और पहले पन्ने पर क्या-क्या जायेगा, क्या नहीं ?
जिस प्रभाष जोशी ने अपना खून-पसीना एक कर ‘जनसत्ता‘ को आमजन का अखबार बनाया और आजीवन बनाये रखने के लिए प्रतिबद्ध रहे उसी प्रभाष जोशी के निधन पर ‘जनसत्ता‘ में एक सम्पादकीय भी नहीं छपा, जबकि उस दिन के लगभग सभी अखबारों में छपा था। पर इससे भी बड़ी दुखद बात तो यह है कि प्रभाष जी अपने जीते जी जनसत्ता में जिस चीज को दूर-दूर तक फटकने नहीं दिये उसी चीज को उनके पंचतत्व में विलीन हुए सप्ताह भी नहीं हुआ होगा कि बाजारु किस्म के संपादकों ने जनता के सामने परोसना शुरु कर दिया। हालांकि बाजारवाद का प्रभाव पिछले कुछ महीनों से बढ़ने लगा था। मई-जून के महीनों में हेड मास्ट के नीचे ‘टोरेक्स‘ कफ सीरप का ऐड निकल रहा था। जो सम्भवतः पहले से ही ‘जनसत्ता‘ के जनवादी पत्रकारों की गले की खिचखिच दूर करने और मानसिक रुप से तैयार रहने के लिए दिया जा रहा था।
इन सब के बावजूद जीवन के आखिरी साल में कुछ पत्रकार बंधुओं द्वारों पत्रकारिता के इस युगपुरुष को भी कर्मकाण्डी-ब्राह्मणवादी सोच वाला पत्रकार कहकर प्रचारित किया गया। जो बहुत हद तक सही भी है जिसे वे स्वयं स्वीकार भी करते थे कि वे एक कर्मकाण्डीय हिन्दू हैं। लेकिन उनका यहां हिन्दू होने का धर्म त्रिसूल और लाठी चलाने वाले संघियों के समनान्तर ही नहीं उनके खिलाफ भी था। जिसे उन्होंने अपनी पुस्तक हिन्दू होने के धर्म में व्याख्यायित भी किया है। हालांकि एक कर्मकाण्डीय हिन्दू और गांधीवादी-सर्वोदयी होने की जो राजनैतिक कमजोरियां होती हैं उनसे वे भी मुक्त नहीं थे और समय-समय पर ये कमजोरिया उजागर भी हो जाती थीं। जैसे पिछले दिनों ही वे जनसत्ता में जेपी आंदोलन में संघियों को शामिल करने की ऐतिहासिक ‘भूल’ को जायज ठहराने लगे थे, या भाजपा के वरिष्ठ नेता हृदय नारायण दिक्षित के पुस्तक का विमोचन करने पहुंच गये थे।
आमजन के मुद्दे की आवाज बनकर जनप्रतिनिधियों और संसद को कठघरे में खड़ा करने के लिए तत्पर रहने वाले प्रभाष जोशी आजीवन बिना रुके बिना थके वंचित, बेजुबान लोगों की आवाज बनने के लिए प्रतिबद्ध रहे। मीडिया में सत्ता प्रतिष्ठानों और बाजारवाद के बढ़ते दखल के खिलाफ लड़ने के लिए बेचैन रहे।
उनके इसी स्वभाव के चलते हम पत्रकारिता के छात्रों ने उनको, इलाहाबाद विश्वविद्यायल में हो रहे शिक्षा के निजीकरण के विरोध म,ें चल रहे अपने आंदोलन में बुलाना चाहा। जब हमने उनसे बात की तो उन्होंने पत्रकारिता में बढ़ रहे बाजारवाद के विरोध में अपनी आवाज मुखर करने के लिए हमारे आंदोलन में आने का आमंत्रण सहस्र स्वीकार कर लिया। जबकि प्रभाष जी हममें से किसी को पहले से नहीं जानते थे। 30 सितम्बर को उनके आने को लेकर हम सभी छात्रों में एक अलग ही प्रकार का माहौल था। हमने तय किया कि इस पूरे आंदोलन का केन्द्र रहा पत्रकारिता विभाग का लान जिसे हमने ‘खबरचैरा‘ का नाम दिया है और जहां मीडिया की ताकत को दर्शाता स्टैचू है, जिसके इर्द-गिर्द हमने आंदोलन से जुड़े झण्डों और खबरों को चिपकाया है, उसका विधिवत उद्घाटन प्रभाष जी से करवायेंगे। और हमने करवाया भी।
इस समय तक आन्दोलन में कोई सफलता न देख हम छात्रों का उत्साह काफी कम हो गया था। छात्रों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा ‘‘पत्रकारिता के जिस मूल्य को बचाने और जिन बाजारवादी शक्तियों के दखल को रोकने की लड़ाई लड़ रहे हो उसमें कभी पीछे मत हटना, चाहे इसके लिये सर कटाने की नौबत ही क्यों न आ जाय।‘‘ ऐसी नौबत आयी तो इसमें कटने वाला पहला सर प्रभाश जोशी का होगा। 72 वर्षीय श्री जोशी की इन बातो को सुनकर छात्रों में आंदोलन के प्रति एक नया उत्साह जागा। उनकी बातों का छात्रों में इतना प्रभाव रहा कि जो छात्र आंदोलन में भाग लेने से कतराते थे वे भी अब आंदोलन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने लगे। पत्रकारिता में खत्म हो रही जनक्षधरता और उसके मूल्य के प्रति वे कितने चिंतित रहते थे उनकी इस चिंता का पता इसी बात से लगा सकता हैं कि अपने उस दिन के पूरे व्याख्यान में कई बार उनकी आखे आंसू से भर आईं। इस दौरान वे एक-एक छात्र, जो उनके पास गया सब से बातें करते रहे, कभी किसी के सर पर हाथ रखते हुए तो कभी किसी के कन्धे पर हाथ फेरते और उनसे पूछते कि पत्रकारिता में आने का मन कैसे हुआ।
इन सब के साथ-साथ प्रभाष जी के अन्दर अपने पुराने मित्रों के प्रति अगाध प्रेम देखने को मिला। वे अपने जितने अन्य कामों में उत्सुक रहते थे उतने ही अपने मित्रों से मिलने-जुलने में भी उत्सुक दिखे। दोपहर के समय अपने एक अजीज मित्र वरिष्ठ वामपंथी नेता कामरेड जियाउल हक से मिलने उनके घर स्वयं चलकर गये और देर शाम गेस्ट हाउस जाने तक वे उनके साथ रहे। प्रभाष जी की यह विशेषता ही थी कि बच्चे हों या बूढ़े वे सब को अपना दोस्त बना लेते थे। उनका यह पहलू तब देखने को मिला जब हम अपने कुछ साथियों सहित उन्हें रेलवे स्टेशन छोड़ने गये। प्रभाष जी को एक दफा सीट पर बैठा दिया गया लेकिन प्रभाष जी थे कि एक दोस्त की तरह बोगी से बाहर निकलकर ट्रेन छूटने तक प्लेटफार्म पर खड़े होकर हम छात्रों से आंदोलन व पत्रकारिता तथा विश्वविद्यालयों के बदलते स्वरुप पर चर्चाएं करते रहे। इसी बीच ट्रेन की सीटी बजी और वे चले गये-----।
16 नव॰ 2009
आलोक तोमर
प्रभाष जोशी चले गए। उनकी अस्थियां भी उस नर्मदा में विसर्जित हो गई जिस वे हमेशा मां कहते थे और अक्सर नर्मदा को याद कर के इतने भावुक हो जाते थे कि गला भर आता था। इन दिनों हमारे प्रभाष जी को ले कर संवेदनाओं के लेख, संस्मरण और शोक सभाओं का दौर चल रहा है। वे लोग जो कुछ दिन पहले तक इंटरनेट पर प्रभाष जी को इस युग का सबसे पतित, मनुवादी और ब्राह्मणवादी पत्रकार करार दे रहे थे, उनकी बोलती बंद है। उनमें से कई तो उनके निधन पर घड़ियाली आंसू भी बहाते दिखे।
लेकिन अब वक्त प्रभाष जी को याद करने से ज्यादा उनके सरोकारो को याद करने का है। तिहत्तर साल की उम्र में भी जिन सरोकारो को ले कर प्रभाष जी देश के हर कोने तक हर किस्म के वाहन से और होटलों से ले कर लोगों के घरों में ठहर कर पत्रकारिता के कायाकल्प और उसमें आ गए दोषों से कलंक मुक्ति की अलख जगा रहे थे, उनके इसी सरोकार को जारी रखना और आगे बढ़ाना शायद प्रभाष जी को सबसे बड़ी श्रध्दांजलि होगी। पता नहीं आज जो लोग आंसू बहा रहे हैं वे इस सरोकार को सहेजने में कितनी रुचि दिखाएंगे। सरोकार रोटी और शराब के पैसा नहीं देता। उसके लिए तो प्रभाष जी जैसा कलेजा चाहिए और एक सक्रिय और तेजस्वी वैराग्य चाहिए।
प्रभाष जी पत्रकारिता के नाम पर हो रही धंधेबाजी के खिलाफ जूझ रहे थे। वे समाज की हर बुराई और हर अन्याय के खिलाफ लड़ रहे थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ भी वे खड़े थे और बंगाल के नंदीग्राम के ग्रामीणों के साथ भी शामिल थे। हमारे मित्र और विश्वविख्यात कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा बता रहे थे कि चंडीगढ़ में एक्सप्रेस के संपादक रहने के दौरान उन्होंने एक सवाल किया था कि जिस देश में 70 प्रतिशत लोग खेती पर आधारित हो वहां गंभीर कृषि पत्रकारिता क्यों नहीं हो सकती? देवेंद्र शर्मा कृषि वैज्ञानिक बनने के रास्ते पर थे मगर कृषि पत्रकार बन गए और इन दिनों उन्हीं से पता लगा कि विदेशी बीजों और मल्टीनेशनल खेती के अलावा किसानों पर कर्जे के खिलाफ भी प्रभाष जी की जंग जारी थी।
प्रभाष जी के बेटे संदीप ने उनके अंतिम क्षणों का वर्णन किया है। सचिन के आउट होते ही वे टीवी वाले कमरे से उठ कर चले गए थे और संदीप जो खुद भी रणजी और कांउटी तक खेल चुके थे, ने पिता को फोन किया तो आखिरी सवाल था कि क्या स्कोर हुआ है? इसके बाद फोन मां ने लिया और कहा कि बेटा जल्दी आओ, पिता जी बेहोश हो गए। सो प्रभाष जी के अंतिम शब्द थे- ‘क्या स्कोर हुआ है’।
क्रिकेट की भाषा में ही कहे तो प्रभाष जी ने अपने आपको हिट विकेट कर दिया। उम्र हो चली थी। पच्चीस साल से शुगर के मरीज थे। एक बाई पास सर्जरी हो चुकी थी। पेस मेकर लगा हुआ था। फिर भी अगर किसी से मिलना है तो मिलना है। तीन मंजिल चढ़ के चले जाएंगे। प्रभाष जी जैसा न कोई हुआ है, न कोई होगा क्योंकि जैसा कि पहले और हमेशा कहा कि प्रभाष जोशी बनने के लिए कलेजा चाहिए। जिस समय प्रभाष जी का जनसत्ता अपने चरम पर था और विज्ञापन देने वालों की और पैसा दे कर खबर छपवानों वालों की लाइन लगी होती थी, प्रभाष जी ने जनसत्ता को घाटे में चलने दिया लेकिन वे सौदे नहीं किए जिनके खिलाफ वे आखिर तक लड़ रहे थे। इंडियन एक्सप्रेस के एक्सप्रेस टॉवर्स की किराएदार न्यू बैंक ऑफ इंडिया के घपलों को बैंक के निपट जाने तक उजागर करने का पूरा मौका दिया और इसके बावजूद दिया कि उनके खास मित्र और बड़े वकील लक्ष्मी मल्ल सिंघवी रामनाथ गोयनका तक पहुंच गए थे। इसके अलावा अखबार को साल में करोड़ों का विज्ञापन देने वाले मारुति उद्योग समूह के मुखिया के खिलाफ अभियान चलाया, विज्ञापन बंद हो गए मगर उन्हें परवाह नहीं थी।
बाजार के कुछ नियम होते हैं मगर पत्रकारिता की एक पूरी आचार संहिता होती है। प्रभाष जी ने इस आचार संहिता को वास्तविकता बनाने के लिए कई मोर्चे खोल रखे थे। इतना ही नहीं एक मोर्चा हिंद स्वराज का भी था। प्रभाष जी भारत की पत्रकारिता को आजादी का मंत्र देने वाले रामनाथ गोयनका की एक प्रमाणिक जीवनी लिखना चाहते थे और एक किताब आजादी के बाद की राजनीति पर लिखना चाहते थे और यह सब दो साल में यानी 75 का आंकड़ा पार करने के पहले कर लेना चाहते थे। मगर काल ने मौका ही नहीं दिया।
प्रभाष जोशी को याद करना असल में उन कामनाओं को पूरा करना होगा जिनमें से एक भी खुद उनके लिए नहीं थी। वे एक मुक्त और ताकतवर समाज चाहते थे। ऐसा समाज बने और वही प्रभाष जी को याद करे, इससे बड़ी श्रध्दांजलि दूसरी नहीं हो सकती। मगर दिक्कत यह है कि आज अखबार चलाने के साथ शराब की फैक्ट्रियां और दूसरे कारोबार करने वाले लोगों की जो जमात है और इसमें से कई अखबार को सिर्फ अपने कारोबार का कवच बनाना चाहते हैं उनके लिए उनके पत्रकार उनके धंधे के चौकीदार के अलावा कुछ नहीं होते। प्रभाष जी की लड़ाई पत्रकार को चौकीदार बनाने के खिलाफ थी। जो यह लड़ाई जारी रखेगा वही प्रभाष जी की परंपरा का हिस्सेदार होने का हक पाएगा।
प्रभाष जी के जाने के यथार्थ का आभास सिर्फ पत्रकारिता जगत को नहीं बल्कि पूरे समाज को होने में वक्त लगेगा। अभी से बहुत सारे आंदोलनकर्मी, बहुत सारे जूझारू पत्रकार और बहुत से साहित्यकार कहने लग गए हैं कि प्रभाष जी के बिना सब कुछ अधूरा लग रहा है। प्रभाष जी को भी इस संसार में जो अधूरा लगता था उसे पूरा करने की कोशिश वे कर रहे हैं। पहले भी कह चुका हूं और फिर कह रहा हूं कि प्रभाष जी वैरागी नहीं थे मगर उनकी सांसारिकता और उनके संघर्ष हमारे संसार को बेहतर और रहने लायक बनाने वाले थे। प्रभाष जी के आत्मा को भगवान कभी शांति नहीं दे। उनकी आत्मा हमारी नायक बनी रहे। आंखे बंद कर के सुनिए यह आत्मा पुकार रही है- आओ और संघर्ष के सहयात्री बनो। कोई है?
Mohlla se sabhar
प्रभाष जोशी चले गए। उनकी अस्थियां भी उस नर्मदा में विसर्जित हो गई जिस वे हमेशा मां कहते थे और अक्सर नर्मदा को याद कर के इतने भावुक हो जाते थे कि गला भर आता था। इन दिनों हमारे प्रभाष जी को ले कर संवेदनाओं के लेख, संस्मरण और शोक सभाओं का दौर चल रहा है। वे लोग जो कुछ दिन पहले तक इंटरनेट पर प्रभाष जी को इस युग का सबसे पतित, मनुवादी और ब्राह्मणवादी पत्रकार करार दे रहे थे, उनकी बोलती बंद है। उनमें से कई तो उनके निधन पर घड़ियाली आंसू भी बहाते दिखे।
लेकिन अब वक्त प्रभाष जी को याद करने से ज्यादा उनके सरोकारो को याद करने का है। तिहत्तर साल की उम्र में भी जिन सरोकारो को ले कर प्रभाष जी देश के हर कोने तक हर किस्म के वाहन से और होटलों से ले कर लोगों के घरों में ठहर कर पत्रकारिता के कायाकल्प और उसमें आ गए दोषों से कलंक मुक्ति की अलख जगा रहे थे, उनके इसी सरोकार को जारी रखना और आगे बढ़ाना शायद प्रभाष जी को सबसे बड़ी श्रध्दांजलि होगी। पता नहीं आज जो लोग आंसू बहा रहे हैं वे इस सरोकार को सहेजने में कितनी रुचि दिखाएंगे। सरोकार रोटी और शराब के पैसा नहीं देता। उसके लिए तो प्रभाष जी जैसा कलेजा चाहिए और एक सक्रिय और तेजस्वी वैराग्य चाहिए।
प्रभाष जी पत्रकारिता के नाम पर हो रही धंधेबाजी के खिलाफ जूझ रहे थे। वे समाज की हर बुराई और हर अन्याय के खिलाफ लड़ रहे थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ भी वे खड़े थे और बंगाल के नंदीग्राम के ग्रामीणों के साथ भी शामिल थे। हमारे मित्र और विश्वविख्यात कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा बता रहे थे कि चंडीगढ़ में एक्सप्रेस के संपादक रहने के दौरान उन्होंने एक सवाल किया था कि जिस देश में 70 प्रतिशत लोग खेती पर आधारित हो वहां गंभीर कृषि पत्रकारिता क्यों नहीं हो सकती? देवेंद्र शर्मा कृषि वैज्ञानिक बनने के रास्ते पर थे मगर कृषि पत्रकार बन गए और इन दिनों उन्हीं से पता लगा कि विदेशी बीजों और मल्टीनेशनल खेती के अलावा किसानों पर कर्जे के खिलाफ भी प्रभाष जी की जंग जारी थी।
प्रभाष जी के बेटे संदीप ने उनके अंतिम क्षणों का वर्णन किया है। सचिन के आउट होते ही वे टीवी वाले कमरे से उठ कर चले गए थे और संदीप जो खुद भी रणजी और कांउटी तक खेल चुके थे, ने पिता को फोन किया तो आखिरी सवाल था कि क्या स्कोर हुआ है? इसके बाद फोन मां ने लिया और कहा कि बेटा जल्दी आओ, पिता जी बेहोश हो गए। सो प्रभाष जी के अंतिम शब्द थे- ‘क्या स्कोर हुआ है’।
क्रिकेट की भाषा में ही कहे तो प्रभाष जी ने अपने आपको हिट विकेट कर दिया। उम्र हो चली थी। पच्चीस साल से शुगर के मरीज थे। एक बाई पास सर्जरी हो चुकी थी। पेस मेकर लगा हुआ था। फिर भी अगर किसी से मिलना है तो मिलना है। तीन मंजिल चढ़ के चले जाएंगे। प्रभाष जी जैसा न कोई हुआ है, न कोई होगा क्योंकि जैसा कि पहले और हमेशा कहा कि प्रभाष जोशी बनने के लिए कलेजा चाहिए। जिस समय प्रभाष जी का जनसत्ता अपने चरम पर था और विज्ञापन देने वालों की और पैसा दे कर खबर छपवानों वालों की लाइन लगी होती थी, प्रभाष जी ने जनसत्ता को घाटे में चलने दिया लेकिन वे सौदे नहीं किए जिनके खिलाफ वे आखिर तक लड़ रहे थे। इंडियन एक्सप्रेस के एक्सप्रेस टॉवर्स की किराएदार न्यू बैंक ऑफ इंडिया के घपलों को बैंक के निपट जाने तक उजागर करने का पूरा मौका दिया और इसके बावजूद दिया कि उनके खास मित्र और बड़े वकील लक्ष्मी मल्ल सिंघवी रामनाथ गोयनका तक पहुंच गए थे। इसके अलावा अखबार को साल में करोड़ों का विज्ञापन देने वाले मारुति उद्योग समूह के मुखिया के खिलाफ अभियान चलाया, विज्ञापन बंद हो गए मगर उन्हें परवाह नहीं थी।
बाजार के कुछ नियम होते हैं मगर पत्रकारिता की एक पूरी आचार संहिता होती है। प्रभाष जी ने इस आचार संहिता को वास्तविकता बनाने के लिए कई मोर्चे खोल रखे थे। इतना ही नहीं एक मोर्चा हिंद स्वराज का भी था। प्रभाष जी भारत की पत्रकारिता को आजादी का मंत्र देने वाले रामनाथ गोयनका की एक प्रमाणिक जीवनी लिखना चाहते थे और एक किताब आजादी के बाद की राजनीति पर लिखना चाहते थे और यह सब दो साल में यानी 75 का आंकड़ा पार करने के पहले कर लेना चाहते थे। मगर काल ने मौका ही नहीं दिया।
प्रभाष जोशी को याद करना असल में उन कामनाओं को पूरा करना होगा जिनमें से एक भी खुद उनके लिए नहीं थी। वे एक मुक्त और ताकतवर समाज चाहते थे। ऐसा समाज बने और वही प्रभाष जी को याद करे, इससे बड़ी श्रध्दांजलि दूसरी नहीं हो सकती। मगर दिक्कत यह है कि आज अखबार चलाने के साथ शराब की फैक्ट्रियां और दूसरे कारोबार करने वाले लोगों की जो जमात है और इसमें से कई अखबार को सिर्फ अपने कारोबार का कवच बनाना चाहते हैं उनके लिए उनके पत्रकार उनके धंधे के चौकीदार के अलावा कुछ नहीं होते। प्रभाष जी की लड़ाई पत्रकार को चौकीदार बनाने के खिलाफ थी। जो यह लड़ाई जारी रखेगा वही प्रभाष जी की परंपरा का हिस्सेदार होने का हक पाएगा।
प्रभाष जी के जाने के यथार्थ का आभास सिर्फ पत्रकारिता जगत को नहीं बल्कि पूरे समाज को होने में वक्त लगेगा। अभी से बहुत सारे आंदोलनकर्मी, बहुत सारे जूझारू पत्रकार और बहुत से साहित्यकार कहने लग गए हैं कि प्रभाष जी के बिना सब कुछ अधूरा लग रहा है। प्रभाष जी को भी इस संसार में जो अधूरा लगता था उसे पूरा करने की कोशिश वे कर रहे हैं। पहले भी कह चुका हूं और फिर कह रहा हूं कि प्रभाष जी वैरागी नहीं थे मगर उनकी सांसारिकता और उनके संघर्ष हमारे संसार को बेहतर और रहने लायक बनाने वाले थे। प्रभाष जी के आत्मा को भगवान कभी शांति नहीं दे। उनकी आत्मा हमारी नायक बनी रहे। आंखे बंद कर के सुनिए यह आत्मा पुकार रही है- आओ और संघर्ष के सहयात्री बनो। कोई है?
Mohlla se sabhar
7 नव॰ 2009
'सर कटाने की नौबत आई तो कटने वाला पहला सर प्रभाष जोशी का होगा'
-प्रभाष जोशी को एक आंदोलन की श्रद्धांजलि
अनुराग शुक्ला
ऑफिस से निकल चुका था लेकिन सिटी एडिशन से सुशील का फोन आया कि प्रभाष जी नहीं रहे. यकीन नहीं हुआ, टीवी चैनलों को उलटना पुलटना शुरू किया. लेकिन कहीं कोई सूचना नहीं थी. दिल्ली के दो चार साçथयों को फोन लगाया. तब तक एनडीटीवी पर स्लग लैश हुआ कि प्रभाष जी नहीं रहे.
टीवी पर लिख के आ रहा था "जाने माने पत्रकार प्रभाष जोशी का निधन" . उन शब्दों को पढ़ने समझने के बजाय प्रभाष जी की वह मूर्ति याद आ गई जब वह इलाहाबाद यूनिवçर्सटी के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के छात्रों के शिक्षा के व्यापारीकरण के खिलाफ आंदोलन में शामिल होने आए थे. बिल्कुल ठीक और तेवर के साथ. प्रभाष जी विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ जमकर बोले. सार्वजनिक मंच से बताया कि यूनिवçर्सटी में डिगि्रयां बेचने वालों ने उनको आंदोलन में न आने देने के लिए कितने कागद कारे किए. ये भी बताया कि कैसे उनके करीबियों से कहलवाया गए कि शिक्षा के निजीकरण विरोध आंदोलन में वो न आए. लेकिन प्रभाष जी आए और निजीकरण के दलालों की पोल भी खोली. सुनील उमराव और शहनवाज ने आंदोलन का पक्ष रखा तो प्रभाष जी भावुक हो गए और कहा कि मैं तो बुजुर्ग आदमी हूं, छात्रों की इस लड़ाई में अगर सर कटाने की नौबत आई तो कटने वाला पहला सर प्रभाष जोषी का होगा.
प्रभाष जी के इन शब्दों ने वहां मौजूद छात्रों की लड़ाई को एक नया जोश नया जज्बा दिया था. व्यवस्था के एक प्रति मूधüन्य पत्रकार के गुस्से ने हम सबको एक नई ताकत दी थी. गेस्ट हाउस में प्रभाष जी से मिलने वालों की भीड थी. उसमें सत्ताकामी भी थे और सत्ता के प्रतिगामी भी. लेकिन प्रभाष जी अडिग थे. उन्होंने आंदोलन के समथन में बार-बार आने का वादा किया था.
प्रभाष जी ने कहा था कि अगर इस लड़ाई में सर कटाने की नौबत आई तो कटने वाला पहला सर प्रभाष जोषी का होगा. लेकिन हम से किसी को ये न मालूम था कि फिर से लौट कर आने का वादा करने वाले प्रभाष जी यूं चले जाएंगे. अभी तो उन्हें कितने कागद कारे करने थे. एमएनसी के दलालों के खिलाफ कितनी लड़ाई लड़नी थी. अभी कुछ दिनों पहले एक साथी से फोन पर बातचीत में उन्होंने हरियाण और महाराष्ट्र के चुनाव में अखबारों के खबरों के धंधे का खुलासा करने का वादा किया था. आज सुबह शहनवाज भाई का फोन आया बता रहे थे कि प्रभाष जी से बात करने की सोच रहा था कि एक पत्रकार महोदय शिक्षा के निजीकरण के आंदोलन को बदनाम करने की साजिश कर रहे हैं. लेकिन बात अधूरी रह गई. पत्रकारिता धर्म पर खरी बात करने वाला चुपचाप चला गया. अब कौन मीडिया के विज्ञापन के धंधे को उजागर करेगा. अब शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ तमाम दबावों को दरकिनार कर छात्रों का साथ देने कौन इलाहाबाद आएगा?
प्रभाष जी को हमारे और हमारे जैसे तमाम आंदोलनों की श्रद्धांजलि.
अनुराग शुक्ला
ऑफिस से निकल चुका था लेकिन सिटी एडिशन से सुशील का फोन आया कि प्रभाष जी नहीं रहे. यकीन नहीं हुआ, टीवी चैनलों को उलटना पुलटना शुरू किया. लेकिन कहीं कोई सूचना नहीं थी. दिल्ली के दो चार साçथयों को फोन लगाया. तब तक एनडीटीवी पर स्लग लैश हुआ कि प्रभाष जी नहीं रहे.
टीवी पर लिख के आ रहा था "जाने माने पत्रकार प्रभाष जोशी का निधन" . उन शब्दों को पढ़ने समझने के बजाय प्रभाष जी की वह मूर्ति याद आ गई जब वह इलाहाबाद यूनिवçर्सटी के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के छात्रों के शिक्षा के व्यापारीकरण के खिलाफ आंदोलन में शामिल होने आए थे. बिल्कुल ठीक और तेवर के साथ. प्रभाष जी विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ जमकर बोले. सार्वजनिक मंच से बताया कि यूनिवçर्सटी में डिगि्रयां बेचने वालों ने उनको आंदोलन में न आने देने के लिए कितने कागद कारे किए. ये भी बताया कि कैसे उनके करीबियों से कहलवाया गए कि शिक्षा के निजीकरण विरोध आंदोलन में वो न आए. लेकिन प्रभाष जी आए और निजीकरण के दलालों की पोल भी खोली. सुनील उमराव और शहनवाज ने आंदोलन का पक्ष रखा तो प्रभाष जी भावुक हो गए और कहा कि मैं तो बुजुर्ग आदमी हूं, छात्रों की इस लड़ाई में अगर सर कटाने की नौबत आई तो कटने वाला पहला सर प्रभाष जोषी का होगा.
प्रभाष जी के इन शब्दों ने वहां मौजूद छात्रों की लड़ाई को एक नया जोश नया जज्बा दिया था. व्यवस्था के एक प्रति मूधüन्य पत्रकार के गुस्से ने हम सबको एक नई ताकत दी थी. गेस्ट हाउस में प्रभाष जी से मिलने वालों की भीड थी. उसमें सत्ताकामी भी थे और सत्ता के प्रतिगामी भी. लेकिन प्रभाष जी अडिग थे. उन्होंने आंदोलन के समथन में बार-बार आने का वादा किया था.
प्रभाष जी ने कहा था कि अगर इस लड़ाई में सर कटाने की नौबत आई तो कटने वाला पहला सर प्रभाष जोषी का होगा. लेकिन हम से किसी को ये न मालूम था कि फिर से लौट कर आने का वादा करने वाले प्रभाष जी यूं चले जाएंगे. अभी तो उन्हें कितने कागद कारे करने थे. एमएनसी के दलालों के खिलाफ कितनी लड़ाई लड़नी थी. अभी कुछ दिनों पहले एक साथी से फोन पर बातचीत में उन्होंने हरियाण और महाराष्ट्र के चुनाव में अखबारों के खबरों के धंधे का खुलासा करने का वादा किया था. आज सुबह शहनवाज भाई का फोन आया बता रहे थे कि प्रभाष जी से बात करने की सोच रहा था कि एक पत्रकार महोदय शिक्षा के निजीकरण के आंदोलन को बदनाम करने की साजिश कर रहे हैं. लेकिन बात अधूरी रह गई. पत्रकारिता धर्म पर खरी बात करने वाला चुपचाप चला गया. अब कौन मीडिया के विज्ञापन के धंधे को उजागर करेगा. अब शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ तमाम दबावों को दरकिनार कर छात्रों का साथ देने कौन इलाहाबाद आएगा?
प्रभाष जी को हमारे और हमारे जैसे तमाम आंदोलनों की श्रद्धांजलि.
6 नव॰ 2009
पत्रकारिता जगत के पुरोधा प्रभाष जोशी के निधन पर श्रद्धांजलि
प्रभाष जोशी आम आदमी के लिए लड़ने वाले योद्धा थे: जियाउल हक
इलाहाबाद, 6 नवम्बर 2009! पत्रकारिता ज़गत के सशक्त हस्ताक्षर एवं जनसत्ता के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी नहीं रहे। देश के अंदर पत्रकारिता को जनसरोकारों से जोड़ने में उन्होंने प्रभावकारी भूमिका निभाई थी। वे आजीवन पत्रकारिता को आम जनजीवन की आवाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध रहे। मीडिया जगत में सत्ता प्रतिष्ठानो और बाजार के दखल के खिलाफ लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए वे अंतिम समय तक बेचैन रहे। आज वह हमारे बीच मौजूद नहीं हैं। देश के सामाजिक और लोकतांत्रिक आंदोलनों को उनकी कमी लम्बे समय तक खलेगी। उनके निधन पर पत्रकारिता विभाग की तरफ से आज एक शोक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें बतौर मुख्य अतिथि जाने-माने समाजसेवी और प्रभाष जोशी के पुराने साथी वरिष्ठ काॅमरेड जियाउल हक ने विभाग के सामने बने खबर चैरा प्रांगण में उनकी तस्वीर पर माल्यार्पण कर श्रद्धासुमन अर्पित किये। इसी क्रम में विभाग के समस्त छात्र छात्राओं द्वारा भी उनकी तस्वीर पर पुष्पार्पण किया गया।
प्रभाष जी को श्रद्धांजलि देते हुए काॅमरेड जियाउल हक ने कहा कि जोशी जी का जाना पूरे हिन्दुस्तान के जनवादी प्रगतिशील सोच रखने वाले लोगों के लिए एक अपूरणीय क्षति है। उन्होंने कहा कि प्रभाष जी की अचानक हुई मृत्यु से उन्हे इतना सदमा पहुंचा है जिसे वे शब्दों में बयां नहीं कर सकते। उनका कहना था कि प्रभाष जी सिर्फ एक पत्रकार ही नहीं थे बल्कि आम जनता से जुड़े मुद्दों पर अपनी मुखर आवाज और धारदार कलम के बूते संघर्ष करने वाले एक योद्धा थे। वे आम आदमी के मुद्दों पर उनकी आवाज बनकर जनप्रतिनिधियोें और संसद तक को कटघरे में खड़ा करने वाले एक सशक्त आधार स्तम्भ थे। इस स्तम्भ का न रहना आमजन के लिए एक ऐसी क्षति है जिसकी भरपाई होना आने वाले समय में मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
इस दौरान छात्रों का कहना था कि पिछले 30 सितम्बर को विभाग द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन के समर्थन में आये प्रभाष जोशी ने छात्रों से ये वादा लिया था कि वे किसी भी कीमत पर अपने कदम पीछे नहीं हटायेंगे। छात्रों ने अपने आन्दोलन के 65वें दिन आज एक बार फिर उनकी उस बात को याद करते हुए संकल्प लिया कि वे अपने आंदोलन को जारी रखेंगे। छात्रों ने कहा कि प्रभाष जी, पत्रकारिता के जिस जनपक्षधर स्वरुप और लोकतंात्रिक मूल्यों को बचाने लिए आजीवन संघर्षरत रहे, हम पत्रकारिता के छात्र उनके इन आदर्शों को आत्मसात करते हुए पत्रकारिता के इन सरोकारों को बचाने के लिए दृढ़संकल्पित हैं।
इस क्रम में प्रभाष जोशी द्वारा आंदोलन के समर्थन में विभाग में दिये गये भाषण की डाक्यूमेंट्रªªी फिल्म भी दिखाई गयी। इस दौरान पूर्व आइएएस श्री राम वर्मा, वरिष्ठ गांधीवादी श्री बल्लभ, पुनीत मालवीय,जनसत्ता के पत्रकार राघवेंद्र, आदि लोग उपस्थित रहे।
समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
9721446201,9793867715,9307761822
प्रभाष जोशी जी ने दी पत्रकारिता छात्र आन्दोलन को नई धार
हिन्दी पत्रकारिता के पितामह और पत्रकारिता के पेशेगत आदर्शाें को एक नई ऊंचाई देने वाले प्रभाष जोशी अब हमारे बीच नहीं रहे। एक बारगी सुनकर यकीन नहीं हुआ कि जन अधिकारों और प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करने वाला पुरोधा अचानक हमे छोड़ गया। पिछले 30 सितम्बर को ही वो हमारे बीच हमारे विभाग में थे- हमारे आंदोलन के हमराह के रुप में। विश्वविद्यालय के कोने में उपेक्षित पड़े हमारे छोटे से विभाग द्वारा विश्वविद्यालय प्रशासन की गलत नीतियों और शिक्षा के निजीकरण के विरोध में जब अपने आंदोलन की शुरुआत की गयी तो हमारे इस संघर्ष में सबसे पहले आने वालों में एक नाम प्रभाष जोशी का भी था। हम लोगों में कोई भी ऐसा नहीं था, जिसे वे पहले से जानते रहे हों, लेकिन जब हमने उन्हें अपने आंदोलन के बारे बताया और उनसे साथ आने का आग्रह किया तो उन्होंने अपनी सेहत और स्वास्थ्य की बिल्कुल परवाह न करते हुए हमारे समर्थन में इलाहाबाद आना सहर्ष स्वीकार कर लिया और इसके बाद विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा उन्हें आने से रोकने की सारी कोशिशों के बावजूद वे यहां आये। हमारे मंच से बोलते हुए वे कई बार भावुक हुए और कई बार अपनी मृत्यु को भी याद किया। यहां तक कि हमारे विभाग के आंदोलन के लिए उन्होंने अपना सर तक कटाने की बात कही।
प्रभाष जी का पूरा जीवन हमारे जैसी युवा पीढ़ी के लिए आदर्श और प्रेरणा स्रोत रहेगा, विशेष कर हमारे विभाग के लिए क्योंकि हमारे विभाग में आकर उन्होंने हमारे संघर्ष को एक नई धार दी। प्रभाष जोशी का जाना हिन्दी पत्रकारिता के एक ऐसे मूर्धन्य सितारे का जाना है, जिसकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ने वाली। उनके जाने से पत्रकारिता जगत में जो शून्य पैदा हुआ है उसकी पूर्ति आने वाले लम्बे समय तक सम्भव नहीं दिखती। इस दुख की घड़ी मे हम उनके परिवार के प्रति अपनी पूरी संवेदना और सहानुभूति व्यक्त करते हैं और ईश्वर से कामना करते हैं कि उनके परिवार को इस दुख को सहने की शक्ति प्रदान करे। जाते समय विभाग के छात्रों से भावुक होकर उन्होंने कहा था कि तुम लोगों ने जो लड़ाई शुरु की है, इससे कभी पीछे मत हटना और इस आंदोलन में हर कदम पर मैं तुम्हारे साथ हूं। उन्होंने यहां तक कहा कि इस संघर्ष में अगर कभी सर कटाने की भी नौबत आयी तो उसमें पहला सर प्रभाष जोशी का होगा। इसके बाद हम सभी ने उन्हें विश्वास दिलाया कि हम किसी भी हालत में अपने कदम पीछे नहीं लेंगे। आज हमारे आंदोलन का 65वां दिन है और हमारा विरोध लगातार जारी है। पत्रकारिता के सरोकारों को जिन्दा रखने के लिए हम आज भी सड़को पर हैं और इस बात के लिए दृढ़ संकल्पित भी, कि हम आजीवन पत्रकारिता के आदर्शाें को बचाने के लिए लड़ेंगे और अगर जरुरत पड़ी तो मरेंगे भी। शायद यही हमारी तरफ से पत्रकारिता जगत के इस भीष्मपितामह को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
नाम आँखों के साथ
समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
प्रभाष जी का पूरा जीवन हमारे जैसी युवा पीढ़ी के लिए आदर्श और प्रेरणा स्रोत रहेगा, विशेष कर हमारे विभाग के लिए क्योंकि हमारे विभाग में आकर उन्होंने हमारे संघर्ष को एक नई धार दी। प्रभाष जोशी का जाना हिन्दी पत्रकारिता के एक ऐसे मूर्धन्य सितारे का जाना है, जिसकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ने वाली। उनके जाने से पत्रकारिता जगत में जो शून्य पैदा हुआ है उसकी पूर्ति आने वाले लम्बे समय तक सम्भव नहीं दिखती। इस दुख की घड़ी मे हम उनके परिवार के प्रति अपनी पूरी संवेदना और सहानुभूति व्यक्त करते हैं और ईश्वर से कामना करते हैं कि उनके परिवार को इस दुख को सहने की शक्ति प्रदान करे। जाते समय विभाग के छात्रों से भावुक होकर उन्होंने कहा था कि तुम लोगों ने जो लड़ाई शुरु की है, इससे कभी पीछे मत हटना और इस आंदोलन में हर कदम पर मैं तुम्हारे साथ हूं। उन्होंने यहां तक कहा कि इस संघर्ष में अगर कभी सर कटाने की भी नौबत आयी तो उसमें पहला सर प्रभाष जोशी का होगा। इसके बाद हम सभी ने उन्हें विश्वास दिलाया कि हम किसी भी हालत में अपने कदम पीछे नहीं लेंगे। आज हमारे आंदोलन का 65वां दिन है और हमारा विरोध लगातार जारी है। पत्रकारिता के सरोकारों को जिन्दा रखने के लिए हम आज भी सड़को पर हैं और इस बात के लिए दृढ़ संकल्पित भी, कि हम आजीवन पत्रकारिता के आदर्शाें को बचाने के लिए लड़ेंगे और अगर जरुरत पड़ी तो मरेंगे भी। शायद यही हमारी तरफ से पत्रकारिता जगत के इस भीष्मपितामह को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
नाम आँखों के साथ
समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
29 अक्टू॰ 2009
कुलपति कार्यालय के सामने दिया धरना
- कार्यपरिषद सदस्यों को दिया प्रतिवेदन
विश्वविद्यालय कार्यकारिणी परिषद की आज हुई बैठक में पत्रकारिता विभाग की समस्या पूर्व घोषित एजेंडा में शामिल न होने के कारण विभाग के छात्रों ने कड़ा रूख अपनाते हुए कुलपति कार्यालय के सामने बैठकर धरना दिया। इस दौरान छात्रों ने कार्यपरिषद की बैठक में आने वाले सदस्यों को अपना पक्ष रखते हुए प्रतिवेदन सौंपा और उन सभी से बैठक में विभाग के मुद्दे को उठाने का आग्रह किया। गौरतलब है कि 3 सितम्बर से ही पत्रकारिता विभाग के छात्रों द्वारा अपने विभाग के समानान्तर खोले गये सेल्फ फाइनेंस कोर्स और विश्वविद्यालय में हो रहे शिक्षा के निजीकरण के विरोध में सत्याग्रह चला रहे हैं जिसका आज 57वां दिन था।
हाथो में ‘‘हमारी बाते भी सुनों, हमारे मुद्दे पर भी गौर करो’’ "पत्रकारिता है जनसरोकार, बंद करो इसका व्यापार’’ ‘‘विश्वविद्यालय में शिक्षा का निजीकरण बंद करों’’ ‘‘पत्रकारिेता विभाग के समानान्तर खोले गये सेल्फ फाइनेंस कोर्स बन्द करो’’ ‘पढ़ाई के नाम पर धनउगाही करना बंद करो’’ जैसे नारे लिखी तख्तियां लिये और काले झण्डे-बैनर के साथ सैकड़ों की संख्या में छात्रों ने पूरे विश्वविद्यालय परिसर में घूमकर शांति मार्च किया जो कुलपति कार्यालय के सामने एक धरने में तब्दील हो गया। छात्र कार्यकारिणी परिषद की बैठक समाप्त होने तक धरने पर बैठे रहे।
इस दौरान छात्रों का कहना था कि करीब दो महीने से चल रहे उनके आंदोलन के प्रति विश्वविद्यालय प्रशासन का रवैया अब तक पूरी तरह नकारात्मक ही रहा है लेकिन वे अब भी हताश और निराश नहीं हुए हैं। उनका कहना था कि सच के लिए लड़ना संबिधान और ़ पत्रकारिता का वास्तविक धर्म है, जो हम कर रहे हैं और इसके लिये हमें अगर अपना ये सत्याग्रह दो महीनें ही नही दो साल तक भी चलाना पड़े तो हम पीछे नहीं हटेंगे। इस दौरान आल इंडिया डीएसओ और आइसा के लोग भी उनके शांति मार्च और धरने में हर कदम पर साथ रहे।
समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
विश्वविद्यालय कार्यकारिणी परिषद की आज हुई बैठक में पत्रकारिता विभाग की समस्या पूर्व घोषित एजेंडा में शामिल न होने के कारण विभाग के छात्रों ने कड़ा रूख अपनाते हुए कुलपति कार्यालय के सामने बैठकर धरना दिया। इस दौरान छात्रों ने कार्यपरिषद की बैठक में आने वाले सदस्यों को अपना पक्ष रखते हुए प्रतिवेदन सौंपा और उन सभी से बैठक में विभाग के मुद्दे को उठाने का आग्रह किया। गौरतलब है कि 3 सितम्बर से ही पत्रकारिता विभाग के छात्रों द्वारा अपने विभाग के समानान्तर खोले गये सेल्फ फाइनेंस कोर्स और विश्वविद्यालय में हो रहे शिक्षा के निजीकरण के विरोध में सत्याग्रह चला रहे हैं जिसका आज 57वां दिन था।
हाथो में ‘‘हमारी बाते भी सुनों, हमारे मुद्दे पर भी गौर करो’’ "पत्रकारिता है जनसरोकार, बंद करो इसका व्यापार’’ ‘‘विश्वविद्यालय में शिक्षा का निजीकरण बंद करों’’ ‘‘पत्रकारिेता विभाग के समानान्तर खोले गये सेल्फ फाइनेंस कोर्स बन्द करो’’ ‘पढ़ाई के नाम पर धनउगाही करना बंद करो’’ जैसे नारे लिखी तख्तियां लिये और काले झण्डे-बैनर के साथ सैकड़ों की संख्या में छात्रों ने पूरे विश्वविद्यालय परिसर में घूमकर शांति मार्च किया जो कुलपति कार्यालय के सामने एक धरने में तब्दील हो गया। छात्र कार्यकारिणी परिषद की बैठक समाप्त होने तक धरने पर बैठे रहे।
इस दौरान छात्रों का कहना था कि करीब दो महीने से चल रहे उनके आंदोलन के प्रति विश्वविद्यालय प्रशासन का रवैया अब तक पूरी तरह नकारात्मक ही रहा है लेकिन वे अब भी हताश और निराश नहीं हुए हैं। उनका कहना था कि सच के लिए लड़ना संबिधान और ़ पत्रकारिता का वास्तविक धर्म है, जो हम कर रहे हैं और इसके लिये हमें अगर अपना ये सत्याग्रह दो महीनें ही नही दो साल तक भी चलाना पड़े तो हम पीछे नहीं हटेंगे। इस दौरान आल इंडिया डीएसओ और आइसा के लोग भी उनके शांति मार्च और धरने में हर कदम पर साथ रहे।
समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
कार्यकारिणी परिषद के सदस्यों से मिलेंगें पत्रकारिता के छात्र
इलाहाबाद 28 अक्तूबर. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवम जनसंचार विभाग की तरफ से शिक्षा के निजीकरण और अपने विभाग के समानान्तर खोले गये स्ववित्तपोषित पाठ्यक्रम के विरोध में चलाया जा रहा आन्दोलन आज 56वें दिन भी जारी रहा। इस क्रम में आज पत्रकारिता विभाग के छात्रांे का एक समूह उपश्रमायुक्त कार्यालय पर विभिन्न श्रमिक महासंघों द्वारा किये जा रहे धरनें में सम्मिलित हुआ और अपना पक्ष रखा। इस दौरान श्रमिक संघ के नेताओं ने छात्रों के इस आन्दोलन को पूरी तरह जायज बताते हुए कहा कि विश्वविद्यालय में स्ववित्तपोषित कोर्सो के नाम पर शिक्षा की दुकानदारी करना पूरी तरह आम आदमी को शिक्षा से दूर करने की साजिश है। जब कानूनन यूजीसी विश्वविद्यालयों को 100 प्रतिशत पोषित करती है और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों का इतिहास है कि वो अपने अनुदान का 60से70 प्रतिशत हिस्सा ही खर्च कर पाते है तब इन सेल्फ फाईनेन्स कोर्साें को शुरू करने का क्या मतलब।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कल होने वाली कार्यकारिणी परिषद को देखते हुए छात्रों ने आज कार्यकारिणी परिषद के सदस्यों को अपना प्रतिवेदन भी सौंपा जिससे कि वे कल होने वाली इस बैठक में ये तय कर सकें कि बी,ए, इन मीडिया स्टडीज के कोर्स को पुर्नविचार के लिए ऐकेडमिक काउन्सिल में भेजा जाय। करीब दो महीने से चल रहे पत्रकारिता विभाग के आन्दोलन की यह प्रमुख मांग रही है कि बीए मीडिया स्टडीज कोर्स को, जो ऐकेडमिक काउन्सिल में बिना किसी व्यापक परिचर्चा के पारित कर दिया गया था, और जो अपने दूरगामी प्रभावों के तहत विश्वविद्यालय की शिक्षा की गुणवत्ता तथा विभागोे के कार्यक्षेत्र को भी प्रभावित करता है, को तत्काल बंद किया जाय।
अपने करीब 60 दिन से चलाये जा रहे आन्दोलन केे दौरान दिये गये प्रतिवेदनों और उठाये गये सवालों पर विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा कोई लिखित जवाब नहीं दिया गया है और क्योंकि ऐकडमिक काउन्सिल में कोई भी वरिष्ठ मीडिया शिक्षाविद मौजूद नहीं है जो कि इस मामले को समझता और समस्याओं का निराकरण करता, इसलिए लगातार विभाग द्वारा ये मांग की जाती रही कि केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के वरिष्ठ मीडिया शिक्षाविदों की एक कमेटी बनायी जाय जो इस बात का निर्धारण करे कि क्या मीडिया स्टडीज और मास कम्युनिकेशन अलग अलग है या एक? इस दौरान छात्रों का कहना था कि विश्वविद्यालय की गौरवशाली परम्परा और स्वर्णिम अतीत पर कोई धब्बा न लगने देने की जिम्मेदारी अब पूरी तरह कार्यकारिणी परिषद के ऊपर ही है। छात्रों ने उम्मीद जताई कि कार्यकारिणी परिषद अपने इस दायित्व को निभा सकेगी।
समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कल होने वाली कार्यकारिणी परिषद को देखते हुए छात्रों ने आज कार्यकारिणी परिषद के सदस्यों को अपना प्रतिवेदन भी सौंपा जिससे कि वे कल होने वाली इस बैठक में ये तय कर सकें कि बी,ए, इन मीडिया स्टडीज के कोर्स को पुर्नविचार के लिए ऐकेडमिक काउन्सिल में भेजा जाय। करीब दो महीने से चल रहे पत्रकारिता विभाग के आन्दोलन की यह प्रमुख मांग रही है कि बीए मीडिया स्टडीज कोर्स को, जो ऐकेडमिक काउन्सिल में बिना किसी व्यापक परिचर्चा के पारित कर दिया गया था, और जो अपने दूरगामी प्रभावों के तहत विश्वविद्यालय की शिक्षा की गुणवत्ता तथा विभागोे के कार्यक्षेत्र को भी प्रभावित करता है, को तत्काल बंद किया जाय।
अपने करीब 60 दिन से चलाये जा रहे आन्दोलन केे दौरान दिये गये प्रतिवेदनों और उठाये गये सवालों पर विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा कोई लिखित जवाब नहीं दिया गया है और क्योंकि ऐकडमिक काउन्सिल में कोई भी वरिष्ठ मीडिया शिक्षाविद मौजूद नहीं है जो कि इस मामले को समझता और समस्याओं का निराकरण करता, इसलिए लगातार विभाग द्वारा ये मांग की जाती रही कि केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के वरिष्ठ मीडिया शिक्षाविदों की एक कमेटी बनायी जाय जो इस बात का निर्धारण करे कि क्या मीडिया स्टडीज और मास कम्युनिकेशन अलग अलग है या एक? इस दौरान छात्रों का कहना था कि विश्वविद्यालय की गौरवशाली परम्परा और स्वर्णिम अतीत पर कोई धब्बा न लगने देने की जिम्मेदारी अब पूरी तरह कार्यकारिणी परिषद के ऊपर ही है। छात्रों ने उम्मीद जताई कि कार्यकारिणी परिषद अपने इस दायित्व को निभा सकेगी।
समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
27 अक्टू॰ 2009
आंदोलन का पचपनवां दिन, श्रमिक संघों ने दिया समर्थन
पत्रकारिता विभाग के छात्रों की तरफ से चलाया जा रहा सत्याग्रह आज पचपनवें दिन भी जारी रहा। छात्रों ने अपनी कक्षाएं करने करने के बाद विश्वविद्यालय के कला संकाय में मौन जुलूस निकाल कर अपना क्रमिक विरोध जारी रखा। गौरतलब है कि पत्रकारिता विभाग के समस्त छात्र विभाग के समानान्तर सेल्फ फाइनेंस पाठ्यक्रम शुरू किये जाने के विरोध में पिछले दो महीने से अपना सत्याग्रह चला रहे हैं। कल विभिन्न श्रमिक महासंघों द्वारा मजदूरों के हितों की रक्षा हेतु उपश्रमायुक्त कार्यालय पर होने वाले धरने में भी विभाग के छात्र जायेंगे और अपनी बात रखेगें। इन श्रमिक महासंघों द्वारा पत्रकारिता विभाग के इस आन्दोंलन को अपना पूरा समर्थन दिया गया है।
समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
24 अक्टू॰ 2009
ठगी है धंधा इनका
हाल ही में ‘‘इन्स्टीट्यूट आॅफ प्रोफेशनल स्टडीज’’ के अंतर्गत शुरू किए गए स्ववित्तपोषित बीए इन मीडिया स्टडीज कोर्स का जब हम लोगों ने सैद्धान्तिक विरोध किया तो हमारे विरोध का विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा यह कहकर दुष्प्रचार किया गया कि हम ‘गुणवत्ता वाली पढ़ाई’ का विरोध कर रहे हैं, जबकि पिछले पांच सालों से वहां पर चल रहे फोटो जर्नलिज्म एण्ड विजुअल कम्यूनिकेशन के डिप्लोमा कोर्स की पढ़ाई के नाम पर जो कुछ हो रहा है, वह न तो यूजीसी के मानकों के तहत है और न ही उसका पत्रकारिता के वास्तविक स्वरूप से कोई लेना देना है। वहां चल रहे इस कोर्स का एक बड़ा उद्देश्य उसे चलाने वालों के निजी हितों को साधना और उसके माध्यम से मीडिया में अपने कुछ ऐसे हित साधकों को तैयार करना है जो उनके तमाम काले कारनामों को छुपाने के लिए मीडिया को अपने हिसाब से व्यवस्थित कर सके। यह कुछ वैसा ही है जैसे कोई जमाखोर अपने गोरखधंधों को छुपाने और पुलिस-प्रशासन को साधने के लिए अखबार निकालता है। आईपीएस का यह केन्द्र भी अपनी स्थापना के साथ ही कुछ ऐसे ही लोगों का मुखपत्र बना हुआ है।
हमारे विभाग द्वारा कुलपति को पत्र लिखकर जब डिप्लोमा कोर्स संचालित करने वाले इस केन्द्र को और व्यापक बनाने की प्रक्रिया के तहत शुरू किये जा रहे बीए इन मीडिया स्टडीज के डिग्री कोर्स का विरोध किया गया, तो इसे चलाने वालों ने हमारे विरोध को दबाने में साम, दाम, दण्ड, भेद के तहत अपनी पूरी ताकत झोंक दी। आईपीएस द्वारा संचालित इस कोर्स के फार्म बिकवाने के लिए माननीय कुलपति महोदय् न केवल खुद वहां पहुंचे बल्कि पुलिस से लदे दो वज्र वाहन भी अपने साथ लेते गये। इससे पहले कुलपति ने ही बिना कार्यकारिणी परिषद से पास हुए इस कोर्स को अपनी विशेष अनुमति देकर शुरु करवाया था। शायद यह विश्वविद्यालय के इतिहास का पहला मौका था, जब कुलपति खुद किसी कोर्स का फार्म बिकवाने पहुंचे थे। कुलपति कहते हैं कि वह "न्यायप्रिय और सहृृदय" हैं लेकिन जो कुलपति अपने चार साल के कार्यकाल में 25 सालों से चल रहे पत्रकारिता विभाग में एक बार भी पैर नहीं रखता है, जो विभाग में संसाधनों और पद सृजन की मांग पर केवल आश्वासन ही देता रहा है, इससे उनकी न्यायप्रियता और सहृदयता साफ पता चलती है। पत्रकारिता विभाग को अपनी हर जरुरत की मांग पर सिर्फ आश्वासन ही मिला क्योंकि यहां के लोग कुलपति की आव भगत नहीं करते।
बीए इन मीडिया स्टडीज का बड़े-बड़े अखबारों में विज्ञापन देकर, ब्राशर में पत्रकार राहुल देव, सिक्ता देव, शीतल राजपूत आदि की फोटो लगाकर भी, 30 सीटों के लिए वे महज 60 फार्म ही बेच पाये। इनमें से कितने इज्जत बचाने के लिए बैठाये गये प्रायोजित अभ्यर्थी थे, यह एक अलग जांच का विषय है। अखबारों में एससी, एसटी, ओबीसी आरक्षण पर हमारे द्वारा उठाये गये सवालों के बाद सीटों को आरक्षित करने और फीस को कम करने के लिए उन्हें मजबूर होना पड़ा लेकिन इसके बाद भी उनकी गुणवत्ता युक्त और प्रोफेशनल तैयार करने का दावा करने वाली पढ़ाई मात्र 60 छात्रों को ही अपनी ओर खींच पायी, जबकि वहीं दो साल पहले पत्रकारिता विभाग के पहले सत्र में एमए मास कम्युनिकेशन की 30 सीटों के लिए 1,000 से भी अधिक छात्र बैठे थे, जो कि किसी अन्य विभाग के सापेक्ष औसतन प्रति सीट सबसे ज्यादा थे। लेकिन फिर भी बीए इन मीडिया स्टडीज की प्रवेश परीक्षा में शामिल हुए उन 60 परीक्षार्थियों के महत्व को दिखाने के लिए, मुश्किल से मिले उन चंद अभिजात्य कुलदीपकों, जो डेढ लाख की फर्जी डिग्री खरीदने को तैयार थे, की सुरक्षा को खतरा बताते हुए कुलपति ने न केवल परीक्षा कंेद्र को संगीनों के साये में कैद कर दिया बल्कि इस बहाने 60 पुलिस वालों की भी सुबह सें शाम तक लम्बी परेड और भारी उठापटक कराई।
केन्द्रीय बनने के बाद से विश्वविद्यालय द्वारा बनाई गयी नीतियों से ये साफ जाहिर होता है कि वे नीतियां विश्वविद्यालय प्रशासन के कुछ विशेष कृपापात्र लोगों के निजी हितों की ही पूर्ति करती हैं। 2005 में विश्वविद्यालय के केन्द्रीय होने के बाद से अगर विश्वविद्यालय की वार्षिक रिपोर्ट देखें तो उसमे हर जगह रजिस्ट्रार एवं कुलपति की फोटो के बाद सिर्फ आईपीएस के केंद्रो की ही फोटो मिलेगी। बाकी सारे विभाग नदारद हैं। विश्वविद्यालय प्रशासन पूरी तरह उनकी पकड़ में है और यहां वही हो रहा है जो वे चाहते हैं। तमाम विरोधों के बावजूद बीए मीडिया स्टडीज को शुरु करने की जिद इस बात की पुष्टि करता है।
आईपीएस की पत्रकारिता की दुकान पूरी तरह झूठे आश्वासनों और मायावी तिलिस्म पर टिकी है। 60 बच्चों को प्लेसमेंट का झूठा आश्वासन देकर प्रवेश कराया जाता है। दुकान को चमकाने के लिए कभी-कभार टेलीविजन के चमकीलें चेहरों को बुलाकर, अखबारों में छपकर अगले साल के लिए छात्रों को फांसने की तैयारी भी चलती रहती है। यूजीसी मानकों से कोसों दूर अपने मन के मास्टरों से पढ़़़वाया जाता है और यहां तक कि डिग्रियां भी यूजीसी मानकों से अलग दी जाती हैं। बीए इन मीडिया स्टडीज यूजीसी की मानक डिग्री नहीं है। सामान्य बीए कहीं भी सिर्फ एक विषय से नहीं होता। फिर बीए इन मीडिया स्टडीज कैसे शुरु कर दिया गया ? मीडिया स्टडीज मीडिया का आलोचनात्मक और बहुआयामी अध्ययन होता है न कि पेशेवर तैयार करने का कोई कोर्स, लेकिन अपनी दुकान चलाने और चमकाने की हवस में इन्होंने यह भी नहीं देखा कि वो क्या पढ़ा रहे हैं और उसका नाम क्या रख रहे हैं। मास कम्यूनिकेशन और मीडिया स्टडीज को अलग-अलग बताने वाले कुलपति महोदय आखिर इस बात पर क्यों तैयार नहीं होते कि देश के मीडिया विशेषज्ञों और मीडिया से सम्बंधित वरिष्ठ शिक्षाविदों की एक कमेटी बनाई जाय जो इस बात का निर्धारण करे कि क्या मीडिया स्टडीज और मास कम्युनिकेशन दो अलग-अलग विषय हैं ?
मीडिया स्टडीज और मास कम्युनिकेशन का सेलेबस पूरी तरह समान है। ऐकेडमिक कांउसिल से पास होने की दुहाई देने वाले प्रशासन को एक बार उस काउंसिल के सभी सदस्यों से पूछ तो लेना चाहिये कि क्या उन्होंने आईपीएस के एजेण्डे को पढ़ा था और क्या वह यह जानते थे कि विश्वविद्यालय में एक पत्रकारिता विभाग पहले से है। पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष को छोड़कर, जो संयोग से कला संकाय के डीन भी हैं, क्योंकि उन्होंने तो कभी विभाग की विजिट ही नहीं की। फिर ऐकेडमिक काउंसिल में बीए मीडिया स्टडीज पर कितने मिनट चर्चा हुई और किसने क्या बात कही यह भी तो सब को बताया जाना चाहिये।
आठ साल पहले विश्वविद्यालय में संसाधन जुटाने के नाम पर शुरु किया गया ‘इंस्टीट्यूट आॅफ प्रोफेशनल स्टडीज’ आज विश्वविद्यालय से ही संसाधनों के नाम पर अनुदान का खाद-पानी लेकर उसके ही समानान्तर एक निजी विश्वविद्यालय जैसा बन गया है। जिसके निदेशक का पद एक महानुभाव द्वारा जीवनपर्यंत के लिए आरक्षित करा लिया गया है। झूठे आश्वासन देकर पैसा ऐंठना, अखबार में अच्छा-अच्छा छपना और शिक्षा के नाम पर ठगी और व्यापार करना इस आईपीएस सेंटर और विशेष कर इसके संेटर आॅफ मीडिया स्टडीज का मुख्य उद्देश्य है, लेकिन सवाल उठता है कि क्या पत्रकारिता की पूरी पढ़ाई अखबार में छपने तक ही सीमित है ? पत्रकारिता के आदर्शों को जीना और उन्हें पढ़ाई मे डालकर संस्कारों में तब्दील करना क्या पत्रकारिता की शिक्षा का उद्देश्य नहीं है ? लेकिन पत्रकारिता के नाम पर अपनी दुकान चलाने वाले भला इसे कैसे समझेंगे ?
37 दिनों तक चले छात्रों के जुझारू आंदोलन के बाद कुलपति महोदय जब पत्रकारिता विभाग आये तो छात्रों को विभाग के विकास का लाॅलीपाॅप देकर मुख्य मुद्दे से भटकाने की कोशिश करते हुए लगातार यह कहते रहे कि दोनों विभाग अलग-अलग हैं और आप के कोर्स का उनके कोर्स से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन माननीय कुलपति ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया कि बिना कार्यकारणी परिषद से पास हुए इस नये कोर्स को शुरू करने के लिए उन्हें अपनी विशेष अनुमति देने की इतनी भी क्या जल्दी पड़ी थी ? बात-बात में छात्रों के हितों कि दुहाई देते न थकने वाले कुलपति को छात्रों की इस बात का भी जवाब देना चाहिये कि उनकी समस्यायों को जानने-समझने के लिए विभाग आने में उन्हंे आखिर 37 दिन क्यों लग गये, जबकि शहर में होने वाली विभिन्न गतिविधियों में वो आये दिन शुमार होते रहते हैं ?
विडम्बना ये है कि जिस शिक्षा के सर्वसुलभ होने का सपना गांधी ने देखा था, खुद को गांधीवादी कहने वाले कुलपति को वो याद ही नहीं। वे तो शायद गांधी की उस बात को भी भूल गये कि लाइन में लगे अंतिम आदमी तक पहुंचे बिना सच्चे अर्थों में आगे नहीं बढ़ा जा सकता। तभी तो उन्होंने बीए इन मीडिया स्टडीज के रुप में एक ऐसे सेल्फ फाइनेंस कोर्स को शुरु करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया, जहां पढ़ने का सपना कम से कम गांधी का, लाइन में लगा वो अंतिम आदमी तो नहीं ही देख सकता। ये अलग बात है कि आज देश की 84 करोड़ जनता की हालत लाइन में लगे उस आखिरी आदमी जैसी ही है, जो रोजाना 20 रू से भी कम पर गुजर-बसर करती है।
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डेलीगेसियों और छात्रावासों में जाकर मांगेगें समर्थन
24 अक्टूबर, 09 पत्रकारिता विभाग के छात्रों द्वारा अपने विभाग के समानान्तर आरम्भ किए गये स्ववित्तपोषित पाठ्यक्रम के विरोध में चलाया जा रहा आन्दोलन आज भी जारी रहा। आज सत्याग्रह का 52वां दिन था। अपनी कक्षाओं से छूटने के बाद लगभग साढे तीन बजे छात्रों ने रोज की तरह पूरे विश्वविद्यालय परिसर मंें घूम कर मौन जुलूस निकाला। निकाला।इस दौरान छात्रों का कहना था कि अपने आन्दोलन में और तेजी लाने के लिए वे सारे छात्रावासों और डेलीगेसियों में जाकर सभाएं करेगें और आम छात्रों को अपने सत्याग्रह के बारे में बताते हुए उनसे समर्थन में अपने साथ आने की अपील करेगें।
समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
हमारे विभाग द्वारा कुलपति को पत्र लिखकर जब डिप्लोमा कोर्स संचालित करने वाले इस केन्द्र को और व्यापक बनाने की प्रक्रिया के तहत शुरू किये जा रहे बीए इन मीडिया स्टडीज के डिग्री कोर्स का विरोध किया गया, तो इसे चलाने वालों ने हमारे विरोध को दबाने में साम, दाम, दण्ड, भेद के तहत अपनी पूरी ताकत झोंक दी। आईपीएस द्वारा संचालित इस कोर्स के फार्म बिकवाने के लिए माननीय कुलपति महोदय् न केवल खुद वहां पहुंचे बल्कि पुलिस से लदे दो वज्र वाहन भी अपने साथ लेते गये। इससे पहले कुलपति ने ही बिना कार्यकारिणी परिषद से पास हुए इस कोर्स को अपनी विशेष अनुमति देकर शुरु करवाया था। शायद यह विश्वविद्यालय के इतिहास का पहला मौका था, जब कुलपति खुद किसी कोर्स का फार्म बिकवाने पहुंचे थे। कुलपति कहते हैं कि वह "न्यायप्रिय और सहृृदय" हैं लेकिन जो कुलपति अपने चार साल के कार्यकाल में 25 सालों से चल रहे पत्रकारिता विभाग में एक बार भी पैर नहीं रखता है, जो विभाग में संसाधनों और पद सृजन की मांग पर केवल आश्वासन ही देता रहा है, इससे उनकी न्यायप्रियता और सहृदयता साफ पता चलती है। पत्रकारिता विभाग को अपनी हर जरुरत की मांग पर सिर्फ आश्वासन ही मिला क्योंकि यहां के लोग कुलपति की आव भगत नहीं करते।
बीए इन मीडिया स्टडीज का बड़े-बड़े अखबारों में विज्ञापन देकर, ब्राशर में पत्रकार राहुल देव, सिक्ता देव, शीतल राजपूत आदि की फोटो लगाकर भी, 30 सीटों के लिए वे महज 60 फार्म ही बेच पाये। इनमें से कितने इज्जत बचाने के लिए बैठाये गये प्रायोजित अभ्यर्थी थे, यह एक अलग जांच का विषय है। अखबारों में एससी, एसटी, ओबीसी आरक्षण पर हमारे द्वारा उठाये गये सवालों के बाद सीटों को आरक्षित करने और फीस को कम करने के लिए उन्हें मजबूर होना पड़ा लेकिन इसके बाद भी उनकी गुणवत्ता युक्त और प्रोफेशनल तैयार करने का दावा करने वाली पढ़ाई मात्र 60 छात्रों को ही अपनी ओर खींच पायी, जबकि वहीं दो साल पहले पत्रकारिता विभाग के पहले सत्र में एमए मास कम्युनिकेशन की 30 सीटों के लिए 1,000 से भी अधिक छात्र बैठे थे, जो कि किसी अन्य विभाग के सापेक्ष औसतन प्रति सीट सबसे ज्यादा थे। लेकिन फिर भी बीए इन मीडिया स्टडीज की प्रवेश परीक्षा में शामिल हुए उन 60 परीक्षार्थियों के महत्व को दिखाने के लिए, मुश्किल से मिले उन चंद अभिजात्य कुलदीपकों, जो डेढ लाख की फर्जी डिग्री खरीदने को तैयार थे, की सुरक्षा को खतरा बताते हुए कुलपति ने न केवल परीक्षा कंेद्र को संगीनों के साये में कैद कर दिया बल्कि इस बहाने 60 पुलिस वालों की भी सुबह सें शाम तक लम्बी परेड और भारी उठापटक कराई।
केन्द्रीय बनने के बाद से विश्वविद्यालय द्वारा बनाई गयी नीतियों से ये साफ जाहिर होता है कि वे नीतियां विश्वविद्यालय प्रशासन के कुछ विशेष कृपापात्र लोगों के निजी हितों की ही पूर्ति करती हैं। 2005 में विश्वविद्यालय के केन्द्रीय होने के बाद से अगर विश्वविद्यालय की वार्षिक रिपोर्ट देखें तो उसमे हर जगह रजिस्ट्रार एवं कुलपति की फोटो के बाद सिर्फ आईपीएस के केंद्रो की ही फोटो मिलेगी। बाकी सारे विभाग नदारद हैं। विश्वविद्यालय प्रशासन पूरी तरह उनकी पकड़ में है और यहां वही हो रहा है जो वे चाहते हैं। तमाम विरोधों के बावजूद बीए मीडिया स्टडीज को शुरु करने की जिद इस बात की पुष्टि करता है।
आईपीएस की पत्रकारिता की दुकान पूरी तरह झूठे आश्वासनों और मायावी तिलिस्म पर टिकी है। 60 बच्चों को प्लेसमेंट का झूठा आश्वासन देकर प्रवेश कराया जाता है। दुकान को चमकाने के लिए कभी-कभार टेलीविजन के चमकीलें चेहरों को बुलाकर, अखबारों में छपकर अगले साल के लिए छात्रों को फांसने की तैयारी भी चलती रहती है। यूजीसी मानकों से कोसों दूर अपने मन के मास्टरों से पढ़़़वाया जाता है और यहां तक कि डिग्रियां भी यूजीसी मानकों से अलग दी जाती हैं। बीए इन मीडिया स्टडीज यूजीसी की मानक डिग्री नहीं है। सामान्य बीए कहीं भी सिर्फ एक विषय से नहीं होता। फिर बीए इन मीडिया स्टडीज कैसे शुरु कर दिया गया ? मीडिया स्टडीज मीडिया का आलोचनात्मक और बहुआयामी अध्ययन होता है न कि पेशेवर तैयार करने का कोई कोर्स, लेकिन अपनी दुकान चलाने और चमकाने की हवस में इन्होंने यह भी नहीं देखा कि वो क्या पढ़ा रहे हैं और उसका नाम क्या रख रहे हैं। मास कम्यूनिकेशन और मीडिया स्टडीज को अलग-अलग बताने वाले कुलपति महोदय आखिर इस बात पर क्यों तैयार नहीं होते कि देश के मीडिया विशेषज्ञों और मीडिया से सम्बंधित वरिष्ठ शिक्षाविदों की एक कमेटी बनाई जाय जो इस बात का निर्धारण करे कि क्या मीडिया स्टडीज और मास कम्युनिकेशन दो अलग-अलग विषय हैं ?
मीडिया स्टडीज और मास कम्युनिकेशन का सेलेबस पूरी तरह समान है। ऐकेडमिक कांउसिल से पास होने की दुहाई देने वाले प्रशासन को एक बार उस काउंसिल के सभी सदस्यों से पूछ तो लेना चाहिये कि क्या उन्होंने आईपीएस के एजेण्डे को पढ़ा था और क्या वह यह जानते थे कि विश्वविद्यालय में एक पत्रकारिता विभाग पहले से है। पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष को छोड़कर, जो संयोग से कला संकाय के डीन भी हैं, क्योंकि उन्होंने तो कभी विभाग की विजिट ही नहीं की। फिर ऐकेडमिक काउंसिल में बीए मीडिया स्टडीज पर कितने मिनट चर्चा हुई और किसने क्या बात कही यह भी तो सब को बताया जाना चाहिये।
आठ साल पहले विश्वविद्यालय में संसाधन जुटाने के नाम पर शुरु किया गया ‘इंस्टीट्यूट आॅफ प्रोफेशनल स्टडीज’ आज विश्वविद्यालय से ही संसाधनों के नाम पर अनुदान का खाद-पानी लेकर उसके ही समानान्तर एक निजी विश्वविद्यालय जैसा बन गया है। जिसके निदेशक का पद एक महानुभाव द्वारा जीवनपर्यंत के लिए आरक्षित करा लिया गया है। झूठे आश्वासन देकर पैसा ऐंठना, अखबार में अच्छा-अच्छा छपना और शिक्षा के नाम पर ठगी और व्यापार करना इस आईपीएस सेंटर और विशेष कर इसके संेटर आॅफ मीडिया स्टडीज का मुख्य उद्देश्य है, लेकिन सवाल उठता है कि क्या पत्रकारिता की पूरी पढ़ाई अखबार में छपने तक ही सीमित है ? पत्रकारिता के आदर्शों को जीना और उन्हें पढ़ाई मे डालकर संस्कारों में तब्दील करना क्या पत्रकारिता की शिक्षा का उद्देश्य नहीं है ? लेकिन पत्रकारिता के नाम पर अपनी दुकान चलाने वाले भला इसे कैसे समझेंगे ?
37 दिनों तक चले छात्रों के जुझारू आंदोलन के बाद कुलपति महोदय जब पत्रकारिता विभाग आये तो छात्रों को विभाग के विकास का लाॅलीपाॅप देकर मुख्य मुद्दे से भटकाने की कोशिश करते हुए लगातार यह कहते रहे कि दोनों विभाग अलग-अलग हैं और आप के कोर्स का उनके कोर्स से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन माननीय कुलपति ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया कि बिना कार्यकारणी परिषद से पास हुए इस नये कोर्स को शुरू करने के लिए उन्हें अपनी विशेष अनुमति देने की इतनी भी क्या जल्दी पड़ी थी ? बात-बात में छात्रों के हितों कि दुहाई देते न थकने वाले कुलपति को छात्रों की इस बात का भी जवाब देना चाहिये कि उनकी समस्यायों को जानने-समझने के लिए विभाग आने में उन्हंे आखिर 37 दिन क्यों लग गये, जबकि शहर में होने वाली विभिन्न गतिविधियों में वो आये दिन शुमार होते रहते हैं ?
विडम्बना ये है कि जिस शिक्षा के सर्वसुलभ होने का सपना गांधी ने देखा था, खुद को गांधीवादी कहने वाले कुलपति को वो याद ही नहीं। वे तो शायद गांधी की उस बात को भी भूल गये कि लाइन में लगे अंतिम आदमी तक पहुंचे बिना सच्चे अर्थों में आगे नहीं बढ़ा जा सकता। तभी तो उन्होंने बीए इन मीडिया स्टडीज के रुप में एक ऐसे सेल्फ फाइनेंस कोर्स को शुरु करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया, जहां पढ़ने का सपना कम से कम गांधी का, लाइन में लगा वो अंतिम आदमी तो नहीं ही देख सकता। ये अलग बात है कि आज देश की 84 करोड़ जनता की हालत लाइन में लगे उस आखिरी आदमी जैसी ही है, जो रोजाना 20 रू से भी कम पर गुजर-बसर करती है।
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डेलीगेसियों और छात्रावासों में जाकर मांगेगें समर्थन
24 अक्टूबर, 09 पत्रकारिता विभाग के छात्रों द्वारा अपने विभाग के समानान्तर आरम्भ किए गये स्ववित्तपोषित पाठ्यक्रम के विरोध में चलाया जा रहा आन्दोलन आज भी जारी रहा। आज सत्याग्रह का 52वां दिन था। अपनी कक्षाओं से छूटने के बाद लगभग साढे तीन बजे छात्रों ने रोज की तरह पूरे विश्वविद्यालय परिसर मंें घूम कर मौन जुलूस निकाला। निकाला।इस दौरान छात्रों का कहना था कि अपने आन्दोलन में और तेजी लाने के लिए वे सारे छात्रावासों और डेलीगेसियों में जाकर सभाएं करेगें और आम छात्रों को अपने सत्याग्रह के बारे में बताते हुए उनसे समर्थन में अपने साथ आने की अपील करेगें।
समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
19 अक्टू॰ 2009
उच्च शिक्षा का पुनर्गठन
लक्ष्मण प्रसाद
दखल के नए अंक में इलाहबाद विश्वविद्यालय में शिक्षा के निजीकरण पर मा.हा.अं.हि.वि.वि में मिडिया के शोधछात्र लक्ष्मण प्रसाद की रिपोर्ट पढ़े.
दखल के नए अंक में इलाहबाद विश्वविद्यालय में शिक्षा के निजीकरण पर मा.हा.अं.हि.वि.वि में मिडिया के शोधछात्र लक्ष्मण प्रसाद की रिपोर्ट पढ़े.
13 अक्टू॰ 2009
नौकरी का लालीपाप देकर, कर रहे धनउगाही
- आईपीएस में हो रहे गोरखधंधे का सच आया सामने
राकेश कुमार
इंस्टीट्यूट आॅफ प्रोफेशनल स्टडीज सेंटर (आईपीएस इविवि) में हो रहे गोरखधन्धे का सच आखिरकार सामने आ ही गया। दरअसल इसका खुलासा तो एक न एक दिन होना ही था। कैम्पस सेलेक्शन कराने का लालीपॅाप दिखाकर धनउगाही का यह नायाब तरीका अधिक दिनों तक तो नही चल सकता था। ज्ञातब्य है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सेल्फ फाइनेंस कोर्साें की शतरंजी बिसात को नियंत्रित करने वाले प्रो0 जीके राय ऐसे धनपिपासु सज्जन हैं, जो अपनी जेब भरने के लिए पिछले कुछ सालों में विश्वविद्यालय के कई विभागों को गर्त में धकेल उसके समानान्तर सेल्फ फाइनेंस कोर्स चला रहे हैं। उनका यह सिलसिला अभी भी जारी है, जिसका नया शिकार 25 वर्षाें से चल रहा पत्रकारिता विभाग होने जा रहा था। फिलहाल उनके नापाक मंसूबों के विरोध में ज्वाला उठ खड़ी हुई है। विरोध कि जो ज्वाला पत्रकारिता विभाग से उठी थी, उसकी चिंगारी अब आईपीएस संेटर में भी पहुंच गयी है।
आईपीएस सेंटर में वर्षों से धधक रहे ज्वालामुखी का उद्गार तो होना ही था। छात्रों ने निदेशक के खिलाफ मोर्चा तब खोला जब वे अपने को वहां ठगा महसूस करने लगे। ई- लर्निंग प्रोग्राम के तहत शुरु किए गये सर्टीफिकेट कोर्स में प्रवेश के दौरान ही छात्रों को प्लेसमेंट दिलाने का लालीपाॅप भी गिट देने का वादा संस्थान ने किया था। उसी लालीपाॅप के झांसे में आकर छात्रों ने प्रवेश भी ले लिया। छात्रों का कहना है कि प्रवेश के पहले उनसे कहा गया था कि कोर्स पूरा होने तक आईसीआईसीआई में सभी को नौकरी दिला दी जायेगी लेकिन संस्थान की तरफ से अभी तक ऐसी कोई पहल नहीं की गयी। छात्रों का यह भी आरोप है कि आईसीआईसीआई से आज तक एक भी अधिकारी सेंटर में नहीं आया। कोर्स समाप्त होने पर छात्रों को नौकरी का लालीपाॅप दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आया। इन सभी बातों को लेकर छात्र नाराज तो थे ही। इसी बीच छात्रों का फाइनल रिजल्ट भी आ गया जिसमें दर्जनों छात्र फेल कर दिये गये, जिसके पीछे तर्क यह दिया गया है कि वे छात्र क्लास ऐक्टीविटी में शामिल नहीं थे। छात्र उक्त समस्याओ को लेकर निदेशक से बात करना चाहते थे लेकिन निदेशक उनके बीच बात करने के लिए नही आये। इससे आक्रोशित छात्रों ने प्राचीन इतिहास विभाग पहुंच कर निदेशक प्रो जीके राय को घंटों घेरे रखा। इसके बाद निदेशक महोदय छात्रों की उक्त समस्या पर बातचीत करने के लिए तैयार हुए। निदेशक का घेराव करने आये छात्रों ने बताया कि जो कोर्स 6 महीने में पूरा होना था वह 9 महीने तक चला। जिसमें केवल तीन महीने तक ही क्लासें चली हैं। जिसका खामियाजा दर्जन भर छात्रों को फेल होकर भुगतना पड़ा। आईपीएस संेटर के ई- लर्निंग प्रोग्राम के तहत सेंटर में पिछले साल काफी मशक्कत के बाद आईसीआईसीआई के साथ मिलकर छः महीने का एक सर्टीफिकेट कोर्स शुरू किया गया था। जिसकी फीस प्रति छात्र लगभग 12 हजार रुपये है।
सेंटर में उठी विरोध की यह ज्वाला रूकने का नाम नहीं ले रही है। पहले तो ई- लर्निंग के छात्रों ने इसका विरोध किया और उसके बाद दूसरे दिन बीसीए के छात्रों ने भी सेंटर में प्रोफेशनल कोर्स के नाम पर हो रहे गोरखधन्धे का चिठ्ठा खोल दिया। यह चिठ्ठा तब खुला जब वहां पढ़ने वाले छात्रों को अपना भविष्य अंधकार की तरफ उन्मुख होता दिखा। बीसीए प्रथम वर्ष सत्र 2007-08 में कुल 55 छात्रों ने प्रवेश लिया था जिसमें 16 छात्र पहले ही वर्ष फेल कर दिये गये। बचे 39 छात्रों में से दूसरे वर्ष में 15 और को फेल कर दिया गया। ताज्जुब की बात तो यह है कि छात्रों का रिजल्ट घोषित किये बिना ही अगले वर्ष की फीस जमा करा ली जाती है। इस वर्ष भी यही किया गया। इसके बाद जब फेल हुए छात्रों को इस सत्र की दोनों सेमेस्टर की परीक्षाएं फिर से देने को कहा गया तो छात्र सकते में आ गये। अपने कैरियर को संकट में देख कर छात्र सड़क पर उतर आये और विश्वविद्यालय में घूम-घूम कर सेंटर में हो रहे गोरखधंधे का प्रचार करने लगे और इसी कड़ी में छात्रों ने इस मामले को लेकर डीएसडब्ल्यू प्रो आरके सिंह और कुलानुशासक प्रो जटा शंकर को ज्ञापन भी दिया। छात्रों ने मांग की कि उनके हित में कोई सकारात्मक कदम उठाया जाय नहीं तो उनकी फीस वापस करायी जाय। इस त्रिवर्षीय बीसीए पाठ्यक्रम के लिए प्रतिवर्ष 30 हजार रूपये फीस भी ली जाती है।
दरअसल ये छात्र पढ़ने में इतने कमजोर भी नहीं हैं कि पास नहीं हो सकते। असल बात तो यह कि सेंटर में तीन बैच के छात्रों के लिए बैठने की जगह और प्रैक्टिकल लाइब्रेरी की उपयुक्त व्यवस्था ही नहीं है। निदेशक का कहना है कि प्रोफेशनल कोर्सों में गुणवत्ता के साथ समझौता नहीं किया जायगा। यहां पर सवाल यह उठता है कि उनके द्वारा बनाये गये थर्मामीटर से गुणवत्ता को कैसे मापा जाय। यहां पर यह बताना जरुरी है कि इन छात्रों को एक्सटरनल पेपरों में अच्छे अंक मिले हैं जबकि वहीं इन्टरनल पेपर में फेल कर दिया गया है। निदेशक से यह भी पूछा जाना चाहिये कि आखिर यदि कोर्स के पाठ्यक्रम को पूरी तरह से न पढ़ाया जाय और छात्र फेल हो जाये, तो इसके लिए कौन अधिक जिम्मेवार है। ऐसे में वे छात्रों से किस प्रोफेशनल कोर्स की गुणवत्ता के साथ समझौता न करने की बात करते हैं। किसी कोर्स को पूरी तरह बिना पढ़ाए छात्रों की गुणवत्ता पर सवाल उठाना खुद की बौद्धिकता पर भी सवाल खड़ा कर देता है। यह सवाल उनकी बौद्धिकता पर तब और बड़ा सवाल बन जाता है, जब छात्र एक्सटरनल पेपर में अच्छे अंकों से पास हों और इन्टरनल पेपर में फेल। श्रीमान निदेशक महोदय इतने अधिक महान हैं कि न केवल आईपीएस सेंटर को अपनी खुद की जागीर समझते हैं बल्कि आजीवन उसका निदेशक बने रहने का कापीराइट भी करवा चुके हैं।
संेटर के लिए यह कोई नई बात नही है इससे पहले सेंटर में चलने वाले डिप्लोमा ‘इनफार्मेशन टेक्नोलाॅजी’ के छात्रों को भी इसका शिकार होना पड़ा था। इस एक वर्षीय डिप्लोमा कोर्स में सत्र 2008-09 के लिए कुल 34 छात्रों को प्रवेश दिया गया था। परीक्षा में केवल 3 छात्र पास हुए जबकि बाकी सभी को फेल कर दिया गया। उस दौरान जब उन छात्रों से मुलाकात हुई थी तो उन सबने बताया था कि यहां पर पर्याप्त मात्रा में योग्य टीचर नहीं हैं, पढ़ने के लिए लाइब्रेरी नहीं है और न ही उपयुक्त कम्प्यूटर लैब है। यहां तक कि पूरे कोर्स में सिर्फ आधी अधूरी कक्षाएं चली हैं। उन फेलियर छात्रों से भी दुबारा परीक्षा देने को कहा गया था। जिसके लिए वे तीन महीने तक भटकते रहे। दुबारा परीक्षा के लिए छात्रों को अतिरिक्त शुल्क् भी देना पड़ा। इस कोर्स के लिए भी कुल मिलाकर लगभग 14,000 हजार रूपये फीस ली जाती है। इन सभी बातों से साफ हो जाता कि आईपीएस को एक शिक्षण संस्थांन बताने की अपेछा इसे धनउगाही का अड्डा कहना ज्यादा उचित होगा। यहां पर छात्रों के सपनों को इस तरह तोड़ा जाता जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते।
गौरतलब है कि विश्वविद्यालय में ई- लर्निंग प्रोग्राम शुरु करने वाले कुलपति अपने आप को बड़ा गौरवान्वित महसूस करते थे। यहां तक कि वे सभा-सेमिनारों में भी इस बात का ढिढोंरा पीटन से नहीं थकते थे कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय ई- लर्निंग प्रोग्राम शुरु करने वाला भारत का पहला विश्वविद्यालय है। लेकिन अफसोस कि जिस ई- लर्निंग प्रोग्राम पर जनाब को इतना गुमान था, वह गुमान इस कदर औंधे मुंह धराशायी हुआ कि उसकी पहली ही सीढ़ी पर सवाल उठने लगे।
यहां यह भी बताना महत्वपूर्ण होगा कि इस तरह के तमाम प्रोफेशनल कोर्स जिस इंस्टीट्यूट आॅफ प्रोफेशनल स्टडीज (आईपीएस) के तहत संचालित किये जाते हैं, उसके निदेशक प्रो जी के राय ऐसे व्यक्ति हैं जिनकी धनउगाही नीतियों के चलते कई विभाग मिटने के कगार पर आ गये हैं और वे अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं। पिछले कुछ सालों में प्रो राय ने कई विभागों के समानान्तर सेल्फ फाइनेंस कोर्स शुरु किया है, जिसमे कुलपति प्रो आरजी हर्षे की भी एक अहम भूमिका रही है। गांधी के आदर्शों पर चलने की बात करने वाले कुलपति की इसके पीछे मनःइच्छा क्या है, यह भी चिंतन करनेे का विषय है। गांधीवाद और पूंजीवाद सिद्धांतो को साथ-साथ लेकर चलने वाले कुलपति स,े निवेदन ही सही, कहना चाहता हूं कि कम से कम गांधी के विचारों की कद्र नहीं कर सकते तो छोड़ दीजिए लेकिन ऐसा करके उनके विचारों को कलंकित न करें।
राकेश इलाहबाद विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के छात्र है.
राकेश कुमार
इंस्टीट्यूट आॅफ प्रोफेशनल स्टडीज सेंटर (आईपीएस इविवि) में हो रहे गोरखधन्धे का सच आखिरकार सामने आ ही गया। दरअसल इसका खुलासा तो एक न एक दिन होना ही था। कैम्पस सेलेक्शन कराने का लालीपॅाप दिखाकर धनउगाही का यह नायाब तरीका अधिक दिनों तक तो नही चल सकता था। ज्ञातब्य है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सेल्फ फाइनेंस कोर्साें की शतरंजी बिसात को नियंत्रित करने वाले प्रो0 जीके राय ऐसे धनपिपासु सज्जन हैं, जो अपनी जेब भरने के लिए पिछले कुछ सालों में विश्वविद्यालय के कई विभागों को गर्त में धकेल उसके समानान्तर सेल्फ फाइनेंस कोर्स चला रहे हैं। उनका यह सिलसिला अभी भी जारी है, जिसका नया शिकार 25 वर्षाें से चल रहा पत्रकारिता विभाग होने जा रहा था। फिलहाल उनके नापाक मंसूबों के विरोध में ज्वाला उठ खड़ी हुई है। विरोध कि जो ज्वाला पत्रकारिता विभाग से उठी थी, उसकी चिंगारी अब आईपीएस संेटर में भी पहुंच गयी है।
आईपीएस सेंटर में वर्षों से धधक रहे ज्वालामुखी का उद्गार तो होना ही था। छात्रों ने निदेशक के खिलाफ मोर्चा तब खोला जब वे अपने को वहां ठगा महसूस करने लगे। ई- लर्निंग प्रोग्राम के तहत शुरु किए गये सर्टीफिकेट कोर्स में प्रवेश के दौरान ही छात्रों को प्लेसमेंट दिलाने का लालीपाॅप भी गिट देने का वादा संस्थान ने किया था। उसी लालीपाॅप के झांसे में आकर छात्रों ने प्रवेश भी ले लिया। छात्रों का कहना है कि प्रवेश के पहले उनसे कहा गया था कि कोर्स पूरा होने तक आईसीआईसीआई में सभी को नौकरी दिला दी जायेगी लेकिन संस्थान की तरफ से अभी तक ऐसी कोई पहल नहीं की गयी। छात्रों का यह भी आरोप है कि आईसीआईसीआई से आज तक एक भी अधिकारी सेंटर में नहीं आया। कोर्स समाप्त होने पर छात्रों को नौकरी का लालीपाॅप दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आया। इन सभी बातों को लेकर छात्र नाराज तो थे ही। इसी बीच छात्रों का फाइनल रिजल्ट भी आ गया जिसमें दर्जनों छात्र फेल कर दिये गये, जिसके पीछे तर्क यह दिया गया है कि वे छात्र क्लास ऐक्टीविटी में शामिल नहीं थे। छात्र उक्त समस्याओ को लेकर निदेशक से बात करना चाहते थे लेकिन निदेशक उनके बीच बात करने के लिए नही आये। इससे आक्रोशित छात्रों ने प्राचीन इतिहास विभाग पहुंच कर निदेशक प्रो जीके राय को घंटों घेरे रखा। इसके बाद निदेशक महोदय छात्रों की उक्त समस्या पर बातचीत करने के लिए तैयार हुए। निदेशक का घेराव करने आये छात्रों ने बताया कि जो कोर्स 6 महीने में पूरा होना था वह 9 महीने तक चला। जिसमें केवल तीन महीने तक ही क्लासें चली हैं। जिसका खामियाजा दर्जन भर छात्रों को फेल होकर भुगतना पड़ा। आईपीएस संेटर के ई- लर्निंग प्रोग्राम के तहत सेंटर में पिछले साल काफी मशक्कत के बाद आईसीआईसीआई के साथ मिलकर छः महीने का एक सर्टीफिकेट कोर्स शुरू किया गया था। जिसकी फीस प्रति छात्र लगभग 12 हजार रुपये है।
सेंटर में उठी विरोध की यह ज्वाला रूकने का नाम नहीं ले रही है। पहले तो ई- लर्निंग के छात्रों ने इसका विरोध किया और उसके बाद दूसरे दिन बीसीए के छात्रों ने भी सेंटर में प्रोफेशनल कोर्स के नाम पर हो रहे गोरखधन्धे का चिठ्ठा खोल दिया। यह चिठ्ठा तब खुला जब वहां पढ़ने वाले छात्रों को अपना भविष्य अंधकार की तरफ उन्मुख होता दिखा। बीसीए प्रथम वर्ष सत्र 2007-08 में कुल 55 छात्रों ने प्रवेश लिया था जिसमें 16 छात्र पहले ही वर्ष फेल कर दिये गये। बचे 39 छात्रों में से दूसरे वर्ष में 15 और को फेल कर दिया गया। ताज्जुब की बात तो यह है कि छात्रों का रिजल्ट घोषित किये बिना ही अगले वर्ष की फीस जमा करा ली जाती है। इस वर्ष भी यही किया गया। इसके बाद जब फेल हुए छात्रों को इस सत्र की दोनों सेमेस्टर की परीक्षाएं फिर से देने को कहा गया तो छात्र सकते में आ गये। अपने कैरियर को संकट में देख कर छात्र सड़क पर उतर आये और विश्वविद्यालय में घूम-घूम कर सेंटर में हो रहे गोरखधंधे का प्रचार करने लगे और इसी कड़ी में छात्रों ने इस मामले को लेकर डीएसडब्ल्यू प्रो आरके सिंह और कुलानुशासक प्रो जटा शंकर को ज्ञापन भी दिया। छात्रों ने मांग की कि उनके हित में कोई सकारात्मक कदम उठाया जाय नहीं तो उनकी फीस वापस करायी जाय। इस त्रिवर्षीय बीसीए पाठ्यक्रम के लिए प्रतिवर्ष 30 हजार रूपये फीस भी ली जाती है।
दरअसल ये छात्र पढ़ने में इतने कमजोर भी नहीं हैं कि पास नहीं हो सकते। असल बात तो यह कि सेंटर में तीन बैच के छात्रों के लिए बैठने की जगह और प्रैक्टिकल लाइब्रेरी की उपयुक्त व्यवस्था ही नहीं है। निदेशक का कहना है कि प्रोफेशनल कोर्सों में गुणवत्ता के साथ समझौता नहीं किया जायगा। यहां पर सवाल यह उठता है कि उनके द्वारा बनाये गये थर्मामीटर से गुणवत्ता को कैसे मापा जाय। यहां पर यह बताना जरुरी है कि इन छात्रों को एक्सटरनल पेपरों में अच्छे अंक मिले हैं जबकि वहीं इन्टरनल पेपर में फेल कर दिया गया है। निदेशक से यह भी पूछा जाना चाहिये कि आखिर यदि कोर्स के पाठ्यक्रम को पूरी तरह से न पढ़ाया जाय और छात्र फेल हो जाये, तो इसके लिए कौन अधिक जिम्मेवार है। ऐसे में वे छात्रों से किस प्रोफेशनल कोर्स की गुणवत्ता के साथ समझौता न करने की बात करते हैं। किसी कोर्स को पूरी तरह बिना पढ़ाए छात्रों की गुणवत्ता पर सवाल उठाना खुद की बौद्धिकता पर भी सवाल खड़ा कर देता है। यह सवाल उनकी बौद्धिकता पर तब और बड़ा सवाल बन जाता है, जब छात्र एक्सटरनल पेपर में अच्छे अंकों से पास हों और इन्टरनल पेपर में फेल। श्रीमान निदेशक महोदय इतने अधिक महान हैं कि न केवल आईपीएस सेंटर को अपनी खुद की जागीर समझते हैं बल्कि आजीवन उसका निदेशक बने रहने का कापीराइट भी करवा चुके हैं।
संेटर के लिए यह कोई नई बात नही है इससे पहले सेंटर में चलने वाले डिप्लोमा ‘इनफार्मेशन टेक्नोलाॅजी’ के छात्रों को भी इसका शिकार होना पड़ा था। इस एक वर्षीय डिप्लोमा कोर्स में सत्र 2008-09 के लिए कुल 34 छात्रों को प्रवेश दिया गया था। परीक्षा में केवल 3 छात्र पास हुए जबकि बाकी सभी को फेल कर दिया गया। उस दौरान जब उन छात्रों से मुलाकात हुई थी तो उन सबने बताया था कि यहां पर पर्याप्त मात्रा में योग्य टीचर नहीं हैं, पढ़ने के लिए लाइब्रेरी नहीं है और न ही उपयुक्त कम्प्यूटर लैब है। यहां तक कि पूरे कोर्स में सिर्फ आधी अधूरी कक्षाएं चली हैं। उन फेलियर छात्रों से भी दुबारा परीक्षा देने को कहा गया था। जिसके लिए वे तीन महीने तक भटकते रहे। दुबारा परीक्षा के लिए छात्रों को अतिरिक्त शुल्क् भी देना पड़ा। इस कोर्स के लिए भी कुल मिलाकर लगभग 14,000 हजार रूपये फीस ली जाती है। इन सभी बातों से साफ हो जाता कि आईपीएस को एक शिक्षण संस्थांन बताने की अपेछा इसे धनउगाही का अड्डा कहना ज्यादा उचित होगा। यहां पर छात्रों के सपनों को इस तरह तोड़ा जाता जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते।
गौरतलब है कि विश्वविद्यालय में ई- लर्निंग प्रोग्राम शुरु करने वाले कुलपति अपने आप को बड़ा गौरवान्वित महसूस करते थे। यहां तक कि वे सभा-सेमिनारों में भी इस बात का ढिढोंरा पीटन से नहीं थकते थे कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय ई- लर्निंग प्रोग्राम शुरु करने वाला भारत का पहला विश्वविद्यालय है। लेकिन अफसोस कि जिस ई- लर्निंग प्रोग्राम पर जनाब को इतना गुमान था, वह गुमान इस कदर औंधे मुंह धराशायी हुआ कि उसकी पहली ही सीढ़ी पर सवाल उठने लगे।
यहां यह भी बताना महत्वपूर्ण होगा कि इस तरह के तमाम प्रोफेशनल कोर्स जिस इंस्टीट्यूट आॅफ प्रोफेशनल स्टडीज (आईपीएस) के तहत संचालित किये जाते हैं, उसके निदेशक प्रो जी के राय ऐसे व्यक्ति हैं जिनकी धनउगाही नीतियों के चलते कई विभाग मिटने के कगार पर आ गये हैं और वे अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं। पिछले कुछ सालों में प्रो राय ने कई विभागों के समानान्तर सेल्फ फाइनेंस कोर्स शुरु किया है, जिसमे कुलपति प्रो आरजी हर्षे की भी एक अहम भूमिका रही है। गांधी के आदर्शों पर चलने की बात करने वाले कुलपति की इसके पीछे मनःइच्छा क्या है, यह भी चिंतन करनेे का विषय है। गांधीवाद और पूंजीवाद सिद्धांतो को साथ-साथ लेकर चलने वाले कुलपति स,े निवेदन ही सही, कहना चाहता हूं कि कम से कम गांधी के विचारों की कद्र नहीं कर सकते तो छोड़ दीजिए लेकिन ऐसा करके उनके विचारों को कलंकित न करें।
राकेश इलाहबाद विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के छात्र है.
खाली कैंपस में भी किया शांतिमार्च
इलाहाबाद 13 अक्टूबर 09 पत्रकारिता विभाग के समकक्ष खुल रहे सेंटर व पाठ्यक्रम से असहमत होकर छात्रों ने अपने लोकतांत्रिक विरोध को 41वें दिन भी जारी रखा। चार बजे अपनी कक्षाएं करने के बाद छात्र-छात्राओं ने खाली पड़े परिसर में भी शांतिमार्च कर अपनी जायज मांगो के पक्ष में पहले जैसा उत्साह दिखाया। इस दौरान छात्रों का कहना था कि गलत नीतियों के विरोध में खड़े होना और संघर्ष करना ही असली पत्रकारिता है और हम वही कर रहे हैं। छात्र-छात्राओं ने अपनी मांगो के यथार्थ रूप से हासिल न होने तक अपने सत्याग्रह को जारी रखने का खबरचैरा पर खड़े होकर संकल्प लिया।
‘‘सवाल पूछते रहो’’ अभियान के तहत आज विभाग के छात्र अजितेश त्रिपाठी ने पिछले 20 सालों में शुरु किये गये उन कोर्साें का ब्योरा मांगा है जो बिना कार्यकारिणी परिषद से पास हुए, कुलपति के विशेषाधिकार के तहत प्रारम्भ किये गये हैं। छात्र ने यह भी जानना चाहा है कि यदि कार्यकारिणी परिषद बीए इन मीडिया स्टडीज कोर्स को पास नहीं करती है तो क्या यह कोर्स बंद कर दिया जायेगा।
समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
आश्वासनों पर अमल होने तक जारी रहेगा सत्याग्रह
इलाहाबाद 7 अक्टूबर 09 विश्वविद्यालय में कुछ विभागों के समानान्तर खोले जा रहे सेल्फ फाइनेंस कोर्सोें के विरोध में पत्रकारिता विभाग के छात्रों की तरफ से शुरु किया गया सत्याग्रह आज भी जारी रहा। आज 40वें दिन छात्रों ने अपनी कक्षाएं करने के बाद शाम 3 बजे परिसर में जुलूस निकाला। कुलपति ने शनिवार को विभाग का दौरा किया और इस दौरान अपने संबोधन में जो बाते विद्यार्थियों को कही उनसे पूर्णतः न सहमत होने के कारण छात्रों ने अपना रचनात्मक सत्याग्रह जारी रखने का संकल्प लिया है।
जहां एक तरफ कुलपति द्वारा विभाग को मूलभूत संसाधनों और सुविधाओं को मुहैया कराने के आश्वासन का सभी छात्रों ने स्वागत किया वहीं कुुलपति द्वारा बीए इन मीडिया स्टडीज को प्रोफेशनल और एमए मास कम्युनिकेशन को ऐकेडमिक कहने पर छात्रों ने पूरी तरह असहमति जताई। क्योंकि हमारे विभाग से भी प्त्रकारिता के प्रोफेशनल निकलते हैं और ‘‘जीडी गोयनका’’ जैसे पत्रकारिता के बडे़ पुरस्कारों को भी पाते हैं। हमे अपने काम के सर्टीफिकेट कम से कम से उन लोगों से लेने की कोई जरुरत नहीं है जो न तो कभी हमारे विभाग में आये हों और न ही हमारे काम से परिचित हों। विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा आश्वासनों के ठोस रूप लेने तक विभाग के सभी छात्र सत्याग्रह को सकारात्मक रूप देते हुुए चलाए रहने के पक्ष में हैं। इसे विभाग के लोग इसलिए जरूरी समझते है क्योंकि पिछले 40 दिनों के आंदोलन के प्रति प्रशासन का जो रवैया रहा है उससे छात्रों को प्रशासन केे प्रति किसी प्रकार का विश्वास करने का कोई कारण नहीं दिखता।
छात्रों का कहना था कि पिछले 4 सालों में विश्वविद्यालय प्रशासन की कथनी और करनी में बहुत विरोधाभास होने के कारण हम अपने खून-पसीने से खड़े किये गये सत्याग्रह को चंद आश्वासनों के नाम पर खत्म नहीं कर सकते, जब तक कि हमारे द्वारा उठाये गये मुद्दो पर कोई समारात्मक पहल करते हुए उसे यथार्थ रुप में कार्यान्वित नहीं किया जाता। क्योंकि एमए मास कम्युनिकेशन के पहले सत्र में 30 सीटों के लिए 2007 में 1 हजार से अधिक परीक्षार्थी प्रवेश परीक्षा में बैठे थे जो उस दौरान हुई पीजीएटी की प्रवेश परीक्षा में औसतन प्रति सीट सबसे अधिक थे। ये एक विडम्बना ही है कि आज उसी विभाग को नजंरदाज करके उसके समानान्तर एक महीने के व्यापक प्रचार और विश्वविद्यालय के पूरे लाव लश्कर की कोशिशों के बाद भी जो नया कोर्स बीए इन मीडिया स्टडीज शुरु किया गया उसमे 30 सीटों के लिए महज 60 फार्म ही बिक सके, जो हमारी सैद्धांतिक जीत है। विश्वविद्यालय के इतिहास में यह पहला मौका है जब कोई नया कोर्स बिना कार्यकारिणी परिषद से पास हुए कुलपति के विशेष अनुकम्पा से शुरु किया गया। यह और भी हास्यास्पद स्थिति है कि किसी कोर्स के फार्म को बेचने का श्रीगणेश कुलपति ने खुद किया और इसी दौरान उसकी बिल्डिंग का भी शिलान्यास किया। ताज्जुब ये है कि इन तमाम उपायों के बाद भी अभ्यर्थियों की संख्या सैकडे़ के आकड़े को भी पार कर नहीं कर सकी। इसके बाद भी उस पाठ्यक्रम की गुणवत्ता और विश्वसनीयता पर न सोचना उनकी वैचारिक हठता है न कि हमारे सत्याग्रह की कमजोरी।
- समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
जहां एक तरफ कुलपति द्वारा विभाग को मूलभूत संसाधनों और सुविधाओं को मुहैया कराने के आश्वासन का सभी छात्रों ने स्वागत किया वहीं कुुलपति द्वारा बीए इन मीडिया स्टडीज को प्रोफेशनल और एमए मास कम्युनिकेशन को ऐकेडमिक कहने पर छात्रों ने पूरी तरह असहमति जताई। क्योंकि हमारे विभाग से भी प्त्रकारिता के प्रोफेशनल निकलते हैं और ‘‘जीडी गोयनका’’ जैसे पत्रकारिता के बडे़ पुरस्कारों को भी पाते हैं। हमे अपने काम के सर्टीफिकेट कम से कम से उन लोगों से लेने की कोई जरुरत नहीं है जो न तो कभी हमारे विभाग में आये हों और न ही हमारे काम से परिचित हों। विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा आश्वासनों के ठोस रूप लेने तक विभाग के सभी छात्र सत्याग्रह को सकारात्मक रूप देते हुुए चलाए रहने के पक्ष में हैं। इसे विभाग के लोग इसलिए जरूरी समझते है क्योंकि पिछले 40 दिनों के आंदोलन के प्रति प्रशासन का जो रवैया रहा है उससे छात्रों को प्रशासन केे प्रति किसी प्रकार का विश्वास करने का कोई कारण नहीं दिखता।
छात्रों का कहना था कि पिछले 4 सालों में विश्वविद्यालय प्रशासन की कथनी और करनी में बहुत विरोधाभास होने के कारण हम अपने खून-पसीने से खड़े किये गये सत्याग्रह को चंद आश्वासनों के नाम पर खत्म नहीं कर सकते, जब तक कि हमारे द्वारा उठाये गये मुद्दो पर कोई समारात्मक पहल करते हुए उसे यथार्थ रुप में कार्यान्वित नहीं किया जाता। क्योंकि एमए मास कम्युनिकेशन के पहले सत्र में 30 सीटों के लिए 2007 में 1 हजार से अधिक परीक्षार्थी प्रवेश परीक्षा में बैठे थे जो उस दौरान हुई पीजीएटी की प्रवेश परीक्षा में औसतन प्रति सीट सबसे अधिक थे। ये एक विडम्बना ही है कि आज उसी विभाग को नजंरदाज करके उसके समानान्तर एक महीने के व्यापक प्रचार और विश्वविद्यालय के पूरे लाव लश्कर की कोशिशों के बाद भी जो नया कोर्स बीए इन मीडिया स्टडीज शुरु किया गया उसमे 30 सीटों के लिए महज 60 फार्म ही बिक सके, जो हमारी सैद्धांतिक जीत है। विश्वविद्यालय के इतिहास में यह पहला मौका है जब कोई नया कोर्स बिना कार्यकारिणी परिषद से पास हुए कुलपति के विशेष अनुकम्पा से शुरु किया गया। यह और भी हास्यास्पद स्थिति है कि किसी कोर्स के फार्म को बेचने का श्रीगणेश कुलपति ने खुद किया और इसी दौरान उसकी बिल्डिंग का भी शिलान्यास किया। ताज्जुब ये है कि इन तमाम उपायों के बाद भी अभ्यर्थियों की संख्या सैकडे़ के आकड़े को भी पार कर नहीं कर सकी। इसके बाद भी उस पाठ्यक्रम की गुणवत्ता और विश्वसनीयता पर न सोचना उनकी वैचारिक हठता है न कि हमारे सत्याग्रह की कमजोरी।
- समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
11 अक्टू॰ 2009
कुलपति पहुंचे पत्रकारिता विभाग, छात्रों ने सौंपा मांगपत्र
- मुख्य मुद्दे को छोड़कर बाकी सारी मांगे मानने को तैयार
- छात्रों ने कहा- मुख्य मुद्दे को लेकर जारी रहेगा सत्याग्रह
- महान क्रांतिकारी चे ग्वेरा की पुण्यतिथि मनाई
इलाहाबाद 10 अक्टूबर 09 इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के छात्रों द्वारा अपने विभाग के समानान्तर खोले जा रहे सेल्फ फाइनेंस कोर्स के विरोध में चलाये जा रहे सत्याग्रह का समाधान ढ़ूढ़ने के सिलसिले में आज कुलपति अचानक विभाग पहुंच गये। विभाग में कुलपति और छात्रों के बीच लगभग घंटे भर तक चली बात-चीत में उन्होंने आश्वासन दिया कि वे विभाग के विकास के लिए अपने स्तर पर हर कोशिश करेंगे लेकिन बीए इन मीडिया स्टडीज के बारे में उन्होंने अपने पुराने दृष्टिकोण को बरकरार रखा कि ऐकेडमिक काउंसिल द्वारा पारित उनका कोर्स एमए मास कम्युनिकेशन से अलग है जिस पर उपस्थित छात्रों ने पूरी तरह असहमति व्यक्त की।
हालांकि कुलपति ने जल्द से जल्द विभाग की सभी मूलभूत जरुरतोें को प्राथमिकता के आधार पर पूरा करने का भरोसा दिलाया और कहा कि उन्हें नहीं पता था कि पत्रकारिता विभाग में इतनी समस्याएं मौजूद हैं। उन्होंने कहा कि आप अपनी समस्याओ और मांगोें का एक प्रारुप बनाकर दीजिए, उस पर जल्द से जल्द कार्यवाही की जायेगी। इस दौरान छात्रों ने उनसे पूछा कि अपनी समस्याओ को लेकर सड़कों पर उतरने के बाद भी उन्हें विभाग में आकर छात्रों की समस्याएं जानने के लिए 37 दिन क्यों लग गये ? शाम को लगभग तीन बजे कुलपति के प्रतिनिधि के रूप में कुलानुशासक और डीएसडब्ल्यू ने विभाग में पहुंचकर छात्रों से लिखित मांगपत्र लिया और उनकी समस्याओ का निराकरण करने की बात कही।
अपने सत्याग्रह के दबाव में कुलपति और प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा विभाग में आकर छात्रों से बात करने और उनकी समस्याएं जानने को अपने आंदोलन की एक बड़ी सफलता मानते हुए और महान क्रांतिकारी चे ग्वेरा की पुण्यतिथि पर छात्रों ने उनके जीवन पर बनी फिल्म ‘‘मोटर साइकिल डायरी’’ देखी। गौरतलब है कि चे ग्वेरा लैटिन अमेरिका के तमाम देशों में क्रांति की अलख जगाने वाले महान क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अपनी सुख-सुविधाओ से भरी जिन्दगी छोड़कर अपना सारा जीवन लैटिन अमेरिका के गरीबों, पिछड़ों और असहायों को एक अच्छी जिन्दगी दे सकने के संघर्ष के लिए समर्पित कर दिया था। छात्रों ने फिल्म देखकर उनके आदर्शों और सिद्धांतो को आत्मसात करते हुए अपने सत्याग्रह को तब तक जारी रखने का प्रण लिया, जब तक कि उनकी सभी मांगों को पूरा नहीं कर दिया जाता।
समस्त छात्र
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
9721446201,9889646767,9455474188
- छात्रों ने कहा- मुख्य मुद्दे को लेकर जारी रहेगा सत्याग्रह
- महान क्रांतिकारी चे ग्वेरा की पुण्यतिथि मनाई
इलाहाबाद 10 अक्टूबर 09 इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के छात्रों द्वारा अपने विभाग के समानान्तर खोले जा रहे सेल्फ फाइनेंस कोर्स के विरोध में चलाये जा रहे सत्याग्रह का समाधान ढ़ूढ़ने के सिलसिले में आज कुलपति अचानक विभाग पहुंच गये। विभाग में कुलपति और छात्रों के बीच लगभग घंटे भर तक चली बात-चीत में उन्होंने आश्वासन दिया कि वे विभाग के विकास के लिए अपने स्तर पर हर कोशिश करेंगे लेकिन बीए इन मीडिया स्टडीज के बारे में उन्होंने अपने पुराने दृष्टिकोण को बरकरार रखा कि ऐकेडमिक काउंसिल द्वारा पारित उनका कोर्स एमए मास कम्युनिकेशन से अलग है जिस पर उपस्थित छात्रों ने पूरी तरह असहमति व्यक्त की।
हालांकि कुलपति ने जल्द से जल्द विभाग की सभी मूलभूत जरुरतोें को प्राथमिकता के आधार पर पूरा करने का भरोसा दिलाया और कहा कि उन्हें नहीं पता था कि पत्रकारिता विभाग में इतनी समस्याएं मौजूद हैं। उन्होंने कहा कि आप अपनी समस्याओ और मांगोें का एक प्रारुप बनाकर दीजिए, उस पर जल्द से जल्द कार्यवाही की जायेगी। इस दौरान छात्रों ने उनसे पूछा कि अपनी समस्याओ को लेकर सड़कों पर उतरने के बाद भी उन्हें विभाग में आकर छात्रों की समस्याएं जानने के लिए 37 दिन क्यों लग गये ? शाम को लगभग तीन बजे कुलपति के प्रतिनिधि के रूप में कुलानुशासक और डीएसडब्ल्यू ने विभाग में पहुंचकर छात्रों से लिखित मांगपत्र लिया और उनकी समस्याओ का निराकरण करने की बात कही।
अपने सत्याग्रह के दबाव में कुलपति और प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा विभाग में आकर छात्रों से बात करने और उनकी समस्याएं जानने को अपने आंदोलन की एक बड़ी सफलता मानते हुए और महान क्रांतिकारी चे ग्वेरा की पुण्यतिथि पर छात्रों ने उनके जीवन पर बनी फिल्म ‘‘मोटर साइकिल डायरी’’ देखी। गौरतलब है कि चे ग्वेरा लैटिन अमेरिका के तमाम देशों में क्रांति की अलख जगाने वाले महान क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अपनी सुख-सुविधाओ से भरी जिन्दगी छोड़कर अपना सारा जीवन लैटिन अमेरिका के गरीबों, पिछड़ों और असहायों को एक अच्छी जिन्दगी दे सकने के संघर्ष के लिए समर्पित कर दिया था। छात्रों ने फिल्म देखकर उनके आदर्शों और सिद्धांतो को आत्मसात करते हुए अपने सत्याग्रह को तब तक जारी रखने का प्रण लिया, जब तक कि उनकी सभी मांगों को पूरा नहीं कर दिया जाता।
समस्त छात्र
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
9721446201,9889646767,9455474188
9 अक्टू॰ 2009
सेल्फ फाइनेंस कोर्स चलाना देश के गरीबों के मुह पर तमाचा: संदीप पाण्डेय
छात्रों द्वारा शिक्षा के निजीकरण और पत्रकारिता विभाग के समानान्तर स्ववित्तपोषित कोर्स के विरोध में चलाए जा रहे आंदोलन का नेतृत्व आज मैक्सेसे पुरस्कार प्राप्त और गांधीवादी विचारक संदीप पाण्डेय ने किया। छात्रों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि ऐसे सेल्फ फाइनेंस कोर्स चलाना गरीबों के मुह पर तमाचा है। शिक्षा के निजीकरण विरोधी आंदोलन में पूरे देश के छात्रों को शामिल होने का आह्वान किया। शिक्षा का निजीकरण सरकार की देन है। सरकार भी ऐसे शिक्षा माफियाओं के साथ हमसफर है। जिसके कर्ताधर्ता के रूप में विश्वविद्याल के कुलपति और कुछ मठाधीश शामिल हैं।
गोष्ठी को सम्बोधित करते हुए संदीप पाण्डेय ने कहा कि एक स्थापित विभाग के समानान्तर सेल्फ फाइनेंस कोर्स खोलना दो तरह की शिक्षा पद्धति को लागू करने के समान है। जिसे एक लोकतांत्रिक और समतामूलक समाज निर्माण में आस्था रखने वाला कोई भी वयक्ति स्वीकार नहीं कर सकता। श्री पाण्येय ने आगे कहा कि जिस तरह विश्वविद्यालय प्रशासन छात्रों के ग्यारह सूत्री सवालों का जवाब देने के बजाय छात्रों और उनके शिक्षक सुनील उमराव पर अराजकता का आरोप लगाकर उनके खिलाफ कार्यवायी की बाात कर रहा इससे भी पता चलता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन कितना संवेदनहीन हो चुका है। उन्होंने इस आंदोलन को हर तरह से समर्थन देने का वादा किया। वहीं राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी के नेता राजेश पासी ने कहा कि पत्रकारिता विभाग की ये लड़ाई लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई है। क्योंकि डेढ़ लाख देकर पत्रकारिता की डिग्री खरीदने वाला पत्रकार समाज के कमजोर तबकों के सवालों को नहीं समझ सकता।
वहीं दूसरी ओर विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा चार लोगों की कमेटी के समक्ष विभाग के अध्यापक को बुलाने के फरमान को छात्रों ने हास्याष्पद और तानाशाहीपूर्ण बताया। छात्रों ने बताया कि इस कमेटी में सभी लोग विश्वविद्यालय प्रशासन के खास हैं और उनकी एकेडमिक छवि भी ऐसी नहीं है कि उनसे वार्ता की जा सके। छात्रों का कहना है कि पत्रकारिता विभाग और प्रस्तावित बीए इन मीडिया स्टडीज का तुलनात्मक विश्लेषण के लिए विषय के विशेषज्ञों का पैनल बनाया जाय। जिसमें दूसरे केंद्रीय विश्वविद्यालयों के वरिष्ठ प्रोफेसरों को भी रखा जाय।
अपनी कक्षाओं से छूटते के बाद छात्रों ने नारे लिखी तख्तियां जिन पर ‘पत्रकारिता विभाग के समानान्तर सेल्फ फाइनेंस कोर्स क्यांे कुलपति जवाब दो, निजीकरण के खिलाफ चल रहे आंदोलन पर चुप्पी क्योे कपिल सिब्बल जवाब दो, बिना कार्यकारिणी परिषद से पास हुये कोर्स चलाने वाले कुलपति जवाब दो, लिखा था के साथ कला संकाया और विज्ञान संकाय में जुलूस निकाला। जो फिर घूमकर पत्रकारिता विभाग आकर गोष्ठी में तब्दील हो गया। कला संकाय परिसर से निकल विज्ञान परिसर जा रहे छात्रों के जुलूस को रास्ते में कुलपति के कुछ चाटूकार पुलिस जुलूस को रोकन के लिए आगे आये। कुछ देर कहासुनी के बाद पुलिस प्रशासन को छात्रों के सामने नतमस्तक होना पड़ा और आंदोलन को यथास्थित चलने दिया। इस दौरान छात्रों ने पर्चे और कार्टून भी बांटे।
समस्त छात्र
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
9721446201,9889646767, 9455474188
7 अक्टू॰ 2009
पांबदी के बाद भी पत्रकारिता के छात्रों ने निकाला परिसर में जुलूस
- 'पीस जोन' में किया सत्याग्रह
- नोटिस भी नहीं रोक पाई पत्रकारिता के छात्रों को
इलाहाबाद 7 अक्टूबर 09
पत्रकारिता के छा़त्रों की तरफ से सेल्फ फाइनेंस कोर्स के विरोध में शांतिपूर्ण ढंग से चलाए जा रहे आंदोलन पर कुलानुशासक द्वारा विभाग को दी गयी नोटिस के जवाब में आज छात्रों ने परिसर में मौन जुलूस निकाला। इस दौरान छात्रों ने पीस जोन में बैठकर सत्याग्रह किया और प्रशासन की ओर से भेजी गयी नोटिस की निन्दा की। बाद में छात्रों ने चीफ प्राॅक्टर को नोटिस के संदर्भ में अपना लिखित जवाब भी सौंपा।
प्राॅक्टर द्वारा विश्वविद्यालय परिसर में किसी भी प्रकार के जुलूस एवं प्रदर्शन पर पाबंदी लगाये जाने के विरोध में आज छात्रों ने अपनी कक्षाएं करने के बाद तीन बजे से एक बार फिर मौन जुलूस निकाला और पीस जोन में प्रदर्शन किया। लेकिन इस दौरान विश्वविद्यालय का कोई प्रशासनिक अधिकारी छात्रों के जुलूस के सामने नहीं आया। छात्र लगभग घन्टे भर तक पीस जोन में बैठे रहे। इसके बाद छात्रों ने खुद ही कुलानुशासक कार्यालय पहुंचकर चीफ प्राॅक्टर को भेजी गयी नोटिस का लिखित जवाब दिया। इस दौरान प्राॅक्टर ने छात्रों का आईकार्ड भी चेक किया।
इस दौरान छात्रों ने प्राॅक्टर से कहा कि आम छात्रों के हितो और समाज से सरोकार रखने वाले मुद्दो पर संघर्ष करना विश्वविद्यालय की महान परंपरा का हिस्सा है। छात्रो ने सवाल किया कि विश्वविद्यालय प्रशासन की गलत नीतियों और जनसरोकार संबंधी सवालो को लेकर आगे आना अगर गलत है तो विश्वविद्यालय को सबसे पहले विश्वविद्यालय परिसर में लगी लाल पद्मधर की प्रतिमा को हटा देना चाहिये। क्योंकि उन्होंने भी आजादी आंदोलन के दौरान इन्ही सवालों को लेकर अपनी शहादत दी थी। छात्रों का कहना था कि वे भी अपने सवालों को लेकर कोई भी सजा भुगतने को तैयार हैं। छात्रों और प्राॅक्टर के बीच हुई इस तल्ख बातचीत के बाद प्राॅक्टर विभाग की समस्याओ को और भी विस्तृत रुप से जानने-समझने के लिए कल गुरूवार को विभाग में आने के लिए राजी हुए।
समस्त छात्र
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
-------------------------------------------
प्रशासन की नोटिस का जवाब
सेवा में,
कुलानुशासक
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
विषय: आपके द्वारा विभागाध्यक्ष पत्रकारिता विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय को भेजी गयी नोटिस क्रम संख्या 606/09 दिनांक 06.10.2009 के संबंध में..
महोदय,
आपके द्वारा भेजी गयी सूचना में लगाये गये आरोपों से हम विभाग के छात्र पूरी तरह असहमत हैं क्योंकि हमने कभी भी किसी भी विभाग की कक्षांओ में जाकर पठन-पाठन में अवरोध पैदा करने की कोशिश नहीं की है। पिछले 33 दिनों से हम अपनी जायज मांगों को लेकर विश्ववि़द्यालय प्रशासन के समक्ष गांधीवादी तरीके से अपनी बात रखने का प्रयत्न करने रहे हैं। लेकिन हमने कभी भी अपनी पढ़ाई की कीमत पर ऐसा नहीं किया। हम सब आपके समक्ष निम्न बिन्दुओं को पुनः रखना चाहेंगे ताकि आप हमारी समस्या का जल्द से जल्द समाधान करने की कोशिश करें न कि अपने प्रशासनिक तंत्र की हनक दिखाकर हमें डराने धमकाने व हमारा उत्पीड़न करने की कोशिश करें-
1- हमारा आंदोलन हमेशा शांतिपूर्ण एवं अहिंसक रहा है।
2- हमने हमेशा ये कोशिश की है कि हमारी कक्षाएं नियमित रुप से चलें और उसके बाद ही हम सत्याग्रह में बाहर निकले हैं।
3- अभिव्यक्ति और संगठन बनाने का अधिकार हमारा संवैधानिक अधिकार है। विश्वविद्यालय जैसी संस्थाएं तो विभिन्न विचारों की उत्पत्ति और उसके फलने-फूलने का केन्द्र होती हैं। कम से कम विश्वविद्यालय से हम ये उम्मीद नहीं करते कि वह विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ही प्रतिबंधित कर दे।
4- इलाहाबाद विश्वविद्यालय का एक गौरवशाली इतिहास रहा है। राष्ट्र और समाज से सरोकार रखने वाले मुद्दों को उठाना और आम छात्रों के हितों के लिए संघर्ष करना विश्वविद्यालय के छात्रों की परंपरा रही है। विश्वविद्यालय द्वारा थोपे जा रहे शिक्षा के इस नये स्वरुप से असहमति रखकर हम अपना पक्ष लोगों के सामने रखना अपना कर्तव्य समझते हैं।
5- हम लोग किसी प्रकार के बाहरी मुद्दों को परिसर में नहीं ला रहें हैं। हम केवल शिक्षा की गुणवत्ता और उसकी उपलब्धता पर जनमत बना रहे हैं, जो आम छात्रों की जरुरत है।
6- विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा हाल में लिए गये कुछ निर्णयों और गतिविधियों जैसे- विभाग के समानान्तर समान पाठ्यक्रम का सेल्फ फाइनेंस एक कोर्स नये केंद्र में शुरु करना पत्रकारिता विभाग को खत्म करने की सोची-समझी रणनीति ही लगती है। इस निर्णय से असहमत होने और विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा हमारी मांगो का कोई जवाब न दिये जाने के कारण ही हम छात्रों को सत्याग्रह के लिए बाध्य होना पड़ा है।
7- हम लोग उन्हीं शैक्षिक मुद्दे उठा रहें हैं जो कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय और आम छात्रों के हितों में है।
अतः आप से निवेदन है कि हमारे सत्याग्रह को कानून व्यवस्था की समस्या का ेनाम देने की बजाय हमारीे समस्याओ का समाधान कराने की कोशिश करे और किसी व्यक्ति विशेष के हितों की पूर्ति करने के स्थान पर आम छात्रों के हितों के बारे में सोचे।
- धन्यवाद
समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
- नोटिस भी नहीं रोक पाई पत्रकारिता के छात्रों को
इलाहाबाद 7 अक्टूबर 09
पत्रकारिता के छा़त्रों की तरफ से सेल्फ फाइनेंस कोर्स के विरोध में शांतिपूर्ण ढंग से चलाए जा रहे आंदोलन पर कुलानुशासक द्वारा विभाग को दी गयी नोटिस के जवाब में आज छात्रों ने परिसर में मौन जुलूस निकाला। इस दौरान छात्रों ने पीस जोन में बैठकर सत्याग्रह किया और प्रशासन की ओर से भेजी गयी नोटिस की निन्दा की। बाद में छात्रों ने चीफ प्राॅक्टर को नोटिस के संदर्भ में अपना लिखित जवाब भी सौंपा।
प्राॅक्टर द्वारा विश्वविद्यालय परिसर में किसी भी प्रकार के जुलूस एवं प्रदर्शन पर पाबंदी लगाये जाने के विरोध में आज छात्रों ने अपनी कक्षाएं करने के बाद तीन बजे से एक बार फिर मौन जुलूस निकाला और पीस जोन में प्रदर्शन किया। लेकिन इस दौरान विश्वविद्यालय का कोई प्रशासनिक अधिकारी छात्रों के जुलूस के सामने नहीं आया। छात्र लगभग घन्टे भर तक पीस जोन में बैठे रहे। इसके बाद छात्रों ने खुद ही कुलानुशासक कार्यालय पहुंचकर चीफ प्राॅक्टर को भेजी गयी नोटिस का लिखित जवाब दिया। इस दौरान प्राॅक्टर ने छात्रों का आईकार्ड भी चेक किया।
इस दौरान छात्रों ने प्राॅक्टर से कहा कि आम छात्रों के हितो और समाज से सरोकार रखने वाले मुद्दो पर संघर्ष करना विश्वविद्यालय की महान परंपरा का हिस्सा है। छात्रो ने सवाल किया कि विश्वविद्यालय प्रशासन की गलत नीतियों और जनसरोकार संबंधी सवालो को लेकर आगे आना अगर गलत है तो विश्वविद्यालय को सबसे पहले विश्वविद्यालय परिसर में लगी लाल पद्मधर की प्रतिमा को हटा देना चाहिये। क्योंकि उन्होंने भी आजादी आंदोलन के दौरान इन्ही सवालों को लेकर अपनी शहादत दी थी। छात्रों का कहना था कि वे भी अपने सवालों को लेकर कोई भी सजा भुगतने को तैयार हैं। छात्रों और प्राॅक्टर के बीच हुई इस तल्ख बातचीत के बाद प्राॅक्टर विभाग की समस्याओ को और भी विस्तृत रुप से जानने-समझने के लिए कल गुरूवार को विभाग में आने के लिए राजी हुए।
समस्त छात्र
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
-------------------------------------------
प्रशासन की नोटिस का जवाब
सेवा में,
कुलानुशासक
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
विषय: आपके द्वारा विभागाध्यक्ष पत्रकारिता विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय को भेजी गयी नोटिस क्रम संख्या 606/09 दिनांक 06.10.2009 के संबंध में..
महोदय,
आपके द्वारा भेजी गयी सूचना में लगाये गये आरोपों से हम विभाग के छात्र पूरी तरह असहमत हैं क्योंकि हमने कभी भी किसी भी विभाग की कक्षांओ में जाकर पठन-पाठन में अवरोध पैदा करने की कोशिश नहीं की है। पिछले 33 दिनों से हम अपनी जायज मांगों को लेकर विश्ववि़द्यालय प्रशासन के समक्ष गांधीवादी तरीके से अपनी बात रखने का प्रयत्न करने रहे हैं। लेकिन हमने कभी भी अपनी पढ़ाई की कीमत पर ऐसा नहीं किया। हम सब आपके समक्ष निम्न बिन्दुओं को पुनः रखना चाहेंगे ताकि आप हमारी समस्या का जल्द से जल्द समाधान करने की कोशिश करें न कि अपने प्रशासनिक तंत्र की हनक दिखाकर हमें डराने धमकाने व हमारा उत्पीड़न करने की कोशिश करें-
1- हमारा आंदोलन हमेशा शांतिपूर्ण एवं अहिंसक रहा है।
2- हमने हमेशा ये कोशिश की है कि हमारी कक्षाएं नियमित रुप से चलें और उसके बाद ही हम सत्याग्रह में बाहर निकले हैं।
3- अभिव्यक्ति और संगठन बनाने का अधिकार हमारा संवैधानिक अधिकार है। विश्वविद्यालय जैसी संस्थाएं तो विभिन्न विचारों की उत्पत्ति और उसके फलने-फूलने का केन्द्र होती हैं। कम से कम विश्वविद्यालय से हम ये उम्मीद नहीं करते कि वह विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ही प्रतिबंधित कर दे।
4- इलाहाबाद विश्वविद्यालय का एक गौरवशाली इतिहास रहा है। राष्ट्र और समाज से सरोकार रखने वाले मुद्दों को उठाना और आम छात्रों के हितों के लिए संघर्ष करना विश्वविद्यालय के छात्रों की परंपरा रही है। विश्वविद्यालय द्वारा थोपे जा रहे शिक्षा के इस नये स्वरुप से असहमति रखकर हम अपना पक्ष लोगों के सामने रखना अपना कर्तव्य समझते हैं।
5- हम लोग किसी प्रकार के बाहरी मुद्दों को परिसर में नहीं ला रहें हैं। हम केवल शिक्षा की गुणवत्ता और उसकी उपलब्धता पर जनमत बना रहे हैं, जो आम छात्रों की जरुरत है।
6- विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा हाल में लिए गये कुछ निर्णयों और गतिविधियों जैसे- विभाग के समानान्तर समान पाठ्यक्रम का सेल्फ फाइनेंस एक कोर्स नये केंद्र में शुरु करना पत्रकारिता विभाग को खत्म करने की सोची-समझी रणनीति ही लगती है। इस निर्णय से असहमत होने और विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा हमारी मांगो का कोई जवाब न दिये जाने के कारण ही हम छात्रों को सत्याग्रह के लिए बाध्य होना पड़ा है।
7- हम लोग उन्हीं शैक्षिक मुद्दे उठा रहें हैं जो कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय और आम छात्रों के हितों में है।
अतः आप से निवेदन है कि हमारे सत्याग्रह को कानून व्यवस्था की समस्या का ेनाम देने की बजाय हमारीे समस्याओ का समाधान कराने की कोशिश करे और किसी व्यक्ति विशेष के हितों की पूर्ति करने के स्थान पर आम छात्रों के हितों के बारे में सोचे।
- धन्यवाद
समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
लेबल:
आंदोलन,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय,
खुला पत्र,
निजीकरण,
शिक्षा
6 अक्टू॰ 2009
सवालों से बेचैन प्रशासन अब छात्रों को धमकाने पर उतरा
- विभाग को भेजी नोटिस, छात्रों ने कहा- "बर्खास्त होने को तैयार"
- क्रांतिकारी कविताओं के माध्यम से ली प्रेरणा
इलाहाबाद 6 अक्टूबर 09 इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के छात्रों की तरफ से शांतिपूर्ण ढंग से चलाए जा रहे आंदोलन को विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा परिसर में शांति भंग करने और पठन-पाठन में बाधा बताया है। छात्रों ने इसकी घोर निन्दा की है। विद्यार्थियों का कहना है कि वे अपनी जायज मांगों के लिए बर्खास्त होने को भी तैयार हंै। छात्र शाम तीन बजेे तक अपनी कक्षाएं करने के बाद अपनी मांगो को लेकर परिसर और डेलीगेसी में घूमकर समर्थन मांगते हैं। इसके बावजूद विश्वविद्यालय प्रशासन ने उन्हें नोटिस भेजकर धमकाने की कोशिश की है कि छात्र अपने पठन-पाठन में ध्यान दे अन्यथा उनके खिलाफ कड़ी कार्यवाही की जायेगी। जबकि प्रशासन की तरफ से एक भी व्यक्ति विभाग में इस बात का जायजा लेने कभी नहीं आया कि यहां पर कक्षाएं किस हालात में चलती हैं।
छात्रों के पठन-पाठन के लिए प्रशासन ने पिछले 20 सालो से कोई ध्यान नहीं दिया, वह आज किस आधार कहता है कि छात्र अपनी पढ़ाई में ध्यान दें। आज तक विभाग में लैब, लाइब्रेरी, की व्यवस्था करने पर चुप्पी साधे रहे प्रशासन को अचानक यह ख्याल कहां से आया। छात्रों द्वारा उठाये गये सवालों का प्रशासन कोई जवाब न देकर छात्रों को डरा-धमकाकर आंदोलन को तोड़ने की साजिश रच रहा है। छात्रों का कहना है कि पिछले दो महीने से हमारे यहां निरंतर कक्षाएं चलने के साथ ही साथ हम लोग अपना आंदोलन चला रहे हंै। छात्रों ने कहा है कि तीन बजे तक विश्वविद्यालय के किस विभाग में कक्षाएं चलती हैं, कुलानुशासक इसका जवाब दें। विश्वविद्यालय में हो रहे शिक्षा के निजीकरण और पत्रकारिता विभाग के समानान्तर खोले जा रहे सेल्फ फाइनेंस कोर्स के विरोध में छात्र एक माह से आंदोलनरत हैं। छात्रों द्वारा सूचना अधिकार के तहत मांगे जा रहे सवालोें से बेचैन प्रशासन ंछात्रों को डराने धमकाने पर उतर आया है।
छात्रों ने आंदोलन के 33वें दिन आज विभाग के सामने बने ‘‘खबरचौरा’’ में बैठकर विभिन्न क्रांतिकारी कविताओं का काव्य पाठ किया और उनसे प्रेरणा लेकर अपने आंदोलन को और भी मजबूती देने का संकल्प लिया। इस दौरान पाश, मुक्तिबोध, नागार्जुन, फैज, दुष्यंत कुमार आदि की कविताओं को पढ़ा गया। इस कार्यक्रम में आॅल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन (आइसा) और आॅल इंडिया डेमोके्रटिक स्टूडेंट एसोसिएशन (एआईडीएसओ) के लोगों ने भी कविताओं और क्रांतिकारी गीतों का पाठ किया।
‘‘सवाल पूछते रहो अभियान’’ के अंतर्गत विभाग के छात्र सौरभ कुमार ने आज पूछा है कि ‘विश्वविद्यालय में ऐसे कितने अध्यापक हैं जो विश्वविद्यालय के प्रशासनिक पदों पर भी आसीन हैं’ और विश्वविद्यालय के प्रशासनिक पदों पर आसीन ऐसे लोगो का ब्योरा मांगा है जिनके भाई-बहन, पत्नी एवं रिश्तेदार आदि भी अनुबंध के आधार पर विश्वविद्यालय में किन्हीं पदों पर कार्यरत हैं।
समस्त छात्र
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
9721446201,9889646767,9455474188
- क्रांतिकारी कविताओं के माध्यम से ली प्रेरणा
इलाहाबाद 6 अक्टूबर 09 इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के छात्रों की तरफ से शांतिपूर्ण ढंग से चलाए जा रहे आंदोलन को विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा परिसर में शांति भंग करने और पठन-पाठन में बाधा बताया है। छात्रों ने इसकी घोर निन्दा की है। विद्यार्थियों का कहना है कि वे अपनी जायज मांगों के लिए बर्खास्त होने को भी तैयार हंै। छात्र शाम तीन बजेे तक अपनी कक्षाएं करने के बाद अपनी मांगो को लेकर परिसर और डेलीगेसी में घूमकर समर्थन मांगते हैं। इसके बावजूद विश्वविद्यालय प्रशासन ने उन्हें नोटिस भेजकर धमकाने की कोशिश की है कि छात्र अपने पठन-पाठन में ध्यान दे अन्यथा उनके खिलाफ कड़ी कार्यवाही की जायेगी। जबकि प्रशासन की तरफ से एक भी व्यक्ति विभाग में इस बात का जायजा लेने कभी नहीं आया कि यहां पर कक्षाएं किस हालात में चलती हैं।
छात्रों के पठन-पाठन के लिए प्रशासन ने पिछले 20 सालो से कोई ध्यान नहीं दिया, वह आज किस आधार कहता है कि छात्र अपनी पढ़ाई में ध्यान दें। आज तक विभाग में लैब, लाइब्रेरी, की व्यवस्था करने पर चुप्पी साधे रहे प्रशासन को अचानक यह ख्याल कहां से आया। छात्रों द्वारा उठाये गये सवालों का प्रशासन कोई जवाब न देकर छात्रों को डरा-धमकाकर आंदोलन को तोड़ने की साजिश रच रहा है। छात्रों का कहना है कि पिछले दो महीने से हमारे यहां निरंतर कक्षाएं चलने के साथ ही साथ हम लोग अपना आंदोलन चला रहे हंै। छात्रों ने कहा है कि तीन बजे तक विश्वविद्यालय के किस विभाग में कक्षाएं चलती हैं, कुलानुशासक इसका जवाब दें। विश्वविद्यालय में हो रहे शिक्षा के निजीकरण और पत्रकारिता विभाग के समानान्तर खोले जा रहे सेल्फ फाइनेंस कोर्स के विरोध में छात्र एक माह से आंदोलनरत हैं। छात्रों द्वारा सूचना अधिकार के तहत मांगे जा रहे सवालोें से बेचैन प्रशासन ंछात्रों को डराने धमकाने पर उतर आया है।
छात्रों ने आंदोलन के 33वें दिन आज विभाग के सामने बने ‘‘खबरचौरा’’ में बैठकर विभिन्न क्रांतिकारी कविताओं का काव्य पाठ किया और उनसे प्रेरणा लेकर अपने आंदोलन को और भी मजबूती देने का संकल्प लिया। इस दौरान पाश, मुक्तिबोध, नागार्जुन, फैज, दुष्यंत कुमार आदि की कविताओं को पढ़ा गया। इस कार्यक्रम में आॅल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन (आइसा) और आॅल इंडिया डेमोके्रटिक स्टूडेंट एसोसिएशन (एआईडीएसओ) के लोगों ने भी कविताओं और क्रांतिकारी गीतों का पाठ किया।
‘‘सवाल पूछते रहो अभियान’’ के अंतर्गत विभाग के छात्र सौरभ कुमार ने आज पूछा है कि ‘विश्वविद्यालय में ऐसे कितने अध्यापक हैं जो विश्वविद्यालय के प्रशासनिक पदों पर भी आसीन हैं’ और विश्वविद्यालय के प्रशासनिक पदों पर आसीन ऐसे लोगो का ब्योरा मांगा है जिनके भाई-बहन, पत्नी एवं रिश्तेदार आदि भी अनुबंध के आधार पर विश्वविद्यालय में किन्हीं पदों पर कार्यरत हैं।
समस्त छात्र
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
9721446201,9889646767,9455474188
लेबल:
आंदोलन,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय,
कविता,
निजीकरण,
शिक्षा
5 अक्टू॰ 2009
पत्रकारिता की 'डिग्री' बेचकर जताया विरोध
- 32 दिन बाद भी जारी है अंादोलन, नहीं टूटा कुलपति का मौन
- लोगों से की फर्जी डिग्री लेने से बचने की अपील
इलाहाबाद!
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के छात्र ने अपनी मांगो को लेकर एक बार फिर से सड़क पर उतरे। रविवार को बीए इन मीडिया स्टडीज की प्रवेश परीक्षा कराए जाने पर छात्रों ने विरोध जताया। छात्रों ने आज प्रतीकात्मक तरीके से विश्वविद्यालय में और कटरा चैराहे तक जुलूस निकालकर फर्जी डिग्री बेचते हुए प्रदर्शन किया। छात्रों ने सवाल उठाया कि जो डिग्री यूजीसी द्वारा मान्य नहीं है और जिस डिग्री पर विश्वविद्यालय के परीक्षा नियंत्रक का हस्ताक्षर न हो, विश्वविद्यालय के अन्तर्गत वो किस अधिकार से बांटी जा रहा है। छात्रों ने इस दौरान पीस जोन के सामने बैठकर भी विरोध जताया।
हांथों में ‘‘विश्वविद्यालय में खुल गयी डिग्री की दुकान’’, ‘‘एक डिग्री लेने पर अचार का डिप्लोमा फ्री’’, ’’पहले आओ, पहले पाओ’’ ‘‘पैसा दो डिग्री लो’’ जैसे नारे लिखीं तख्तियां लिए छात्रों ने विश्वविद्यालय मार्ग और कटरा चैराहे पर लोगो को विश्वविद्यालय में चल रहे फर्जी डिग्री के गोरखधन्धे से अवगत कराया। गौरतलब है कि विष्वविद्यालय में डिग्रियों की दुकान खोलने में मुख्य भूमिका अदा करने वाले कार्यपरिशद के एक सदस्य इससे पहले अचार व मुरब्बे की फैक्ट्ी चलाते थे। बाद में उन्हें किसी ने डिग्रीयों की दुकान खोलने की नेक सलाह दी जिसके बाद वह इस क्षेत्र में हाथ आजमा रहे हैं।
अभियान के दौरान लोगों का कहना था कि आप लोगों का आन्दोलन सही है, और विश्वविद्यालय में चल रहे फर्जीवाड़े का पर्दाफाश होना ही चाहिए। लोगों ने कहा कि छात्रों के इस आन्दोलन में वे पूरी तरह साथ हैं। गौरतलब है कि पत्रकारिता विभाग के छात्र अपने विभाग के समानान्तर शुरू किये गये स्ववित्तपोषित पाठ्यक्रम और शिक्षा के निजीकरण के विरोध में पिछले 32 दिनों से आंदोलनरत हैं। इस सिलसिले में छात्र दिल्ली तक हो आये हैं लेकिन फिर भी विश्वविद्यालय प्रशासन इस बारे में मौन धारण किए हुए है।
‘‘सवाल पूछते रहो’’ अभियान के तहत आज विभाग के छात्र दिलीप केसरवानी ने पूछा है कि पिछले दस सालों में विश्वविद्यालय द्वारा प्रत्येक छात्र से डेलीगेसी शुल्क के रूप में लिए जाने वाले 20 रूपये किस मद में खर्च किये गये हैं, साथ ही उन्होंने यह भी पूछा है कि बिना कार्यकारिणी परिषद से पास हुए वे कौन-कौन से नये कोर्स हैं, जिन्हे कुलपति ने अपने विवेक के आधार पर चलाने की अनुमति दी है।
समस्त छात्र
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
- लोगों से की फर्जी डिग्री लेने से बचने की अपील
इलाहाबाद!
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के छात्र ने अपनी मांगो को लेकर एक बार फिर से सड़क पर उतरे। रविवार को बीए इन मीडिया स्टडीज की प्रवेश परीक्षा कराए जाने पर छात्रों ने विरोध जताया। छात्रों ने आज प्रतीकात्मक तरीके से विश्वविद्यालय में और कटरा चैराहे तक जुलूस निकालकर फर्जी डिग्री बेचते हुए प्रदर्शन किया। छात्रों ने सवाल उठाया कि जो डिग्री यूजीसी द्वारा मान्य नहीं है और जिस डिग्री पर विश्वविद्यालय के परीक्षा नियंत्रक का हस्ताक्षर न हो, विश्वविद्यालय के अन्तर्गत वो किस अधिकार से बांटी जा रहा है। छात्रों ने इस दौरान पीस जोन के सामने बैठकर भी विरोध जताया।
हांथों में ‘‘विश्वविद्यालय में खुल गयी डिग्री की दुकान’’, ‘‘एक डिग्री लेने पर अचार का डिप्लोमा फ्री’’, ’’पहले आओ, पहले पाओ’’ ‘‘पैसा दो डिग्री लो’’ जैसे नारे लिखीं तख्तियां लिए छात्रों ने विश्वविद्यालय मार्ग और कटरा चैराहे पर लोगो को विश्वविद्यालय में चल रहे फर्जी डिग्री के गोरखधन्धे से अवगत कराया। गौरतलब है कि विष्वविद्यालय में डिग्रियों की दुकान खोलने में मुख्य भूमिका अदा करने वाले कार्यपरिशद के एक सदस्य इससे पहले अचार व मुरब्बे की फैक्ट्ी चलाते थे। बाद में उन्हें किसी ने डिग्रीयों की दुकान खोलने की नेक सलाह दी जिसके बाद वह इस क्षेत्र में हाथ आजमा रहे हैं।
अभियान के दौरान लोगों का कहना था कि आप लोगों का आन्दोलन सही है, और विश्वविद्यालय में चल रहे फर्जीवाड़े का पर्दाफाश होना ही चाहिए। लोगों ने कहा कि छात्रों के इस आन्दोलन में वे पूरी तरह साथ हैं। गौरतलब है कि पत्रकारिता विभाग के छात्र अपने विभाग के समानान्तर शुरू किये गये स्ववित्तपोषित पाठ्यक्रम और शिक्षा के निजीकरण के विरोध में पिछले 32 दिनों से आंदोलनरत हैं। इस सिलसिले में छात्र दिल्ली तक हो आये हैं लेकिन फिर भी विश्वविद्यालय प्रशासन इस बारे में मौन धारण किए हुए है।
‘‘सवाल पूछते रहो’’ अभियान के तहत आज विभाग के छात्र दिलीप केसरवानी ने पूछा है कि पिछले दस सालों में विश्वविद्यालय द्वारा प्रत्येक छात्र से डेलीगेसी शुल्क के रूप में लिए जाने वाले 20 रूपये किस मद में खर्च किये गये हैं, साथ ही उन्होंने यह भी पूछा है कि बिना कार्यकारिणी परिषद से पास हुए वे कौन-कौन से नये कोर्स हैं, जिन्हे कुलपति ने अपने विवेक के आधार पर चलाने की अनुमति दी है।
समस्त छात्र
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
4 अक्टू॰ 2009
परीक्षार्थियों से ज्यादा पुलिसकर्मियों ने दी परीक्षा !
संगीनों के साये में सम्पन्न हुई बीए इन मीडिया स्टडीज की प्रवेश परीक्षा
छावनी में तब्दील रहा परीक्षा केन्द्र
इलाहाबाद 4 अक्टूबर 09 इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीए इन मीडिया कोर्स शुरु करने को लेकर पत्रकरिता विभाग के विद्यार्थियों द्वारा एक महीने से जारी विरोध के बावजूद आज विवि प्रशासन ने प्रवेश परीक्षा दंगा नियंत्रण वाहन की तैनाती में सम्पन्न करवाया। बीए- इन मीडिया स्टडीज की प्रवेश परीक्षा करवाने के लिए परीक्षा सेंटर परीक्षार्थियों से ज्यादा पुलिस वाले दिखे। पत्रकारिता विभाग के छात्रों ने इसका कड़ा विरोध किया है।
बीए इन मीडिया कोर्स में 30 सीटों के लिए 70 छात्रों ने आवेदन किया था। वहीं जब पत्रकारिता विभाग में सत्र 2007 में एम ए मास कम्युनिकेशन की प्रवेश परीक्षा में 30 सीटों के लिए 1000 परीक्षार्थी बैठे थे। जिसे पीजीएटी के वर्तमान निदेशक ने प्रेस विज्ञप्ति, अखबारों में भेजकर छपवाया था कि एक सीट पर सबसे ज्यादा परीक्षार्थी मास कम्युनिकेशन विषय में बैठे हैं। इससे साफ हो जाता है कि शिक्षा को महंगा कर देने से षिक्षा केवल समाज के अभिजात्य वर्ग की कठपुतली बनकर रह जायेगी। जब एक सीट के लिए केवल दो छात्र बैठे हों तो आइपीएस सेंटर की विश्वसनियता और गुणवत्ता दोनों पर प्रश्नचिन्ह लगता है।
पत्रकारिता विभाग के छात्र, विभाग के समानान्तर सेल्फ फाइनेंस बीए इन मीडिया स्टडीज के कदम को उच्च शिक्षा में आम छात्रों की पहुंच से दूर करने की कोशिश के साथ-साथ शुद्ध रूप से धनउगाही को बढ़ावा देने की पहल भी मानते है। यह और भी आश्चर्य की बात है कि विश्वविद्यालय को केंद्रीय दर्जा मिल जाने के बाद से तो धन का अम्बार लग गया है। विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा पत्रकारिता विभाग की जायज मागों को अनदेखा कर, एक व्यक्ति विशेष और उसके द्वारा संचालित आईपीएस संेटर का साथ देना घोर निन्दा का विषय है। यह और ही हास्यप्रद है कि उस व्यक्ति का पत्रकारिता विषय से कोई सरोकार नहीं है। यहां तक कि बीए- इन मीडिया स्टडीज यूजीसी के मानकों को ताक पर रखकर चलाया जा रहा है। प्रवेश परिक्षा में शामिल कुछ छात्रों ने बताया कि यह कोर्स यूजीसी की वेबसाइट पर नहीं है। फिर भी विश्वविद्यालय में संचालित होने के कारण इस कोर्स मंें प्रवेश लेना चाहते हैं।
पत्रकारिता विभाग के छात्र, शहर के बुद्धजीवियों, शिक्षकों, जनप्रतिनिधियों और छात्रों से पूछना चाहतें हैं कि क्या पैसा ही कोर्स में दाखिला पाने की मेरिट होनी चाहिए। यह भी पूंछा है कि विश्वविद्यालय प्रशासन सेल्फ फाइनेंस कोर्सों में प्रवेश का जो मानक अपना रहा है, उससे हमारे संविधान में उल्लिखित समानता और समाजवादी आदर्शों का क्या उल्लंघन नहीं है। बीए- इन मीडिया स्टडीज की प्रवेश परीक्षा में इतने कम छात्रों का बैठना, यह दर्शाता है कि आम छात्र की आय से यह शिक्षा पूरी तरह बाहर है। गुणवत्ता और वैधता पर अब तो प्रशासन को गंभीरता से सोचना चाहिए। प्रशासन को विश्वविद्यालय की शैक्षिक गरिमा के अनुकूल ही कोर्स और फीस रखनी चाहिए। पत्रकारिता के छात्रों ने विवि प्रशासन से अपील की है कि आन्दोलन को व्यक्तिगत विरोध से अलग हटकर इसे आम छात्रहित और विश्वविद्यालय हित में देखते हुए जल्द से जल्द कदम उठाए।
- समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
9721446201, 9793867715, 9455474188, 9416550280
छावनी में तब्दील रहा परीक्षा केन्द्र
इलाहाबाद 4 अक्टूबर 09 इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीए इन मीडिया कोर्स शुरु करने को लेकर पत्रकरिता विभाग के विद्यार्थियों द्वारा एक महीने से जारी विरोध के बावजूद आज विवि प्रशासन ने प्रवेश परीक्षा दंगा नियंत्रण वाहन की तैनाती में सम्पन्न करवाया। बीए- इन मीडिया स्टडीज की प्रवेश परीक्षा करवाने के लिए परीक्षा सेंटर परीक्षार्थियों से ज्यादा पुलिस वाले दिखे। पत्रकारिता विभाग के छात्रों ने इसका कड़ा विरोध किया है।
बीए इन मीडिया कोर्स में 30 सीटों के लिए 70 छात्रों ने आवेदन किया था। वहीं जब पत्रकारिता विभाग में सत्र 2007 में एम ए मास कम्युनिकेशन की प्रवेश परीक्षा में 30 सीटों के लिए 1000 परीक्षार्थी बैठे थे। जिसे पीजीएटी के वर्तमान निदेशक ने प्रेस विज्ञप्ति, अखबारों में भेजकर छपवाया था कि एक सीट पर सबसे ज्यादा परीक्षार्थी मास कम्युनिकेशन विषय में बैठे हैं। इससे साफ हो जाता है कि शिक्षा को महंगा कर देने से षिक्षा केवल समाज के अभिजात्य वर्ग की कठपुतली बनकर रह जायेगी। जब एक सीट के लिए केवल दो छात्र बैठे हों तो आइपीएस सेंटर की विश्वसनियता और गुणवत्ता दोनों पर प्रश्नचिन्ह लगता है।
पत्रकारिता विभाग के छात्र, विभाग के समानान्तर सेल्फ फाइनेंस बीए इन मीडिया स्टडीज के कदम को उच्च शिक्षा में आम छात्रों की पहुंच से दूर करने की कोशिश के साथ-साथ शुद्ध रूप से धनउगाही को बढ़ावा देने की पहल भी मानते है। यह और भी आश्चर्य की बात है कि विश्वविद्यालय को केंद्रीय दर्जा मिल जाने के बाद से तो धन का अम्बार लग गया है। विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा पत्रकारिता विभाग की जायज मागों को अनदेखा कर, एक व्यक्ति विशेष और उसके द्वारा संचालित आईपीएस संेटर का साथ देना घोर निन्दा का विषय है। यह और ही हास्यप्रद है कि उस व्यक्ति का पत्रकारिता विषय से कोई सरोकार नहीं है। यहां तक कि बीए- इन मीडिया स्टडीज यूजीसी के मानकों को ताक पर रखकर चलाया जा रहा है। प्रवेश परिक्षा में शामिल कुछ छात्रों ने बताया कि यह कोर्स यूजीसी की वेबसाइट पर नहीं है। फिर भी विश्वविद्यालय में संचालित होने के कारण इस कोर्स मंें प्रवेश लेना चाहते हैं।
पत्रकारिता विभाग के छात्र, शहर के बुद्धजीवियों, शिक्षकों, जनप्रतिनिधियों और छात्रों से पूछना चाहतें हैं कि क्या पैसा ही कोर्स में दाखिला पाने की मेरिट होनी चाहिए। यह भी पूंछा है कि विश्वविद्यालय प्रशासन सेल्फ फाइनेंस कोर्सों में प्रवेश का जो मानक अपना रहा है, उससे हमारे संविधान में उल्लिखित समानता और समाजवादी आदर्शों का क्या उल्लंघन नहीं है। बीए- इन मीडिया स्टडीज की प्रवेश परीक्षा में इतने कम छात्रों का बैठना, यह दर्शाता है कि आम छात्र की आय से यह शिक्षा पूरी तरह बाहर है। गुणवत्ता और वैधता पर अब तो प्रशासन को गंभीरता से सोचना चाहिए। प्रशासन को विश्वविद्यालय की शैक्षिक गरिमा के अनुकूल ही कोर्स और फीस रखनी चाहिए। पत्रकारिता के छात्रों ने विवि प्रशासन से अपील की है कि आन्दोलन को व्यक्तिगत विरोध से अलग हटकर इसे आम छात्रहित और विश्वविद्यालय हित में देखते हुए जल्द से जल्द कदम उठाए।
- समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
9721446201, 9793867715, 9455474188, 9416550280
2 अक्टू॰ 2009
सेल्फ फाइनेंस कोर्सां के नाम पर डकैती: मधु किश्वर
बढ़ते भ्रष्टाचार का कारण शिक्षा का व्यावसायीकरण
इलाहाबाद 2 अक्टूबर 09
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पत्रकरिता विभाग के विद्यार्थियों की तरफ से चलाए जा रहे आंदोलन के समर्थन में आज जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता एवं ‘संेटर फाॅर द स्टडी आॅफ डेवलपिंग सोसायटीज’ की प्रोफेसर मधु किश्वर भी आयीं। उन्होंने कहा कि सेल्फ फाइनेंस कोर्सां के नाम पर संस्थानों में सीधे-सीधे डाका डालने का काम किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय की हर दीवार भ्रष्टाचार की कहानी खुद ब खुद बयां कर रही है। वे पत्रकारिता विभाग के छात्रों द्वारा आयोजित व्याख्यानों की कड़ी में आज ‘उच्च शिक्षा में संकट’ विषयक व्याख्यान में बतौर मुख्य वक्ता उपस्थित थीं।
लोगों को सम्बोधित करते हुए प्रो मधु किश्वर ने कहा कि समाज में लगातार बढ़ते भ्रष्टाचार का एक बड़ा कारण शिक्षा के व्यापारीकरण की ही देन है। स्ववित्तपोषित संस्थाओं का सामाजिक सरोकारों से कोई वास्ता नहींे होता। ऐसे में इन संस्थाओं से पढ़कर निकले लोग समाजहित को ध्यान में न रखकर निजीहित को सर्वाेपरि रखते हैं। ऐसे में ये लोग और ये संस्थाएं समाज के लिए कितनी उपयोगी हैं, इसका निर्धारण समाज को ही करना होगा।
उन्होंने बताया कि जब वे कालेज मंे पढ़ा करती थीं तो उस दौर में किरण बेदी उन लोगों की आदर्श हुआ करती थीं और वे लोग उनके जैसा बनना चाहती थीं लेकिन शिक्षा के बाजारीकरण ने आज की नई पीढी को फैशन और माॅडलिंग की दुनियां में ही समेट दिया है। मिस इंडिया जैसे ब्यूटी कान्टेस्ट में शामिल होना ही उनका मुख्य ध्येय बन गया है। उन्होंने कहा कि गांधी जंयती के दिन छात्रों के इस आंदोलन को देखकर उन्हें यकीन हो गया कि गंाधी सिर्फ किताबों और तस्वीरों में ही कैद नहीं हैं बल्कि लोगों के अन्दर भी जिन्दा है।
इस दौरान जानी-मानी गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता मधु भटनागर और वरिष्ठ समाजसेवी काॅमरेड जियाउल हक ने भी लोगों को विचार व्यक्त किये और आन्दोलन के हर कदम पर साथ देने का भरोसा दिलाया। अपने अध्यक्षीय भाषण में जियाउल हक ने कहा कि जब तक विश्वविद्यालय में हो रहे गोरखधंधें को बेनकाब नहीं किया जाता तब तक आंदोलन जारी रहेगा। स्वागत पूर्व विभागाध्यक्ष सुनील उमराव ने किया।
गौरतलब है कि एक महीने पहले 3 सितम्बर के दिन पत्रकारिता विभाग द्वारा अपने विभाग के समानान्तर शुरु किये गये सेल्फ फाइनेंस कोर्स और शिक्षा के निजीकरण के विरोध में आंदोलन शुरु किया गया था। ठीक एक महीने बाद गांधी जयंती के दिन छात्रों ने एक बार फिर ये संकल्प लिया कि वे महात्मा गांधी के सिद्धातों और मूल्यों पर चलते हुए अपनी मांगों को पूरा होने तक आंदोलन को जारी रखेंगे।
समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
इलाहाबाद 2 अक्टूबर 09
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पत्रकरिता विभाग के विद्यार्थियों की तरफ से चलाए जा रहे आंदोलन के समर्थन में आज जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता एवं ‘संेटर फाॅर द स्टडी आॅफ डेवलपिंग सोसायटीज’ की प्रोफेसर मधु किश्वर भी आयीं। उन्होंने कहा कि सेल्फ फाइनेंस कोर्सां के नाम पर संस्थानों में सीधे-सीधे डाका डालने का काम किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय की हर दीवार भ्रष्टाचार की कहानी खुद ब खुद बयां कर रही है। वे पत्रकारिता विभाग के छात्रों द्वारा आयोजित व्याख्यानों की कड़ी में आज ‘उच्च शिक्षा में संकट’ विषयक व्याख्यान में बतौर मुख्य वक्ता उपस्थित थीं।
लोगों को सम्बोधित करते हुए प्रो मधु किश्वर ने कहा कि समाज में लगातार बढ़ते भ्रष्टाचार का एक बड़ा कारण शिक्षा के व्यापारीकरण की ही देन है। स्ववित्तपोषित संस्थाओं का सामाजिक सरोकारों से कोई वास्ता नहींे होता। ऐसे में इन संस्थाओं से पढ़कर निकले लोग समाजहित को ध्यान में न रखकर निजीहित को सर्वाेपरि रखते हैं। ऐसे में ये लोग और ये संस्थाएं समाज के लिए कितनी उपयोगी हैं, इसका निर्धारण समाज को ही करना होगा।
उन्होंने बताया कि जब वे कालेज मंे पढ़ा करती थीं तो उस दौर में किरण बेदी उन लोगों की आदर्श हुआ करती थीं और वे लोग उनके जैसा बनना चाहती थीं लेकिन शिक्षा के बाजारीकरण ने आज की नई पीढी को फैशन और माॅडलिंग की दुनियां में ही समेट दिया है। मिस इंडिया जैसे ब्यूटी कान्टेस्ट में शामिल होना ही उनका मुख्य ध्येय बन गया है। उन्होंने कहा कि गांधी जंयती के दिन छात्रों के इस आंदोलन को देखकर उन्हें यकीन हो गया कि गंाधी सिर्फ किताबों और तस्वीरों में ही कैद नहीं हैं बल्कि लोगों के अन्दर भी जिन्दा है।
इस दौरान जानी-मानी गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता मधु भटनागर और वरिष्ठ समाजसेवी काॅमरेड जियाउल हक ने भी लोगों को विचार व्यक्त किये और आन्दोलन के हर कदम पर साथ देने का भरोसा दिलाया। अपने अध्यक्षीय भाषण में जियाउल हक ने कहा कि जब तक विश्वविद्यालय में हो रहे गोरखधंधें को बेनकाब नहीं किया जाता तब तक आंदोलन जारी रहेगा। स्वागत पूर्व विभागाध्यक्ष सुनील उमराव ने किया।
गौरतलब है कि एक महीने पहले 3 सितम्बर के दिन पत्रकारिता विभाग द्वारा अपने विभाग के समानान्तर शुरु किये गये सेल्फ फाइनेंस कोर्स और शिक्षा के निजीकरण के विरोध में आंदोलन शुरु किया गया था। ठीक एक महीने बाद गांधी जयंती के दिन छात्रों ने एक बार फिर ये संकल्प लिया कि वे महात्मा गांधी के सिद्धातों और मूल्यों पर चलते हुए अपनी मांगों को पूरा होने तक आंदोलन को जारी रखेंगे।
समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
1 अक्टू॰ 2009
समाज विरोधी है बाजारु पत्रकारिता: प्रभाष जोशी
- पत्रकारिता विभाग के वि़द्यार्थियों के समर्थन में आये प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी
- सेल्फ फाइनेंस संस्थानों से निकले पत्रकार बनायेगें बाजारू समाज
इलाहाबाद 17 सितम्बर 09 इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के छात्रों द्वारा चलाए जा रहे शिक्षा के निजीकरण विरोधी आंदोलन के समर्थन में आज वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी भी पहुंचे। व्याख्यान में शहर के अन्य वरिष्ठ बुद्धिजीवियों ने भी शिक्षा के निजीकरण को गम्भीरता से लेते विश्वविद्यालय की इस नीति की घोर निन्दा की। ‘‘पत्रकारिता के बाजारीकरण और लोकतंत्र का भविष्य’’ विषय पर आयोजित व्याख्यान में मुख्य अतिथि श्री जोशी ने कहा-पत्रकारिता वो तलवार है जो देश के तीन स्तम्भों के ऊपर जनता का प्रतिनिधि बनकर निगरानी करने का काम करती है। उन्होंने कहा कि यह सरकारों की नीति है कि जब पत्रकारिता को भी बाजारु बना दिया जायेगा तो स्वतः ही सरकार के तीनों स्तम्भों पर निगरानी करने वाली पत्रकारिता का अंत हो जायेगा।
उन्होंने आगे कहा कि ऐसे स्ववित्तपोषित पत्रकारिता संस्थाओं से पढ़-लिख कर निकलने वाला पत्रकार या तो बाजारू समाज का निर्माण करेगा या तानाशाह समाज का। उन्होंने वर्तमान पत्रकारिता जगत की स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा कि आज की बाजारू पत्रकारिता का सरोकार जनमानस का हितैषी न होकर अखबार के प्राॅफिट के लिए हो गया है। सबसे बड़ी ताज्जुब की बात हो यह है कि श्री प्रभाष ने मंच से स्वीकार किया कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने जब से उनके आने की खबर सुनी है तब से अबतक ढेर सारे कागजात फैक्स और इंटरनेट के माध्यम से भेजकर इस आंदोलन में न आने की अपील की। उनने यहां तक बताया कि उन पत्रों में लिखा गया था कि पत्रकारिता विभाग के छात्रों द्वारा जो आंदोलन चलाया जा रहा है वह गलत है। उसके बहाने कुछ लोग राजनीति करने का काम कर रहे हैंै।
जोशी ने पत्रकारिता विभाग छात्रों के आंदोलन को समर्थन करते हुए कहा, ‘‘आपके इस संघर्ष में, मैं हर कदम पर आपके साथ हूं और अगर इस लड़ाई में कभी ऐसी हालत आये कि आपको सर कटाना पड,़े तो मुझे आवाज देना, सबसे पहले सर कटाने वाला ये प्रभाष जोशी होगा।‘‘
इसके पहले उन्होंने सामाजिक लड़़ाई और जन सरोकार सम्बंधी सवालो को उठाने के लिए पत्रकारिता विभाग के विद्यार्थियों की ओर से विभाग के सामने विकसित किये गये स्थल ‘खबरचैरा’ का लोकार्पण काॅमरेड जियाउल हक के साथ मिलकर किया। व्याख्यान में पूर्व न्यायाधीश राम भूषण मेहरोत्रा, साहित्यकार एवं हाईकोर्ट के वकील गुरू प्रसाद मदन, काॅमरेड जियाउल हक, श्री बल्लभ, पीयूसीएल के प्रदेश सचिव केके राय सहित शहर के तमाम बुद्धिजीवी उपस्थित हुए।
- समस्त छात्र
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
- सेल्फ फाइनेंस संस्थानों से निकले पत्रकार बनायेगें बाजारू समाज
इलाहाबाद 17 सितम्बर 09 इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के छात्रों द्वारा चलाए जा रहे शिक्षा के निजीकरण विरोधी आंदोलन के समर्थन में आज वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी भी पहुंचे। व्याख्यान में शहर के अन्य वरिष्ठ बुद्धिजीवियों ने भी शिक्षा के निजीकरण को गम्भीरता से लेते विश्वविद्यालय की इस नीति की घोर निन्दा की। ‘‘पत्रकारिता के बाजारीकरण और लोकतंत्र का भविष्य’’ विषय पर आयोजित व्याख्यान में मुख्य अतिथि श्री जोशी ने कहा-पत्रकारिता वो तलवार है जो देश के तीन स्तम्भों के ऊपर जनता का प्रतिनिधि बनकर निगरानी करने का काम करती है। उन्होंने कहा कि यह सरकारों की नीति है कि जब पत्रकारिता को भी बाजारु बना दिया जायेगा तो स्वतः ही सरकार के तीनों स्तम्भों पर निगरानी करने वाली पत्रकारिता का अंत हो जायेगा।
उन्होंने आगे कहा कि ऐसे स्ववित्तपोषित पत्रकारिता संस्थाओं से पढ़-लिख कर निकलने वाला पत्रकार या तो बाजारू समाज का निर्माण करेगा या तानाशाह समाज का। उन्होंने वर्तमान पत्रकारिता जगत की स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा कि आज की बाजारू पत्रकारिता का सरोकार जनमानस का हितैषी न होकर अखबार के प्राॅफिट के लिए हो गया है। सबसे बड़ी ताज्जुब की बात हो यह है कि श्री प्रभाष ने मंच से स्वीकार किया कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने जब से उनके आने की खबर सुनी है तब से अबतक ढेर सारे कागजात फैक्स और इंटरनेट के माध्यम से भेजकर इस आंदोलन में न आने की अपील की। उनने यहां तक बताया कि उन पत्रों में लिखा गया था कि पत्रकारिता विभाग के छात्रों द्वारा जो आंदोलन चलाया जा रहा है वह गलत है। उसके बहाने कुछ लोग राजनीति करने का काम कर रहे हैंै।
जोशी ने पत्रकारिता विभाग छात्रों के आंदोलन को समर्थन करते हुए कहा, ‘‘आपके इस संघर्ष में, मैं हर कदम पर आपके साथ हूं और अगर इस लड़ाई में कभी ऐसी हालत आये कि आपको सर कटाना पड,़े तो मुझे आवाज देना, सबसे पहले सर कटाने वाला ये प्रभाष जोशी होगा।‘‘
इसके पहले उन्होंने सामाजिक लड़़ाई और जन सरोकार सम्बंधी सवालो को उठाने के लिए पत्रकारिता विभाग के विद्यार्थियों की ओर से विभाग के सामने विकसित किये गये स्थल ‘खबरचैरा’ का लोकार्पण काॅमरेड जियाउल हक के साथ मिलकर किया। व्याख्यान में पूर्व न्यायाधीश राम भूषण मेहरोत्रा, साहित्यकार एवं हाईकोर्ट के वकील गुरू प्रसाद मदन, काॅमरेड जियाउल हक, श्री बल्लभ, पीयूसीएल के प्रदेश सचिव केके राय सहित शहर के तमाम बुद्धिजीवी उपस्थित हुए।
- समस्त छात्र
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
28 सित॰ 2009
Against Privatization of Education Agenda
The perinial debate in the Mecca of capitalism - that of efficiency versus equality - is exemplified by the Conservatives and Liberals.
In a book he wrote 50 years ago, The Affluent Society, JK Galbraith traced the development of economic theory where he argued for a shift of investment to services from production to guard agaist cyclic depressions that bedevil the developed world.
He did differenciate in investments in services like travel, tourism and restaurants from investments in schools and hospitals in the services sector, because of the nature of decline in spending that accompnaies a decline in production. Spending on education would continue and therefore take the edge off a depression in times of reduced demand while spending on other services like travel and eating out would reduce. That is because in times of increasing unemployment, it is the younger lot of workers who get thrown out, while the senior workers will continue to finance the education of their children. In India, students themselves do not yet finance their own education in apprciable numbers by taking time out to work or taking educational loans that would be affected in a downturn.
The Allahabed University apparently is not going to commit public funds on infracture. That is already there. It intends to introduce more saleable courses in Media studies, which has a huge market. At the same time there is unutized capacity.
This infringes on the question of inflation, according to Galbraith. At full capacity or close to capacity, in the face of more demand, there is a pressure on prices to rise. This is what is happening. At the time Galbraith wrote, (investment in) education was apparently classified as a consumption good. From the economic point of view this has to be seen as a problem of inflation. The Allahabad debate is whether education is a market commodity. We need to broaden the scope of the debate. Will the proposed measure enhance Indian capabilities? Will it lead to increased economic security and well being? Do we agree that increased employment is increased security? Will the increased spending power be inflationery?
The debate is also about effeciency and equality.
In a book he wrote 50 years ago, The Affluent Society, JK Galbraith traced the development of economic theory where he argued for a shift of investment to services from production to guard agaist cyclic depressions that bedevil the developed world.
He did differenciate in investments in services like travel, tourism and restaurants from investments in schools and hospitals in the services sector, because of the nature of decline in spending that accompnaies a decline in production. Spending on education would continue and therefore take the edge off a depression in times of reduced demand while spending on other services like travel and eating out would reduce. That is because in times of increasing unemployment, it is the younger lot of workers who get thrown out, while the senior workers will continue to finance the education of their children. In India, students themselves do not yet finance their own education in apprciable numbers by taking time out to work or taking educational loans that would be affected in a downturn.
The Allahabed University apparently is not going to commit public funds on infracture. That is already there. It intends to introduce more saleable courses in Media studies, which has a huge market. At the same time there is unutized capacity.
This infringes on the question of inflation, according to Galbraith. At full capacity or close to capacity, in the face of more demand, there is a pressure on prices to rise. This is what is happening. At the time Galbraith wrote, (investment in) education was apparently classified as a consumption good. From the economic point of view this has to be seen as a problem of inflation. The Allahabad debate is whether education is a market commodity. We need to broaden the scope of the debate. Will the proposed measure enhance Indian capabilities? Will it lead to increased economic security and well being? Do we agree that increased employment is increased security? Will the increased spending power be inflationery?
The debate is also about effeciency and equality.
27 सित॰ 2009
निजीकरण विरोधी आन्दोलन - कारवां पहुंचा दिल्ली
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के समानान्तर स्ववित्तपोषित कोर्स और शिक्षा के निजीकरण विरोधी आंदोलन का कारवां अब दिल्ली पहुँच गया है. आन्दोलन को राष्ट्रिय स्वरुप देने और उच्च स्तर तक अपनी बात पहुँचने के लिए पत्रकारिता विभाग के छात्र अपने गुरु सुनील उमराव के साथ दिल्ली में विभिन्न राजनीतिक-सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों से मुलाकात कर रहे है. छात्र जंतर-मंतर पर भी अपनी आवाज बुलंद करेंगे.
विश्वविद्यालय का यह कदम 80 फीसदी जनता के साथ अन्याय: जनेश्वर मिश्र
नई दिल्ली, 27 सितम्बर. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के समानान्तर स्ववित्तपोषित कोर्स और शिक्षा के निजीकरण विरोधी आंदोलन को आगे बढ़ाते हुए छात्रों ने आज दिल्ली में मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय के उच्च अधिकारियों से मिलकर अपनी समस्याओं से अवगत कराया। छात्रों के प्रतिनिधि मंडल का कल 10 बजे मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल से उनके आवास पर इस विषय पर विस्तार से बातचीत करना तय हुआ है। इसी कड़ी में छात्रों का प्रतिनिधि मंडल जाने-माने लोहियावादी विचारक जनेश्वर मिश्र से मिलकर विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा लागू की जा रही आमजन विरोधी शिक्षानीति के बारे में बताया।
छात्रों से बातचीत करने के बाद जनेश्वर मिश्र ने कहा कि विश्वविद्याल प्रशासन द्वारा ऐसा कदम उठाना 80 फीसदी जनता को शिक्षा से वंचित करना है। छात्रों की मांगो को जायज ठहराते हुए उन्होंने प्रतिनिधि मंडल को आश्वासन दिया कि वे इस मुद्दे को सरकार के समक्ष रखेंगें और विभिन्न मंचों पर छात्रों की आवाज को ले जायेंगे।
गौरतलब है कि पत्रकारिता विभाग के छात्रों का 30 सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल आया हुआ है जहां पर वह अगले तीन दिनों तक दिल्ली में रहकर विभिन्न मंत्रियों, नेताओं और बुद्धिजीवियों से मिलकर उनके समक्ष विश्वविद्यायल में हो रहे गोरखधंधे का कच्चा चिठ्ठा खोलेंगे।
समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
09721446201, 0989646767
विश्वविद्यालय का यह कदम 80 फीसदी जनता के साथ अन्याय: जनेश्वर मिश्र
नई दिल्ली, 27 सितम्बर. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के समानान्तर स्ववित्तपोषित कोर्स और शिक्षा के निजीकरण विरोधी आंदोलन को आगे बढ़ाते हुए छात्रों ने आज दिल्ली में मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय के उच्च अधिकारियों से मिलकर अपनी समस्याओं से अवगत कराया। छात्रों के प्रतिनिधि मंडल का कल 10 बजे मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल से उनके आवास पर इस विषय पर विस्तार से बातचीत करना तय हुआ है। इसी कड़ी में छात्रों का प्रतिनिधि मंडल जाने-माने लोहियावादी विचारक जनेश्वर मिश्र से मिलकर विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा लागू की जा रही आमजन विरोधी शिक्षानीति के बारे में बताया।
छात्रों से बातचीत करने के बाद जनेश्वर मिश्र ने कहा कि विश्वविद्याल प्रशासन द्वारा ऐसा कदम उठाना 80 फीसदी जनता को शिक्षा से वंचित करना है। छात्रों की मांगो को जायज ठहराते हुए उन्होंने प्रतिनिधि मंडल को आश्वासन दिया कि वे इस मुद्दे को सरकार के समक्ष रखेंगें और विभिन्न मंचों पर छात्रों की आवाज को ले जायेंगे।
गौरतलब है कि पत्रकारिता विभाग के छात्रों का 30 सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल आया हुआ है जहां पर वह अगले तीन दिनों तक दिल्ली में रहकर विभिन्न मंत्रियों, नेताओं और बुद्धिजीवियों से मिलकर उनके समक्ष विश्वविद्यायल में हो रहे गोरखधंधे का कच्चा चिठ्ठा खोलेंगे।
समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
09721446201, 0989646767
25 सित॰ 2009
राहुल गांधी के नाम खुला पत्र
राहुल भाई,
हमारा दर्द उस कलावती जैसा तो नहीं है जिसे आपकी महज एक पहल ने देश दुनिया को विदर्भ की परेशानियों से वाकिफ करा दिया था. लेकिन पिछले पंद्रह दिनों से इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में डिग्री की बिक्री के खिलाफ हम कैंपस से लेकर सड़कों पर जो लड़ाई लड़ रहे उसका ताल्लुक देश की तमाम कलावतियों से है. हम इलाहाबाद यूनिवर्सिर्टी में जर्नलिज्म डिपार्टमेंट के स्टूडेंट हैं और शिक्षा के निजीकरण के नाम पर कैसे कुछ लोग महज अपने फायदे के लिए इसे गरीबों से छीन कर बहुत महंगे दामों में मुहैया कराना चाहते हैं ताकि इससे उनकी जेबे भरती रही. राहुल हम इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के जर्नलिज्म विभाग के छात्र जो लड़ाई लड़ रहे हैं,वह देश के हर कोने में रहने वाली कलावतियों के बच्चों के समर्थन की लड़ाई है ताकि पूरब के इस आक्सफोर्ड में उन गरीबों की आमद बनी रही जिनकी बात हमने तमाम मंचों से आपके मुंह से बहुत संजीदगी से सुनी है. राहुल हम पत्रकारिता विभाग के छात्रों का आंदोलन तमाम कलावतियों के दर्द के साथ साथ उस पैसे को बीच में ही गुम कर दिए जाने के खिलाफ भी है जिसे सरकार तमाम योजनाओं और ग्रांटों के जरिए भेजती है. हां, हमारी लड़ाई उच्च शिक्षा के उस भ्रष्टाचार के खिलाफ भी है जिसमें कभी छात्रों के हिस्से की किताबों में घपला किया जाता है तो कभी यूनिवर्सिटी के अकादमिक माहौल को पलीता लगाकर डिग्रियां बेचने की दुकानें खोली जाती हैं.
सेल्फ फाइनेंस के नाम पर खोली जा रही इन दुकानों में पैसा ही एकमात्र मेरिट है. संसाधनों की कमी के नाम पर खोली जा रही ये डिग्री बेचने के केंद्र दरअसल कुछ लोगों की जेबें भरने के ही काम आती हैं. यूनिवर्सिटी के पास अपना पच्चीस साल पुराना जर्नलिज्म डिपार्टमेंट है जिसे शायद इसलिए बनाया गया था कि हम नौजवानों की एक ऐसी जमात पैदा कर सकें जो पत्रकारिता की जनपक्षधरता में यकीन करती हो. संसाधनों की कमी के बहाने शिक्षा के मकसद को नहीं बदला जा सकता. पत्रकारिता शिक्षा का मकसद कम से कम देश भर की कलावतियों के मुद्दे को सामने लाने का ही होना चाहिए. लेकिन राहुल यूनवर्सिटिज में ऐकडमिक काउंसिल से लेकर एक्सिक्यूटिव काउंसिल तक डिग्री बेचने की ऐसी दुकानों को प्रोत्साहित कर रही हैं जो सेल्फ फाइनेंस के नाम पर ऐसे कोर्स खोल रही हैं जो यूनिवर्सिटी सिस्टम के कुछ घाघ लोगों के लिए मनी मेकिंग मशीन हो गए हैं. राहुल इलाहाबाद केंद्रीय यूनिवर्सिटी है इसके लिए लंबी चैड़ी गा्रंट आती है. जिसका बहुत बड़ा हिस्सा बिना इस्तेमाल के ही वापस लौट जाता है. लेकिन फिर भी पत्रकार बनाने के लिए एक लाख बीस हजार रूपए वाली दुकानें खोली जा रही हैं. प्रोफेशनल स्टडीज के नाम पर स्टूडेंट्स से मनमाना फीस ली जा रही है. कहा जाता है कि ये प्रोग्राम्र्स आिर्थक रूप से आत्म निर्भर हैं लेकिन यूनिवर्सिटी के लिए आई ग्रांट का तमाम हिस्सा डिग्री की दुकानों को बांट दिया जाता है. अफसोस है लेकिन फिर भी कहना पड़ रहा है कि इसमें वीसी, एकेडमिक काउंसिल और एक्सिक्यूटिव काउंसिल तक नजरें चुराते हैं. राहुल भाई, शिक्षा के निजीकरण के नाम पर खेले जा रहे इस गंदे खेल में कलावती के बेटे बेटियों को कैंपस से वंचित कर देने की साजिश तो है ही साथ ही उस पैसे के रास्ते में ही गायब हो जाने की कहानी भी है जो समाज के निचले तबके के लिए हमारी सरकारें देती हैं. राहुल आप खबरें पढते होंगे कि हमारी यूनिवर्सिटयों के अकादमिक मुखियाओं के खिलाफ भ्रष्टाचार की तमाम जांच पड़तालें चलती रहती हैं. लेकिन फिर भी उच्च शिक्षा के भ्रष्टाचार पर कड़े कदम नहीं उठाए जा रहे हैं़
राहुल, हम लोग इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता विभाग के समांतर मीडिया स्टडीज के नाम पर खोले जा रहे उस कोर्स का विरोध कर रहे हैं जो पत्रकारिता की डिग्री को इतनी महंगी बना देना चाहते हैं कि बस पत्रकार पैसे वाले ही बन सके. राहुल ऐसा तब किया जा रहा है कि यूनिवर्सिटी में पच्चीस साल पुराना पत्रकारिता विभाग है फिर भी मीडिया स्टडीज के इस कोर्स को इंस्टीट्यूट आॅफ प्रोफेशनल स्टडीज तहत खोला जा रहा है. यूनिवर्सिटी के पास प्रचुर मात्रा में संसाधन हैं फिर भी इस डिपार्टमेंट को न तो पर्याप्त ग्रांट दी जाती है, न ही कोई प्रोत्साहन. इसके अलावा मीडिया स्टडीज और यूनिवर्सिटी में चल रहे जर्नलिज्म पढाने के तमाम ऐसे कोर्स है जिसमें पर्याप्त योग्यता रखने वाले टीचर्स भी नहीं हैं. तमाम गेस्ट लेक्चर देने वाले लोग सिर्फ कोर्स संचालकों के पसंदीदा हैं. इस बात का ख्याल न एकेडमिक काउंसिल में रखा जाता है न एक्सक्यूटिव काउंसिल में. राहुल आप बदलाव की बात करते हैं, हर आदमी को काम,हर आदमी को शिक्षा की बात करते हैं. राहुल शिक्षा और शिक्षा के निजीकरण के नाम पर चल रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाना जरूरी है. लडाई बहुत बड़ी है, हम इस लड़ाई का छोटा सा हिस्सा हैं जिसमें हमें आपके समर्थन की जरूरत है. राहुल हमें उम्मीद है कि आप जन सरोकारों की इस लड़ाई में हमारा साथ देंगे.
-आपके समर्थन के आकांक्षी
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के छात्र
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, इलाहाबाद
हमारा दर्द उस कलावती जैसा तो नहीं है जिसे आपकी महज एक पहल ने देश दुनिया को विदर्भ की परेशानियों से वाकिफ करा दिया था. लेकिन पिछले पंद्रह दिनों से इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में डिग्री की बिक्री के खिलाफ हम कैंपस से लेकर सड़कों पर जो लड़ाई लड़ रहे उसका ताल्लुक देश की तमाम कलावतियों से है. हम इलाहाबाद यूनिवर्सिर्टी में जर्नलिज्म डिपार्टमेंट के स्टूडेंट हैं और शिक्षा के निजीकरण के नाम पर कैसे कुछ लोग महज अपने फायदे के लिए इसे गरीबों से छीन कर बहुत महंगे दामों में मुहैया कराना चाहते हैं ताकि इससे उनकी जेबे भरती रही. राहुल हम इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के जर्नलिज्म विभाग के छात्र जो लड़ाई लड़ रहे हैं,वह देश के हर कोने में रहने वाली कलावतियों के बच्चों के समर्थन की लड़ाई है ताकि पूरब के इस आक्सफोर्ड में उन गरीबों की आमद बनी रही जिनकी बात हमने तमाम मंचों से आपके मुंह से बहुत संजीदगी से सुनी है. राहुल हम पत्रकारिता विभाग के छात्रों का आंदोलन तमाम कलावतियों के दर्द के साथ साथ उस पैसे को बीच में ही गुम कर दिए जाने के खिलाफ भी है जिसे सरकार तमाम योजनाओं और ग्रांटों के जरिए भेजती है. हां, हमारी लड़ाई उच्च शिक्षा के उस भ्रष्टाचार के खिलाफ भी है जिसमें कभी छात्रों के हिस्से की किताबों में घपला किया जाता है तो कभी यूनिवर्सिटी के अकादमिक माहौल को पलीता लगाकर डिग्रियां बेचने की दुकानें खोली जाती हैं.
सेल्फ फाइनेंस के नाम पर खोली जा रही इन दुकानों में पैसा ही एकमात्र मेरिट है. संसाधनों की कमी के नाम पर खोली जा रही ये डिग्री बेचने के केंद्र दरअसल कुछ लोगों की जेबें भरने के ही काम आती हैं. यूनिवर्सिटी के पास अपना पच्चीस साल पुराना जर्नलिज्म डिपार्टमेंट है जिसे शायद इसलिए बनाया गया था कि हम नौजवानों की एक ऐसी जमात पैदा कर सकें जो पत्रकारिता की जनपक्षधरता में यकीन करती हो. संसाधनों की कमी के बहाने शिक्षा के मकसद को नहीं बदला जा सकता. पत्रकारिता शिक्षा का मकसद कम से कम देश भर की कलावतियों के मुद्दे को सामने लाने का ही होना चाहिए. लेकिन राहुल यूनवर्सिटिज में ऐकडमिक काउंसिल से लेकर एक्सिक्यूटिव काउंसिल तक डिग्री बेचने की ऐसी दुकानों को प्रोत्साहित कर रही हैं जो सेल्फ फाइनेंस के नाम पर ऐसे कोर्स खोल रही हैं जो यूनिवर्सिटी सिस्टम के कुछ घाघ लोगों के लिए मनी मेकिंग मशीन हो गए हैं. राहुल इलाहाबाद केंद्रीय यूनिवर्सिटी है इसके लिए लंबी चैड़ी गा्रंट आती है. जिसका बहुत बड़ा हिस्सा बिना इस्तेमाल के ही वापस लौट जाता है. लेकिन फिर भी पत्रकार बनाने के लिए एक लाख बीस हजार रूपए वाली दुकानें खोली जा रही हैं. प्रोफेशनल स्टडीज के नाम पर स्टूडेंट्स से मनमाना फीस ली जा रही है. कहा जाता है कि ये प्रोग्राम्र्स आिर्थक रूप से आत्म निर्भर हैं लेकिन यूनिवर्सिटी के लिए आई ग्रांट का तमाम हिस्सा डिग्री की दुकानों को बांट दिया जाता है. अफसोस है लेकिन फिर भी कहना पड़ रहा है कि इसमें वीसी, एकेडमिक काउंसिल और एक्सिक्यूटिव काउंसिल तक नजरें चुराते हैं. राहुल भाई, शिक्षा के निजीकरण के नाम पर खेले जा रहे इस गंदे खेल में कलावती के बेटे बेटियों को कैंपस से वंचित कर देने की साजिश तो है ही साथ ही उस पैसे के रास्ते में ही गायब हो जाने की कहानी भी है जो समाज के निचले तबके के लिए हमारी सरकारें देती हैं. राहुल आप खबरें पढते होंगे कि हमारी यूनिवर्सिटयों के अकादमिक मुखियाओं के खिलाफ भ्रष्टाचार की तमाम जांच पड़तालें चलती रहती हैं. लेकिन फिर भी उच्च शिक्षा के भ्रष्टाचार पर कड़े कदम नहीं उठाए जा रहे हैं़
राहुल, हम लोग इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता विभाग के समांतर मीडिया स्टडीज के नाम पर खोले जा रहे उस कोर्स का विरोध कर रहे हैं जो पत्रकारिता की डिग्री को इतनी महंगी बना देना चाहते हैं कि बस पत्रकार पैसे वाले ही बन सके. राहुल ऐसा तब किया जा रहा है कि यूनिवर्सिटी में पच्चीस साल पुराना पत्रकारिता विभाग है फिर भी मीडिया स्टडीज के इस कोर्स को इंस्टीट्यूट आॅफ प्रोफेशनल स्टडीज तहत खोला जा रहा है. यूनिवर्सिटी के पास प्रचुर मात्रा में संसाधन हैं फिर भी इस डिपार्टमेंट को न तो पर्याप्त ग्रांट दी जाती है, न ही कोई प्रोत्साहन. इसके अलावा मीडिया स्टडीज और यूनिवर्सिटी में चल रहे जर्नलिज्म पढाने के तमाम ऐसे कोर्स है जिसमें पर्याप्त योग्यता रखने वाले टीचर्स भी नहीं हैं. तमाम गेस्ट लेक्चर देने वाले लोग सिर्फ कोर्स संचालकों के पसंदीदा हैं. इस बात का ख्याल न एकेडमिक काउंसिल में रखा जाता है न एक्सक्यूटिव काउंसिल में. राहुल आप बदलाव की बात करते हैं, हर आदमी को काम,हर आदमी को शिक्षा की बात करते हैं. राहुल शिक्षा और शिक्षा के निजीकरण के नाम पर चल रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाना जरूरी है. लडाई बहुत बड़ी है, हम इस लड़ाई का छोटा सा हिस्सा हैं जिसमें हमें आपके समर्थन की जरूरत है. राहुल हमें उम्मीद है कि आप जन सरोकारों की इस लड़ाई में हमारा साथ देंगे.
-आपके समर्थन के आकांक्षी
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के छात्र
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, इलाहाबाद
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