हाल ही में ‘‘इन्स्टीट्यूट आॅफ प्रोफेशनल स्टडीज’’ के अंतर्गत शुरू किए गए स्ववित्तपोषित बीए इन मीडिया स्टडीज कोर्स का जब हम लोगों ने सैद्धान्तिक विरोध किया तो हमारे विरोध का विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा यह कहकर दुष्प्रचार किया गया कि हम ‘गुणवत्ता वाली पढ़ाई’ का विरोध कर रहे हैं, जबकि पिछले पांच सालों से वहां पर चल रहे फोटो जर्नलिज्म एण्ड विजुअल कम्यूनिकेशन के डिप्लोमा कोर्स की पढ़ाई के नाम पर जो कुछ हो रहा है, वह न तो यूजीसी के मानकों के तहत है और न ही उसका पत्रकारिता के वास्तविक स्वरूप से कोई लेना देना है। वहां चल रहे इस कोर्स का एक बड़ा उद्देश्य उसे चलाने वालों के निजी हितों को साधना और उसके माध्यम से मीडिया में अपने कुछ ऐसे हित साधकों को तैयार करना है जो उनके तमाम काले कारनामों को छुपाने के लिए मीडिया को अपने हिसाब से व्यवस्थित कर सके। यह कुछ वैसा ही है जैसे कोई जमाखोर अपने गोरखधंधों को छुपाने और पुलिस-प्रशासन को साधने के लिए अखबार निकालता है। आईपीएस का यह केन्द्र भी अपनी स्थापना के साथ ही कुछ ऐसे ही लोगों का मुखपत्र बना हुआ है।
हमारे विभाग द्वारा कुलपति को पत्र लिखकर जब डिप्लोमा कोर्स संचालित करने वाले इस केन्द्र को और व्यापक बनाने की प्रक्रिया के तहत शुरू किये जा रहे बीए इन मीडिया स्टडीज के डिग्री कोर्स का विरोध किया गया, तो इसे चलाने वालों ने हमारे विरोध को दबाने में साम, दाम, दण्ड, भेद के तहत अपनी पूरी ताकत झोंक दी। आईपीएस द्वारा संचालित इस कोर्स के फार्म बिकवाने के लिए माननीय कुलपति महोदय् न केवल खुद वहां पहुंचे बल्कि पुलिस से लदे दो वज्र वाहन भी अपने साथ लेते गये। इससे पहले कुलपति ने ही बिना कार्यकारिणी परिषद से पास हुए इस कोर्स को अपनी विशेष अनुमति देकर शुरु करवाया था। शायद यह विश्वविद्यालय के इतिहास का पहला मौका था, जब कुलपति खुद किसी कोर्स का फार्म बिकवाने पहुंचे थे। कुलपति कहते हैं कि वह "न्यायप्रिय और सहृृदय" हैं लेकिन जो कुलपति अपने चार साल के कार्यकाल में 25 सालों से चल रहे पत्रकारिता विभाग में एक बार भी पैर नहीं रखता है, जो विभाग में संसाधनों और पद सृजन की मांग पर केवल आश्वासन ही देता रहा है, इससे उनकी न्यायप्रियता और सहृदयता साफ पता चलती है। पत्रकारिता विभाग को अपनी हर जरुरत की मांग पर सिर्फ आश्वासन ही मिला क्योंकि यहां के लोग कुलपति की आव भगत नहीं करते।
बीए इन मीडिया स्टडीज का बड़े-बड़े अखबारों में विज्ञापन देकर, ब्राशर में पत्रकार राहुल देव, सिक्ता देव, शीतल राजपूत आदि की फोटो लगाकर भी, 30 सीटों के लिए वे महज 60 फार्म ही बेच पाये। इनमें से कितने इज्जत बचाने के लिए बैठाये गये प्रायोजित अभ्यर्थी थे, यह एक अलग जांच का विषय है। अखबारों में एससी, एसटी, ओबीसी आरक्षण पर हमारे द्वारा उठाये गये सवालों के बाद सीटों को आरक्षित करने और फीस को कम करने के लिए उन्हें मजबूर होना पड़ा लेकिन इसके बाद भी उनकी गुणवत्ता युक्त और प्रोफेशनल तैयार करने का दावा करने वाली पढ़ाई मात्र 60 छात्रों को ही अपनी ओर खींच पायी, जबकि वहीं दो साल पहले पत्रकारिता विभाग के पहले सत्र में एमए मास कम्युनिकेशन की 30 सीटों के लिए 1,000 से भी अधिक छात्र बैठे थे, जो कि किसी अन्य विभाग के सापेक्ष औसतन प्रति सीट सबसे ज्यादा थे। लेकिन फिर भी बीए इन मीडिया स्टडीज की प्रवेश परीक्षा में शामिल हुए उन 60 परीक्षार्थियों के महत्व को दिखाने के लिए, मुश्किल से मिले उन चंद अभिजात्य कुलदीपकों, जो डेढ लाख की फर्जी डिग्री खरीदने को तैयार थे, की सुरक्षा को खतरा बताते हुए कुलपति ने न केवल परीक्षा कंेद्र को संगीनों के साये में कैद कर दिया बल्कि इस बहाने 60 पुलिस वालों की भी सुबह सें शाम तक लम्बी परेड और भारी उठापटक कराई।
केन्द्रीय बनने के बाद से विश्वविद्यालय द्वारा बनाई गयी नीतियों से ये साफ जाहिर होता है कि वे नीतियां विश्वविद्यालय प्रशासन के कुछ विशेष कृपापात्र लोगों के निजी हितों की ही पूर्ति करती हैं। 2005 में विश्वविद्यालय के केन्द्रीय होने के बाद से अगर विश्वविद्यालय की वार्षिक रिपोर्ट देखें तो उसमे हर जगह रजिस्ट्रार एवं कुलपति की फोटो के बाद सिर्फ आईपीएस के केंद्रो की ही फोटो मिलेगी। बाकी सारे विभाग नदारद हैं। विश्वविद्यालय प्रशासन पूरी तरह उनकी पकड़ में है और यहां वही हो रहा है जो वे चाहते हैं। तमाम विरोधों के बावजूद बीए मीडिया स्टडीज को शुरु करने की जिद इस बात की पुष्टि करता है।
आईपीएस की पत्रकारिता की दुकान पूरी तरह झूठे आश्वासनों और मायावी तिलिस्म पर टिकी है। 60 बच्चों को प्लेसमेंट का झूठा आश्वासन देकर प्रवेश कराया जाता है। दुकान को चमकाने के लिए कभी-कभार टेलीविजन के चमकीलें चेहरों को बुलाकर, अखबारों में छपकर अगले साल के लिए छात्रों को फांसने की तैयारी भी चलती रहती है। यूजीसी मानकों से कोसों दूर अपने मन के मास्टरों से पढ़़़वाया जाता है और यहां तक कि डिग्रियां भी यूजीसी मानकों से अलग दी जाती हैं। बीए इन मीडिया स्टडीज यूजीसी की मानक डिग्री नहीं है। सामान्य बीए कहीं भी सिर्फ एक विषय से नहीं होता। फिर बीए इन मीडिया स्टडीज कैसे शुरु कर दिया गया ? मीडिया स्टडीज मीडिया का आलोचनात्मक और बहुआयामी अध्ययन होता है न कि पेशेवर तैयार करने का कोई कोर्स, लेकिन अपनी दुकान चलाने और चमकाने की हवस में इन्होंने यह भी नहीं देखा कि वो क्या पढ़ा रहे हैं और उसका नाम क्या रख रहे हैं। मास कम्यूनिकेशन और मीडिया स्टडीज को अलग-अलग बताने वाले कुलपति महोदय आखिर इस बात पर क्यों तैयार नहीं होते कि देश के मीडिया विशेषज्ञों और मीडिया से सम्बंधित वरिष्ठ शिक्षाविदों की एक कमेटी बनाई जाय जो इस बात का निर्धारण करे कि क्या मीडिया स्टडीज और मास कम्युनिकेशन दो अलग-अलग विषय हैं ?
मीडिया स्टडीज और मास कम्युनिकेशन का सेलेबस पूरी तरह समान है। ऐकेडमिक कांउसिल से पास होने की दुहाई देने वाले प्रशासन को एक बार उस काउंसिल के सभी सदस्यों से पूछ तो लेना चाहिये कि क्या उन्होंने आईपीएस के एजेण्डे को पढ़ा था और क्या वह यह जानते थे कि विश्वविद्यालय में एक पत्रकारिता विभाग पहले से है। पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष को छोड़कर, जो संयोग से कला संकाय के डीन भी हैं, क्योंकि उन्होंने तो कभी विभाग की विजिट ही नहीं की। फिर ऐकेडमिक काउंसिल में बीए मीडिया स्टडीज पर कितने मिनट चर्चा हुई और किसने क्या बात कही यह भी तो सब को बताया जाना चाहिये।
आठ साल पहले विश्वविद्यालय में संसाधन जुटाने के नाम पर शुरु किया गया ‘इंस्टीट्यूट आॅफ प्रोफेशनल स्टडीज’ आज विश्वविद्यालय से ही संसाधनों के नाम पर अनुदान का खाद-पानी लेकर उसके ही समानान्तर एक निजी विश्वविद्यालय जैसा बन गया है। जिसके निदेशक का पद एक महानुभाव द्वारा जीवनपर्यंत के लिए आरक्षित करा लिया गया है। झूठे आश्वासन देकर पैसा ऐंठना, अखबार में अच्छा-अच्छा छपना और शिक्षा के नाम पर ठगी और व्यापार करना इस आईपीएस सेंटर और विशेष कर इसके संेटर आॅफ मीडिया स्टडीज का मुख्य उद्देश्य है, लेकिन सवाल उठता है कि क्या पत्रकारिता की पूरी पढ़ाई अखबार में छपने तक ही सीमित है ? पत्रकारिता के आदर्शों को जीना और उन्हें पढ़ाई मे डालकर संस्कारों में तब्दील करना क्या पत्रकारिता की शिक्षा का उद्देश्य नहीं है ? लेकिन पत्रकारिता के नाम पर अपनी दुकान चलाने वाले भला इसे कैसे समझेंगे ?
37 दिनों तक चले छात्रों के जुझारू आंदोलन के बाद कुलपति महोदय जब पत्रकारिता विभाग आये तो छात्रों को विभाग के विकास का लाॅलीपाॅप देकर मुख्य मुद्दे से भटकाने की कोशिश करते हुए लगातार यह कहते रहे कि दोनों विभाग अलग-अलग हैं और आप के कोर्स का उनके कोर्स से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन माननीय कुलपति ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया कि बिना कार्यकारणी परिषद से पास हुए इस नये कोर्स को शुरू करने के लिए उन्हें अपनी विशेष अनुमति देने की इतनी भी क्या जल्दी पड़ी थी ? बात-बात में छात्रों के हितों कि दुहाई देते न थकने वाले कुलपति को छात्रों की इस बात का भी जवाब देना चाहिये कि उनकी समस्यायों को जानने-समझने के लिए विभाग आने में उन्हंे आखिर 37 दिन क्यों लग गये, जबकि शहर में होने वाली विभिन्न गतिविधियों में वो आये दिन शुमार होते रहते हैं ?
विडम्बना ये है कि जिस शिक्षा के सर्वसुलभ होने का सपना गांधी ने देखा था, खुद को गांधीवादी कहने वाले कुलपति को वो याद ही नहीं। वे तो शायद गांधी की उस बात को भी भूल गये कि लाइन में लगे अंतिम आदमी तक पहुंचे बिना सच्चे अर्थों में आगे नहीं बढ़ा जा सकता। तभी तो उन्होंने बीए इन मीडिया स्टडीज के रुप में एक ऐसे सेल्फ फाइनेंस कोर्स को शुरु करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया, जहां पढ़ने का सपना कम से कम गांधी का, लाइन में लगा वो अंतिम आदमी तो नहीं ही देख सकता। ये अलग बात है कि आज देश की 84 करोड़ जनता की हालत लाइन में लगे उस आखिरी आदमी जैसी ही है, जो रोजाना 20 रू से भी कम पर गुजर-बसर करती है।
_________
डेलीगेसियों और छात्रावासों में जाकर मांगेगें समर्थन
24 अक्टूबर, 09 पत्रकारिता विभाग के छात्रों द्वारा अपने विभाग के समानान्तर आरम्भ किए गये स्ववित्तपोषित पाठ्यक्रम के विरोध में चलाया जा रहा आन्दोलन आज भी जारी रहा। आज सत्याग्रह का 52वां दिन था। अपनी कक्षाओं से छूटने के बाद लगभग साढे तीन बजे छात्रों ने रोज की तरह पूरे विश्वविद्यालय परिसर मंें घूम कर मौन जुलूस निकाला। निकाला।इस दौरान छात्रों का कहना था कि अपने आन्दोलन में और तेजी लाने के लिए वे सारे छात्रावासों और डेलीगेसियों में जाकर सभाएं करेगें और आम छात्रों को अपने सत्याग्रह के बारे में बताते हुए उनसे समर्थन में अपने साथ आने की अपील करेगें।
समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
24 अक्टू॰ 2009
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें