14 सित॰ 2009

कुलपति (?) के नाम पत्रकारिता विभाग के विद्यार्थियों का खुला पत्र

महोदय,

आज से चंद साल पहले जब विश्वविद्यालय की प्रवेश परी़क्षा के पेपर लीक होने के सवाल पर आपने प्रशासन के लोगों को साथ लेकर गांधी भवन तक मार्च किया था, विश्वविद्यालय की अस्मिता और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए तब केवल विश्वविद्यालय में चंद शिक्षक और कुछ ही प्रशासन के नुमाइंदे ही आपके साथ थे।

आज जब पत्रकारिता विभाग की अस्मिता और प्रतिष्ठा पर आंच आ रही है और तो वहां के शिक्षक अपने सभी विद्याथर््ीिओं के साथ उसी तरह गांधी भवन जाते हैं। ये संकल्प लेने के लिए की हम अपने मान सम्मान और विचारों पर अडिग रहेंगे तो आप उस विभाग के सात साल विभागाध्यक्ष रहे सुनील उमराव को नोटिस थमाते हैं कि वो परिसर में अराजकता फैला रहे हैं और वीसी के कथित मानसम्मान को ठेस पहुंचा रहे हैं। क्या आज वीसी का मानसम्मान एक विभाग या शिक्षक से अलग होता है? क्या विश्वविद्यालय जैसी अकादमिक संस्थाओं में विचारों को भैंस की तरह जंजीरों में बांधा जा सकता है। जब श्री राजेन हर्षे वीसी की कुर्सी की गरिमा को बनाये नही रख पा रहें है तो उस कुर्सी की गरिमा को यह कार्य कैसे आघात पहुंचा सकता है। सीनेट हाल में बच्चों की तरह पूरे विश्वविद्यालय के अध्यापकों द्वारा अपने को ‘‘हैप्पी बर्थडे टु यू’’ गवाकर विश्वविद्यालय की ऐतिहासिक गरिमा को ध्वस्त कर नया अध्याय लिखा है। क्या एक शिक्षक को अपने पदोन्नति और प्रशासनिक पदों की भूख इतनी वैचारिक अकाल पैदा करती है कि सभी एक सुर में हैप्पी बर्थ डे प्रायोजित करते है। यह विश्वविद्यालय में किस प्रकार की परिपाटी स्थापित करने की कोशिश की जा रही है।

राजेन हर्षे के कुलपति बनने के बाद हर मंच पर खड़े होकर यहां पर अकादमिक स्तर को बढाने की दुहाई देते रहे हैं और विश्वविद्यालय के ज्यादातर अध्यापकों पर न पढाने का आरोप लगाते रहे है परंतु व्यवहार में क्लास न लेने वाले शिक्षकों के इर्दगिर्द घिरे रहे है। और उनकी सलाह से विश्वविद्यालय में पढाई के बजाय ठेकेदारी की प्रवृत्ति को बढावा दिया है। एक ऐसे शिक्षक को जो वाइस चांसलर के आने के पहले विभाग आता हो और आपके जाने के बाद विभाग छोड़ता हो उसे शिक्षक दिवस के मौके पर नोटिस दी जाती है कि वो छात्रों-छात्राओं और अध्यापकों को भडका रहे हैं। क्या विश्वविद्यालय के अध्यापकों का चरित्र इतना कमजोर है कि इतनी जल्दी उनको प्रभावित कर सकता है। जबकि वो शिक्षक केवल कंपाउण्डर है, ‘‘डाक्टर’’ भी नही। इतने बड़ी-बड़ी डिग्रियां और किताबे लिखने वाले अध्यापकगणों को कंपाउण्डर बहका सकता है तो इन शिक्षकों पर सवाल ही खडे होतें है। और उनके द्वारा लिखी गयी किताबों पर सवाल उठता है। क्या विश्वविद्यालय केवल पेपर लिखने वाले पेपरमैनों (जिनके पास कोई चरित्र की विश्वसनीयता न हो)का गिरोह है? हमें बताने की जरुरत नही है कि शिक्षा चरित्र निर्माण एवं अपने विचारों पर चलने की एक पद्वति ही है। यही सोच ने हम विद्यार्थियों को हमारे गुरु के नेतृत्व में यात्रा करने को मजबूर किया है।विश्वविद्यालय में छात्रों को आंदोलित करके अर्दब में लेने का कुछ चंद शिक्षको का एक बड़ा इतिहास रहा है जो परिसर में छिपकर ठेके और कमाई के धंधे को पनपाने के लिए ऐसा करते रहे है। वे कभी सामने नही आते पर पेशे और धन के बल पर अपना आंदोलन चलाते है। वही हमारे शिक्षक हमारा नेतृत्व कर एक बहादुर और चरित्रवान शिक्षक होने परिचय दिया है कि कोई भी लड़ाई हम मिलकर लड़ेगे और अपनी नौकरी और जानमाल को इन तथाकथित मठाधीशों से लड़ने में लगा देंगे। ये समय ही बतायेगा की वीसी के सरकारी लाव-लश्कर हमारे विचारों को जंजीरों को बांध पायेगे। इनकी पदोन्नति और सेलेक्शन कमेटी का लालच कितना हमको तोड़ पायेगा। परिसर में आज भी अधिकतर अध्यापक और विधार्थी ईमानदार और निष्ठावान हैं, जिनके बल पर हम निजीकरण के खिलाफ सै़द्धांतिक लड़ाई लडने का हौंसला कर पाये।

ये विश्वविद्यालय का ऐतिहासिक मौका था जब शिक्षक खुद आंदोलन का नेतृत्व करने को निकला था। प्रशासन ने ‘‘पीस जोन’’ की ‘‘मर्यादा’’ भंग करने के लिए अध्यापक को ही नोटिस दी हम छात्रों को क्यों नही? क्या हमारे अध्यापक इतने लल्लू हैं? क्या आप हमसे डरते हैं? क्या आपके अंदर नैतिक बल का आभाव है? आप राजनीति शास्त्र के ही प्रोफेसर हैं? आज हम देखेंगे कि आप की राजनीति हमारे नैतिक आंदोलन को किस हद तक तोड़ पाती है। आप विचारों के शिक्षक हैं व्यवहार के नही। आप एक आतंकवादी हैं जो अपनी कुर्सी और पद का आतंक दिखा कर लोगों को अपने विचारों पर अडिग रहने से रोकना चाहते हैं। हम लोग मिलकर दिखाएंगे की हम बिकाऊ नहीं हैं। जिन्हें आपके जैसे शिक्षा के तथाकथित मठाधीश और ठेकेदार खरीदकर तोड़ सकते हैं। देखेंगे जीत हमारे नैतिक बल की होगी या संगीनों के साये में जीने वाले आप जैसे तथाकथित शिक्षक की। जब चार दिनों से सैकड़ों लड़के-लड़कियां सड़कों पर खुली धूप और गर्मी में अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। वहीं आप हमारे परिवार के मुखिया होकर वातानुकूलित चैंबर में जीके राय के साथ घंटों बैठकर राय मशविरा कर रहे है। आपको चार साल के कार्यकाल में शायद न मालुम हो पाया हो कि जीके राय वे अध्यापक हैं जिन्होंने जिंदगी भर कभी क्लास नहीं ली। इस सच को विश्वविद्यालय में सभी लोग जानते हैं। हमारे वो चार साल पहले वाले वीसी साहब कहां हैं जो हर मंच पर चढ़कर आदर्श टीचर बनने की दुहाई देते थे। चार साल में इतना विरोधाभास क्यूं? ये सब हम ‘‘नादान बच्चों’’ को दिखता है तो हम बोलते हैं लेकिन शायद शिक्षक इसलिए नहीं बोलते हैं क्योंकि वो हमसे ज्यादा समझदार और दुनिंयादार हैं। क्यों आप जैसे ज्ञानी-विज्ञानी महापुरुषों को दिखाई नहीं देता। आप महाभारत के धृतराष्ट्र की तरह सत्ता के नशे में इतने चूर न हो जायें कि पांडवों को हस्तिनापुर के बीस गांव न देने की जिद के बाद अपने सौ पुत्रों और राज्य को स्वाहा कर दिया। पत्रकारिता विभाग छोटा हो सकता है, भले वहां केवल एक शिक्षक हो, परन्तु हम विद्यार्थियों के हौसले इतने बुलंद है और हममे वो नैतिक बल है कि इस जीके राय की इस्टीट्यूट प्रोफेशनल स्टडीज की सोने की लंका को जलाकर खाक कर डालने का दम है। आप अपनी राजनीति की गोट खेलते रहे हम अपनी लड़ाई लड़ते रहेंगे। आप अपने षडयंत्र रचिए, विजय तो योद्वाओं की ही होगी। हम वो लोग हैं जो अपने माथे पर काले कफन डालकर अपने विचारों और सिद्वातों के लिए खड़े हैं न कि आपके पैरों पर लोटने वाले विश्वविद्यालय के वो अध्यापक जो लाख टका की तनख्वाह होने के बावजूद विश्वविद्यालय की ईंट खाते हैं, सीमेंट फंाकतें है, कम्प्यूटर चबाते है और सब कुछ हजम करने के बाद चटनी-अचार-मुरब्बा खिलाकर व्यवहार बनाते हैं। ये लगभग सवा़ सौ साल पुराना विश्वविद्यालय शिक्षा का केंद्र है न कि व्यवसायिक केंद्र। यहां न्याय और अधिकारों की आयत पढ़ी जाती है और इंसाफ के मंत्रो का जाप होता है। कुलपति महोदय, आपसे विनम्र निवेदन है कि शिक्षक को अपनी जायज मांगें उठाने के लिए नोटिस देकर अपना वैचारिक दिवालियापन दिखाने के बजाय हमारे मुद्दे पर अपनी स्थिति स्पष्ट करे। आप हमें बतांए कि आखिर किस अधिकार के तहत समानान्तर कोर्स को एक्जीक्यूटिव काउंसिल से पास किए बिना मीडिया स्टडीज का पाठ्यक्रम कैसे चालू कर रहे हैं। क्योंकि एक्जीक्यूटिव काउंसिल से पास न होने के चलते ही एमए (मास कम्यूनिकेशन) विभाग दो साल तक बंद रहा। आखिर आप हमारे साथ इतना सौतेला व्यवहार क्यों कर रहे हैं। आपका इसमें क्या निजी हित और राजनीति है? कृपया यह राजनीति के प्रोफेसर बताएं। - आपके अपने

पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के विद्यार्थी

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