28 सित॰ 2009

Against Privatization of Education Agenda

The perinial debate in the Mecca of capitalism - that of efficiency versus equality - is exemplified by the Conservatives and Liberals.
In a book he wrote 50 years ago, The Affluent Society, JK Galbraith traced the development of economic theory where he argued for a shift of investment to services from production to guard agaist cyclic depressions that bedevil the developed world.
He did differenciate in investments in services like travel, tourism and restaurants from investments in schools and hospitals in the services sector, because of the nature of decline in spending that accompnaies a decline in production. Spending on education would continue and therefore take the edge off a depression in times of reduced demand while spending on other services like travel and eating out would reduce. That is because in times of increasing unemployment, it is the younger lot of workers who get thrown out, while the senior workers will continue to finance the education of their children. In India, students themselves do not yet finance their own education in apprciable numbers by taking time out to work or taking educational loans that would be affected in a downturn.
The Allahabed University apparently is not going to commit public funds on infracture. That is already there. It intends to introduce more saleable courses in Media studies, which has a huge market. At the same time there is unutized capacity.
This infringes on the question of inflation, according to Galbraith. At full capacity or close to capacity, in the face of more demand, there is a pressure on prices to rise. This is what is happening. At the time Galbraith wrote, (investment in) education was apparently classified as a consumption good. From the economic point of view this has to be seen as a problem of inflation. The Allahabad debate is whether education is a market commodity. We need to broaden the scope of the debate. Will the proposed measure enhance Indian capabilities? Will it lead to increased economic security and well being? Do we agree that increased employment is increased security? Will the increased spending power be inflationery?

The debate is also about effeciency and equality.

27 सित॰ 2009

निजीकरण विरोधी आन्दोलन - कारवां पहुंचा दिल्ली

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के समानान्तर स्ववित्तपोषित कोर्स और शिक्षा के निजीकरण विरोधी आंदोलन का कारवां अब दिल्ली पहुँच गया है. आन्दोलन को राष्ट्रिय स्वरुप देने और उच्च स्तर तक अपनी बात पहुँचने के लिए पत्रकारिता विभाग के छात्र अपने गुरु सुनील उमराव के साथ दिल्ली में विभिन्न राजनीतिक-सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों से मुलाकात कर रहे है. छात्र जंतर-मंतर पर भी अपनी आवाज बुलंद करेंगे.

विश्वविद्यालय का यह कदम 80 फीसदी जनता के साथ अन्याय: जनेश्वर मिश्र


नई दिल्ली, 27 सितम्बर. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के समानान्तर स्ववित्तपोषित कोर्स और शिक्षा के निजीकरण विरोधी आंदोलन को आगे बढ़ाते हुए छात्रों ने आज दिल्ली में मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय के उच्च अधिकारियों से मिलकर अपनी समस्याओं से अवगत कराया। छात्रों के प्रतिनिधि मंडल का कल 10 बजे मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल से उनके आवास पर इस विषय पर विस्तार से बातचीत करना तय हुआ है। इसी कड़ी में छात्रों का प्रतिनिधि मंडल जाने-माने लोहियावादी विचारक जनेश्वर मिश्र से मिलकर विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा लागू की जा रही आमजन विरोधी शिक्षानीति के बारे में बताया।
छात्रों से बातचीत करने के बाद जनेश्वर मिश्र ने कहा कि विश्वविद्याल प्रशासन द्वारा ऐसा कदम उठाना 80 फीसदी जनता को शिक्षा से वंचित करना है। छात्रों की मांगो को जायज ठहराते हुए उन्होंने प्रतिनिधि मंडल को आश्वासन दिया कि वे इस मुद्दे को सरकार के समक्ष रखेंगें और विभिन्न मंचों पर छात्रों की आवाज को ले जायेंगे।
गौरतलब है कि पत्रकारिता विभाग के छात्रों का 30 सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल आया हुआ है जहां पर वह अगले तीन दिनों तक दिल्ली में रहकर विभिन्न मंत्रियों, नेताओं और बुद्धिजीवियों से मिलकर उनके समक्ष विश्वविद्यायल में हो रहे गोरखधंधे का कच्चा चिठ्ठा खोलेंगे।

समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
09721446201, 0989646767


25 सित॰ 2009

राहुल गांधी के नाम खुला पत्र

राहुल भाई,

हमारा दर्द उस कलावती जैसा तो नहीं है जिसे आपकी महज एक पहल ने देश दुनिया को विदर्भ की परेशानियों से वाकिफ करा दिया था. लेकिन पिछले पंद्रह दिनों से इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में डिग्री की बिक्री के खिलाफ हम कैंपस से लेकर सड़कों पर जो लड़ाई लड़ रहे उसका ताल्लुक देश की तमाम कलावतियों से है. हम इलाहाबाद यूनिवर्सिर्टी में जर्नलिज्म डिपार्टमेंट के स्टूडेंट हैं और शिक्षा के निजीकरण के नाम पर कैसे कुछ लोग महज अपने फायदे के लिए इसे गरीबों से छीन कर बहुत महंगे दामों में मुहैया कराना चाहते हैं ताकि इससे उनकी जेबे भरती रही. राहुल हम इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के जर्नलिज्म विभाग के छात्र जो लड़ाई लड़ रहे हैं,वह देश के हर कोने में रहने वाली कलावतियों के बच्चों के समर्थन की लड़ाई है ताकि पूरब के इस आक्सफोर्ड में उन गरीबों की आमद बनी रही जिनकी बात हमने तमाम मंचों से आपके मुंह से बहुत संजीदगी से सुनी है. राहुल हम पत्रकारिता विभाग के छात्रों का आंदोलन तमाम कलावतियों के दर्द के साथ साथ उस पैसे को बीच में ही गुम कर दिए जाने के खिलाफ भी है जिसे सरकार तमाम योजनाओं और ग्रांटों के जरिए भेजती है. हां, हमारी लड़ाई उच्च शिक्षा के उस भ्रष्टाचार के खिलाफ भी है जिसमें कभी छात्रों के हिस्से की किताबों में घपला किया जाता है तो कभी यूनिवर्सिटी के अकादमिक माहौल को पलीता लगाकर डिग्रियां बेचने की दुकानें खोली जाती हैं.
सेल्फ फाइनेंस के नाम पर खोली जा रही इन दुकानों में पैसा ही एकमात्र मेरिट है. संसाधनों की कमी के नाम पर खोली जा रही ये डिग्री बेचने के केंद्र दरअसल कुछ लोगों की जेबें भरने के ही काम आती हैं. यूनिवर्सिटी के पास अपना पच्चीस साल पुराना जर्नलिज्म डिपार्टमेंट है जिसे शायद इसलिए बनाया गया था कि हम नौजवानों की एक ऐसी जमात पैदा कर सकें जो पत्रकारिता की जनपक्षधरता में यकीन करती हो. संसाधनों की कमी के बहाने शिक्षा के मकसद को नहीं बदला जा सकता. पत्रकारिता शिक्षा का मकसद कम से कम देश भर की कलावतियों के मुद्दे को सामने लाने का ही होना चाहिए. लेकिन राहुल यूनवर्सिटिज में ऐकडमिक काउंसिल से लेकर एक्सिक्यूटिव काउंसिल तक डिग्री बेचने की ऐसी दुकानों को प्रोत्साहित कर रही हैं जो सेल्फ फाइनेंस के नाम पर ऐसे कोर्स खोल रही हैं जो यूनिवर्सिटी सिस्टम के कुछ घाघ लोगों के लिए मनी मेकिंग मशीन हो गए हैं. राहुल इलाहाबाद केंद्रीय यूनिवर्सिटी है इसके लिए लंबी चैड़ी गा्रंट आती है. जिसका बहुत बड़ा हिस्सा बिना इस्तेमाल के ही वापस लौट जाता है. लेकिन फिर भी पत्रकार बनाने के लिए एक लाख बीस हजार रूपए वाली दुकानें खोली जा रही हैं. प्रोफेशनल स्टडीज के नाम पर स्टूडेंट्स से मनमाना फीस ली जा रही है. कहा जाता है कि ये प्रोग्राम्र्स आिर्थक रूप से आत्म निर्भर हैं लेकिन यूनिवर्सिटी के लिए आई ग्रांट का तमाम हिस्सा डिग्री की दुकानों को बांट दिया जाता है. अफसोस है लेकिन फिर भी कहना पड़ रहा है कि इसमें वीसी, एकेडमिक काउंसिल और एक्सिक्यूटिव काउंसिल तक नजरें चुराते हैं. राहुल भाई, शिक्षा के निजीकरण के नाम पर खेले जा रहे इस गंदे खेल में कलावती के बेटे बेटियों को कैंपस से वंचित कर देने की साजिश तो है ही साथ ही उस पैसे के रास्ते में ही गायब हो जाने की कहानी भी है जो समाज के निचले तबके के लिए हमारी सरकारें देती हैं. राहुल आप खबरें पढते होंगे कि हमारी यूनिवर्सिटयों के अकादमिक मुखियाओं के खिलाफ भ्रष्टाचार की तमाम जांच पड़तालें चलती रहती हैं. लेकिन फिर भी उच्च शिक्षा के भ्रष्टाचार पर कड़े कदम नहीं उठाए जा रहे हैं़
राहुल, हम लोग इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता विभाग के समांतर मीडिया स्टडीज के नाम पर खोले जा रहे उस कोर्स का विरोध कर रहे हैं जो पत्रकारिता की डिग्री को इतनी महंगी बना देना चाहते हैं कि बस पत्रकार पैसे वाले ही बन सके. राहुल ऐसा तब किया जा रहा है कि यूनिवर्सिटी में पच्चीस साल पुराना पत्रकारिता विभाग है फिर भी मीडिया स्टडीज के इस कोर्स को इंस्टीट्यूट आॅफ प्रोफेशनल स्टडीज तहत खोला जा रहा है. यूनिवर्सिटी के पास प्रचुर मात्रा में संसाधन हैं फिर भी इस डिपार्टमेंट को न तो पर्याप्त ग्रांट दी जाती है, न ही कोई प्रोत्साहन. इसके अलावा मीडिया स्टडीज और यूनिवर्सिटी में चल रहे जर्नलिज्म पढाने के तमाम ऐसे कोर्स है जिसमें पर्याप्त योग्यता रखने वाले टीचर्स भी नहीं हैं. तमाम गेस्ट लेक्चर देने वाले लोग सिर्फ कोर्स संचालकों के पसंदीदा हैं. इस बात का ख्याल न एकेडमिक काउंसिल में रखा जाता है न एक्सक्यूटिव काउंसिल में. राहुल आप बदलाव की बात करते हैं, हर आदमी को काम,हर आदमी को शिक्षा की बात करते हैं. राहुल शिक्षा और शिक्षा के निजीकरण के नाम पर चल रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाना जरूरी है. लडाई बहुत बड़ी है, हम इस लड़ाई का छोटा सा हिस्सा हैं जिसमें हमें आपके समर्थन की जरूरत है. राहुल हमें उम्मीद है कि आप जन सरोकारों की इस लड़ाई में हमारा साथ देंगे.

-आपके समर्थन के आकांक्षी

पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के छात्र
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, इलाहाबाद

21 सित॰ 2009

शिक्षा के बाजारीकरण के खिलाफ एक हो!

साथियों,
शिक्षा के बाजारीकरण के खिलाफ जन आन्दोलनों के राष्ट्रिय समन्वय (एनएपीएम) ने एक ऑन लाइन पिटीशन जारी किया है। मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित आंदोलनकारी डॉ संदीप पांडे की ओर जारी इस पिटीशन में उन्होंने कहा है की शिक्षा बाजारू उत्पाद नहीं है। इलाहबाद विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के समान्तर बी ए इन मीडिया स्टडीज की निजी दुकान खोली जा रही है। अपील में छात्र आन्दोलन का समर्थन करते हुए कुलपति राजेन हर्षे से मुख्य कोर्स को ही पर्याप्त फंड उपलब्ध करने की मांग की गई है. एनएपीएम के इस आभियान से आप भी जुड़े और आन्दोलन को मजबूती प्रदान करे.

National Alliance of People's Movements (NAPM)

SIGN-the-PETITION: Against privatization of education agenda

[To read the Hindi language memorandum drafted by protesting Allahabad University students, click here ]
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To sign-the-signature petition campaign, please click here or go to: http://www.petitiononline.com/19919119/petition.html

Dear friends,
The decision of Prof Rajan Harshe, Vice Chancellor, Allahabad University, to launch a self-financed B।A। in Media Studies programme through the in-house Institute for Profession Studies (IPS) in spite of the presence of an independent Department of Journalism and Mass Communication in Allahabad University has invoked strong protest from the students, faculty and intellectuals outside. The objective of IPS was to generate resources for Allahabad University. But since Allahabad University (AU) has become a central university, it is not even able to utilize its full grant for the year.
We believe education is not a market commodity and abovementioned initiative of Prof Rajan Harshe, is privatization of education at the cost of diluting quality and demoralizing an already existing Department by floating a parallel programme.
We urge Prof Rajan Harshe to resist the temptation of privatization and strengthen the mainstream programmes with central funding available to him.
We support the ongoing struggle on and outside the campus of Allahabad University (AU) against privatization of education and express solidarity with the struggling students and faculty members on campus.
We request you all to consider signing the petition (to sign-the-signature petition campaign, please click here) in support of the struggle in Allahabad against privatisation of education agenda.

Sincerely,
Dr. Sandeep Pandey
National Alliance of People's Movements (NAPM)


To sign-the-signature petition campaign, please click here or go to: http://www.petitiononline.com/19919119/petition.html

To read the Hindi language memorandum drafted by protesting Allahabad University students, click here or go to: http://hindi-cns.blogspot.com/2009/09/blog-post_21.html


20 सित॰ 2009

शिक्षा की ‘मंडी’ के खिलाफ महाभारत जरूरी

संतोष कुमार राय

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पहले से चले आ रहे पत्रकारिता के एक पाठ्यक्रम के समानान्तर एक और पाठ्यक्रम को मान्यता दिए जाने का विरोध हो रहा है। कुछ लोग मान्यता देने को सही ठहरा रहे हैं तो कुछ लोगों के गले नहीं उतर रहा कि ये कैसे हो सकता है? तकनीकि पहलुओं को छोड़ दें तो शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ यहां जो आंदोलन चल रहा है, उसका समर्थन उचित है। शिक्षण संस्थानों को मंडी बनने से रोकना होगा। ग्लैमर का चस्का देकर मोटी रकम वसूलकर उत्पाद पैदा करने वाले संस्थानों का विरोध करना होगा। यह शिक्षा के लिए बेहतर है और छात्र हित में है। ये संस्थान उत्पाद पैदा करने वाली फैक्ट्री बन गए हैं। इनसे सरोकार की उम्मीद बेमानी है। छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ न होने देने के लिए विरोध जरूरी है। क्यों जरूरी है, जानने के लिए आगे पढ़ें।

देशभर के विश्वविद्यालयों, कॉलेजों, पत्रकारिता विश्वविद्यालय, मुक्त विश्वविद्यालयों से पत्रकारिता का कोर्स करके हर साल हजार से ऊपर डिप्लोमा और डिग्रीधारी निकल रहे हैं। इसके अलावा बड़े शहरों में पत्रकारिता की डिग्री, डिप्लोमा देने वाले संस्थान गली-गली में खुल गए हैं। इन संस्थानों में छह महीने से साल भर के कोर्स के लिए डेढ़ से ढाई लाख रुपये से ऊपर लिए जाते हैं। दुख की बात ये है कि ज्यादातर संस्थानों में प्रिंट या इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता के नाम पर पत्रकारिता का इतिहास बताकर खानापूर्ति कर दी जाती है। इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता की शिक्षा देने के लिए उनके पास बुनियादी संसाधन भी उपलब्ध नहीं है। आप अनुमान लगा सकते हैं कि देश में कितने (संख्या हजारों में) और किस गुणवत्ता के पत्रकारिता के डिग्रीधारी मीडिया संस्थानों में नौकरी के लिए आ रहे हैं।

किसी ने कहा था एक पत्रकार मरता है तो नए पत्रकार के लिए जगह खाली होती है। इसका तात्पर्य यही है कि इस क्षेत्र में बहुत कम जगह है। अब तो कई मीडिया संस्थान खुद पत्रकारिता की डिग्री, डिप्लोमा देने लगे हैं। वो सबसे पहले अपने यहां के छात्रों को नौकरी देते हैं। यानी बाकी शहरों से आने वाले पत्रकारिता छात्रों के लिए कई दरवाजे पहले से ही बंद हैं। एक नया न्यूज चैनल कितने लोगों को नौकरी दे सकता है ? अगर राष्ट्रीय स्तर का कोई नया न्यूज चैनल है तो ज्यादा से ज्यादा दो से ढाई सौ लोगों की जरूरत पड़ती है। उसमें ज्यादातर अनुभव वाले लोगों को ही लिया जाता है। नए लोगों को इन मीडिया संस्थानों में जगह पाने का अनुमान 10 फीसदी से ज्यादा नहीं है। लेकिन गली-गली में कुकुरमुत्ते की तरह उग आये इन मीडिया संस्थानों को पत्रकारिता की शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों से कोई सरोकार नहीं है। बस लाखों रुपये लेकर अपनी झोली भरते हैं। वास्तविक स्थिति से अवगत नहीं कराते। कहा जाता है मीडिया पढ़े-लिखों का क्षेत्र है लेकिन अब तो 10+2 के बाद ही पत्रकारिता का डिप्लोमा देने वाले संस्थानों की बाढ़ सी आ गई है। एंकर, रिपोर्टर और प्रोड्यूसर बनने का ख्वाब लेकर आने वाले ये लोग कहां फिट बैठेंगे ? ये मान्यता प्राप्त निजी संस्थान पत्रकारिता की व्यवहारिक शिक्षा देने की बजाय इस बात पर जोर देते हैं कि हर सत्र में मीडिया से जुड़ा कोई नाम एक दिन के लिए ही सही भाषण देने आ जाए। वो भी पैसा खाकर आता है चमक- दमक का बखान करता है और अंत में कह जाता है-मेहनत करोगे तो नौकरी जरूर मिलेगी। इस मेहनत का व्यवहारिक स्वरूप क्या हो कोई नहीं बताता।

मेरे बारे में : मैं एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल से जुड़ा हूं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की डिग्री लेकर नौकरी की तलाश में आज से पांच साल पहले दिल्ली आया । मेहनत करने की क्षमता और रुचि के कारण मेरे गुरुओं ने मुझे दिल्ली जाने का दबाव डाला था। मैं उन पत्रकारिता प्रशिक्षुओं की तरह था जिनका इस क्षेत्र में या कहें किसी भी क्षेत्र में ऊंचे ओहदे पर कोई नहीं था। सो संघर्ष करने के सिवाय कोई चारा नहीं था। तीन चार महीने के बाद यूएनआई में इंटर्नशिप करने का मौका मिला। एक महीने बाद दिल्ली ब्यूरो ईटीवी में इंटर्नशिप का मौका मिला। फिर सड़क पर गया। नौकरी की उम्मीद तो दूर-दूर तक नहीं थी। तीन-चार महीने के अंतराल के बाद एक बड़े मीडिया संस्थान में इंटर्नशिप का मौका मिला। उसी दौरान संयोग से वहां इंटरव्यू हुआ। इंटर्नशिप करते-करते इतनी जानकारी हो गई थी टेलीविजन में काम करना आसान लग रहा था यही नहीं कई तो मुझसे कम जानकारी वाले भी थे जिन्हें अच्छी सैलरी मिल रही थी। उम्मीद जगी कि इंटरव्यू में तो होना निश्चित है। इंटर्नशिप खत्म हुई। रिजल्ट के इंतजार में छह महीने से ज्यादा का वक्त बीत गया। इस बीच लगता था किसी भी दिन फोन आ जाएगा और कहा जाएगा आपकी नौकरी लग गई आकर ज्वाइन कर लीजिए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। काफी इंतजार के बाद फिर एक नए मीडिया संस्थान में अवैतनिक काम करने का मौका मिला। कहा गया था कि अगर आप अच्छा काम करेंगे तो नौकरी मिल सकती है। अब तक ऐसी स्थिति में आ गया था कि बुलेटिन निकाल सकता था, प्रोग्राम प्रोड्यूस कर सकता था। इतनी बड़ी जिम्मेदारी के बाद भी नौकरी नहीं थी। घर से पैसे मंगाकर दिल्ली में रहकर दूसरे के लिए काम कर रहा था और हमारी मेहनत से वो अपनी झोली भर रहा था।

13 महीने तक अनवरत सेवा देने के बाद इस संस्थान में मुझे नौकरी मिल गई। यहां काम करते हुए मुझे वेतन कितना मिल रहा था ये नहीं बताऊंगा क्योंकि आप भी शरमा जाएंगे। यानि दो साल तक काफी दिक्कतें उठाने के बाद जाकर नौकरी मिली थी। आर्थिक रूप से कितनी परेशानी हुई इसका जिक्र करने का कोई मतलब नहीं है। मानसिक रूप से कितना परेशान हो गया था खुद के बल पर नौकरी तलासेंगे तो पता चलेगा। मेरी सलाह है कि लगन और रुचि हो और आज के महौल में इससे ज्यादा मुसीबत मोल लेने की हिम्मत हो तो पत्रकारिता के पेशे में आएं।

मैने पांच हजार रुपये फीस में विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की डिग्री हासिल की थी। यहां पैसे से नहीं बल्कि उन लोगों को प्रवेश मिला था जो कड़ी प्रवेश परीक्षा पास करके आए थे। उनमें मेहनत करने की क्षमता थी पत्रकारिता का जज्बा था। यहां अमीर और गरीब दोनों ही पृष्ठभूमि के छात्र थे। यह मंडी नहीं बल्कि वास्तविक अर्थों में एक शिक्षण संस्थान था, शायद अब भी है।

संतोष कुमार राय इ.वि.वि. पत्रकारिता विभाग के छात्र रहे हैं और इन दिनों एक नेशनल न्यूज चैनल में कार्यरत हैं। उनसे संपर्क santosh.18.rai@gmail.com के जरिए किया जा सकता है।
साभार भड़ास4मीडिया

शिक्षा नीति पर श्वेत पत्र लाये सरकार !

सुशांत झा

मैं ऐसी घटनाएं देखकर भौंचक्का हो जाता हूं। एक तरफ सरकार कहती है कि वो हर स्टेट में सेंट्रल यूनिवर्सिटीज का जाल बिछाएगी और माडेल कालेज खोलेगी लेकिन दूसरी तरफ प्राईवेट शिक्षा माफियाओं के लिए लाल कालीन बिछती है। अभी तक तो हमारे देश में बजट का 6 फीसदी ही शिक्षा पर नहीं जा रहा, दूसरी तरफ सरकार हजारो करोड़ का आंकड़ा दिखाकर कहती है कि हमने ये कर दिया। अरे खाक किया, 60 साल में आपने कुल जमा लगभग 450 यूनिवर्सिटीज बनाए हैं जिनमें से कई तो इस नाम पर कलंक है। सरकार ने कहा कि हम 30 सेंट्रल यूनिवर्सिटी खोलेंगे...जैसा हमारे ऊपर कोई एहसान हो रहा हो। हमारे देश में कई जगह 1-1, 2-2 करोड़ आबादी पर एक जेनेरल यूनिवर्सिटी है। लड़कियों के घर से ज्यादातर इलाकों में 15 किलोमीटर की दूरी पर एक कालेज है। बिहार में कमसे कम 5 किलोमीटर के दायरे में एक हाईस्कूल है-और सरकार है कि उसके नुमांइदे इलाहाबाद जैसी यूनिवर्सिटी में निजी माफियाओं को एफलिएसन दे रहे है। ऐसी सरकार से घिन आती है जो प्राईमरी एजुकेशन को महज आवश्यक मानकर अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ रही है। सरकार ने हर गांव में सर्वशिक्षा अभियान के तहत 3000-4000 में शिक्षा मित्रों की बहाली कर हमें खैरात में अक्षर ज्ञान दिया है जैसे पुराने सम्राट अकाल के वक्त कुछ अनाज बांट देते थे।

सवाल यहां प्राईवेट एजुकेशन के विरोध का नहीं, बल्कि सरकार की मंशा का है। अब वक्त आ गया है कि हमारे देश में रेल बजट की तरह अलग से शिक्षा बजट जारी की जाए और जनता से उसकी राय पूछी जाए।

सरकार निजी शिक्षा पर एक साफ नीति बनाए, उस पर एक श्वेतपत्र जारी करे। गरीबों और वंचितों के लिए जबतक उसमें कोई संभावना नहीं होगी, तबतक वो हमें मान्य नहीं। ऐसा बहुत दिनों के बाद हुआ है कि इलाहाबाद से कोई युवा आवाज सामने आई है जो एक मुद्दे को लेकर है। देश में निजी शिक्षा को बढ़ावा देने के नाम पर ट्रस्टों, फाउंडेशनों और संस्थाओं के द्वारा जमीन की लूट जारी है दूसरी तरफ सरकार अपने संस्थानों द्वारा फीस की मनमानी नियम बनाकर इसमें भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रही है। हमें निजी शिक्षा से विरोध नहीं, विरोध इस बात से है कि सरकार अपना बजट क्यों नहीं बढ़ा रही है। वो सिर्फ आंकड़ा दिखती है, फीसदी नहीं बताती-न ही ये बताती है कि कितने लोगों को शिक्षा चाहिए और कौन जरुरतमंद है।

इलाहाबाद से शुऱु हुआ आंदोलन निश्चय ही एक नए बहस को जन्म देगा और बहरी सरकार को जगाएगा-हमें इसकी पूरी उम्मीद है।

(सुशांत झा आईआईएमसी के 2004-05 बैच के पासआउट हैं। इन दिनों वे एक निजी प्रोडक्शन कंपनी में कार्यरत हैं। उनसे संपर्क करने के लिए jhasushant@gmail.com का सहारा लिया जा सकता है।)

शिक्षा का बाज़ारीकरण रोकने के प्रति सरकार उदासीन - सुचेत गोइंदी

- शिक्षा के बाज़ारीकरण के विरोध में लोक राजनीति मंच और पत्रकारिता विभाग के छात्रों ने निकाला मौन जुलूस
- लोक राजनीति मंच आया पत्रकारिता विभाग के छात्रों के समर्थन में

इलाहाबाद 19 सितम्बर 2009 / लोक राजनीति मंच और पत्रकारिता विभाग के छात्रों द्वारा आज शिक्षा के बाजारीकरण और शिक्षा कानून अधिकार 2008 के विरोध में स्वराज विद्यापीठ से लेकर चन्द्रशेखर आजाद पार्क तक रैली निकाल कर राष्ट्रपति को प्रेषित ज्ञापन पढा गया।
पत्रकारिता विभाग के छात्रों द्वारा जारी आंदोलन के 16वंे दिन भी जारी है। आज देश में एक समान शिक्षा और सबको शिक्षा की मांग को लेकर लोक राजनीति मंच के प्रो कष्ण स्वरूप आनंदी, डा0 कष्ण मुरारी, डा0 श्री बल्लभ और शिक्षाश्री सम्मान प्राप्त डा0 सुचेत गोइंदी की अगुआई में छात्रों ने जुलूस निकाला। जुलूस में शामिल छात्र-छात्राओं ने शिक्षा के व्यापारीकरण के विरोध में ‘‘केरल हो या राजस्थान, सबकों शिक्षा एक समान’’, ‘‘गरीब हो या धनवान, सबको शिक्षा एक समान’’, ‘‘शिक्षा का बाज़ारीकरण बंद करो’’, ‘‘शिक्षा है सबका अधिकार बंद करो इसका व्यापार’’, आदि नारे लिखी तख्तियां लेकर मौन जुलूस निकाला। इस अवसर पर समाजसेविका डा0 सुचेत गोइंदी ने कहा कि सरकार कभी भी शिक्षा को लेकर गंभीर नही रही। सरकार को अब तत्काल शिक्षा के बाज़ारीकरण को बढ़ावा देने वाली नीतियों पर रोक लगानी चाहिए नही तो देश की आने वाली पीढ़ी को गंभीर परिणाम भुगतना पड़ेगा। सरकार को देश मंे एक समान शिक्षा प्रणाली लागू करनी चाहिए।
चंन्द्रशेखर आजाद की प्रतिमा के नीचे जुलूस में शामिल विद्यार्थियों और बुद्धिजीवी समाजसेवियों ने संकल्प लिया कि वे शिक्षा को आम आदमी की पहुंच से दूर करने की इस कोशिश को कामयाब नहीं होने देंगें। इस दौरान हुई सभा में वक्ताओं नें देश में एक समान शिक्षा प्रणाली की वकालत की। सभा में मौजूद प्रोफेसर कृष्ण स्वरुप आनंदी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के छात्रों की शिक्षा के बाज़ारीकरण के विरोध में शुरु किये गये आंदोलन की प्रशंसा करते हुए युवा छात्रों और पत्रकारों को भी इस मुहिम से जुड़ने की अपील की। इस सभा में पूर्व आइएएस श्रीराम यादव, पूर्व मुख्यन्यायाधीश रामभूषण मेहरोत्रा सहित पत्रकारिता विभाग के छात्र मौजूद रहे।


समस्त छात्र,
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
9721446201,9889646767, 9455474188

राष्ट्रपति/कुलाधिपति को प्रेषित ज्ञापन/ मांगपत्र

माननीय,
राष्ट्रपति/कुलाधिपति,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद


पत्रकारिता विभाग के समानांतर एक और सेल्फ फायनेंस कोर्स चलाने और पत्रकारिता विभाग की उपेक्षा करने के संदर्भ मंे विभाग के छात्रों द्वारा प्रेषित मांगपत्र


महोदय/महोदया,

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के समानांतर एक और सेल्फ फायनेंस कोर्स चलाने और पत्रकारिता विभाग की उपेक्षा करने के संदर्भ मंे विभाग के छात्रों द्वारा विरोध प्रदर्शन के 15वें दिन विश्वविद्यालय के कुलपति को आंदोलन के पहले दिन 3 सितम्बर 2009 को सौंपी गयी हमारी मांगों के संदर्भ में आपकी तरफ से कोई जवाब न मिलने पर असंतोष लगातार बढ़ रहा है। हमारे आंदोलन को देशव्यापी जनसमर्थन मिल रहा है। राष्टीय हो चले इस आंदोलन का दायरा बढ़ने के कारण इस आंदोलन के जरिये उठायी गयी हमारी मांगों पर राष्टीयस्तर पर सकारात्मक प्रतिक्रिया मिल रही है। कृपया ध्यान दें हमारे पहले 3 सितग्बर को कुलपति महोदय इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद को सौंपा गया था, मांगपत्र में इन मांगो को सम्मिलित कर हमारी मांगे बिंदुवार निम्नवत हैं -
पिछले 25 साल से चल रहे पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की लगातार उपेक्षा की गयी है। अब इस विभाग के लिए यूजीसी के निर्धारित मानदण्डों के अनुरुप संसाधन ( कम्प्यूटर लैब, आडियो-विडियों लैब, फोटोग्राफी डार्करुम, लाईब्रेरी, क्लासरुम, और स्थायी प्राध्यापक ) की व्यवस्था तत्काल प्रभाव से की जाय। ये व्यवस्था द्वितीय छमाही छमाही (सत्र 2009-10 के लिए ) की समाप्ती से पूर्व हो जानी चाहिए।
इंस्टीट्यट अॅाफ प्रोफेशनल स्टडीज के तहत इंस्टीट्यूट फाॅर फोटोजर्नलिज्म एण्ड विजुअल कम्यूनिकेशन में इसी सत्र (2009-10 सत्र) से शुरु किये जा रहे बीए इन मीडिया स्टडी के पाठ्यक्रम में प्रवेश पर तत्काल रोक लगाई जाय। अगर विश्वविद्यालय को स्नातक स्तर का ऐसा कोर्स चलाना है तो संबधित विभाग में ही पर्याप्त संसाधन की व्यवस्था करके ही चलाया जाय।
इंस्टीट्यट अॅाफ प्रोफेशनल स्टडीज की स्ववित्तपोषिता खत्म/समाप्त किया जाय। (राज्य स्तरीय विश्वविद्यालय 2005 में इसकी स्थापना के समय जिस उद्देश्य से इसे सृजित किया गया था, मसलन विश्वविद्यालय अपने लिए खुद संसाधन जुटायेंगे, की प्रासंगिकता अब समाप्तप्राय है क्योंकि केंद्रीय दर्जा पाने के बाद से विश्विद्यालय ने धन न खर्चकर पाने की वजह से वार्षिक अनुदान की धनराशि हर साल वापस लौटाई है।) अब इन सभी पाठ्यक्रमों की फीस न्यायसंगत एवं तर्कसंगत की जाय और छात्रों के उपर बोझ डालने के बजाय विश्वविद्यालय की बैंकों में जमापूंजी के ब्याज पर इन कोर्सों को चलाया जाय बाद में विश्वविद्यालय के बजट में प्रावधान किया जाय।

यूजीसी के मानको के अनुसार किसी भी विभाग/संस्था के अध्यक्ष/डायरेक्टर को प्रत्येक दो वर्षों पर रोटेट करने का निर्देश का पालन किया जाय। इंस्टीट्यट अॅाफ प्रोफेशनल स्टडीज के डायरेक्टर को भी इस नियम के दायरे में लाकर तत्काल प्रभाव से हटा कर नयी नियुक्ति की जाय। क्या वजह है कि इंस्टीट्यट अॅाफ प्रोफेशनल स्टडीज के डायरेक्टर को यूजीसी के मानकों के अनुसार रोटेट नही किया गया। क्या इंस्टीट्यट अॅाफ प्रोफेशनल स्टडीज यूजीसी के मानकों से परे है?

इंस्टीट्यट अॅाफ प्रोफेशनल स्टडीज चलाये रखने का तर्क संसाधनों के नाम पर दिया जाता है। विश्वविद्यालय के केेंद्रीय बनने के बाद से विगत तीन सालों का इंस्टीट्यट अॅाफ प्रोफेशनल स्टडीज की आय व्यय का ब्यौरा उपलब्ध कराया जाय।
इंस्टीट्यट अॅाफ प्रोफेशनल स्टडीज के बारे में धारणा है कि इंस्टीट्यट अपना संसाधन स्वयं जुटाता है। विश्वविद्यालय के केंद्रीय बनने के बाद से अब तक इस इंस्टीट्यट को कितना अनुदान दिया गया है। और अन्य किन मदों में विश्वविद्यालय ने इंस्टीट्यट को अनुदान उपलब्ध कराया है अगर अनुदान उपलब्ध कराया है तो इसका ब्यौरा उपलब्ध कराया है तो फिर ये तर्क क्यों दिया जाता है कि इंस्टीट्यट अॅाफ प्रोफेशनल स्टडीज स्वयं के संसाधनों पर संचालित है।
इंस्टीट्यट अॅाफ प्रोफेशनल स्टडीज में चल रहा प्रत्येक पाठ्यक्रम विषय अनुसार विश्वविद्यालय में यूजीसी के मानकों के अनुसान चल रहे विभागों में वहां के विभागाध्यक्षों के निर्देंशन में चलाया जाय। सेंटर के एकेडमिक प्रोग्राम को संदर्भित विभाग की बोर्ड आॅफ स्टडीज व उसी की बोर्ड आॅफ फेकल्टी से पारित होने के बाद शुरु किया जाय।
इंस्टीट्यट अॅाफ प्रोफेशनल स्टडीज के सभी डिप्लोमा के सभी अंकपत्र परीक्षा नियंत्रक के हस्ताक्षर के बगैर अवैध माना जाय। जिन पाठ्यक्रमों के अंकपत्रों पर परीक्षा नियंत्रक हस्ताक्षर करने से संवैद्यानिक रुप से इनकार करता हो उस पाठ्यक्रम को तत्काल बंद कर दिया जाय। विश्वविद्यालय में चल रही दोहरे अंकपत्र देने की व्यवस्था को समाप्त किया जाय।
व्यवसायिक कोर्सों के लिए यूजीसी/एआईसीटी द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार संसाधनों (लैब, लाईब्रेरी और छात्र संख्या के अनुपात में स्थायी प्राध्यापक ) कि व्यवस्था की जाय।
प्रत्येक विभाग के अंतर्गत चलने वाले व्यवसायिक कोर्सों के लिए (इंस्टीट्यट अॅाफ प्रोफेशनल स्टडीज को समाप्त करने के बाद विषय संबधित विभाग मंे शुरु किए पाठ्यक्रम के संदर्भ में ) एवं नये कोर्स जो सत्र 2009-10 के लिए प्रस्तावित हंै, में प्रवेश प्रक्रिया तब तक न शुरु की जाय जब तक यूजीसी/एआईसीटी द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार संसाधनों (लैब, लाईब्रेरी और छात्र संख्या के अनुपात में स्थायी प्राध्यापक ) की व्यवस्था न हो जाय।
व्यवसायिक कोर्सों (इंस्टीट्यट अॅाफ प्रोफेशनल स्टडीज को समाप्त करने के बाद विषय संबधित विभाग मंे शुरु किए पाठ्यक्रम को शामिल करते हुए विश्वविद्यालय के सभी व्यवसायिक कोर्से के संदर्भ में ) निर्धारित फीस ढांचे को बदला जाय। तर्कसंगत फीस ढ़ंाचे के लिए विशेषज्ञों की समिति गठित की जाय।

महोदय/महोदया से अपील है कि मामले की गंभीरता को समझते हुए अतिशीघ्र कार्यवाही कर देश के अन्य शिक्षण संस्थानों के लिए भी मिसाल के बतौर अनिवार्य रुप से बेहतर शैक्षणिक व्यवस्था की उपलब्धता सुनिश्चित करंे।



-धन्यवाद
समस्त छात्र
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद

बीहड़ रास्तों का सफर

प्रतिभा कटियार

हवाएं हमेशा नर्म नहीं होतीं. कभी-कभी पत्थर सी सख्त भी होती हैं. पानी की बूंदें हमेशा छई छप्प छई नहीं होतीं, वे तेज धार भी हो सकती हैं ऐसी कि तलवार को मात दे दें. तरुणाई ऐसी ही हवा और ऐसी ही पानी की बूंदों का नाम है. इलाहाबाद में चल रहा आंदोलन कई मामलों में प्रेरणापरक है. यह चलती हुई हवा के खिलाफ खड़े होने जैसा है. इस आंदोलन की बाबत मेरी कई यूनिवर्सिटीज में, कई लोगों से बात हुई. हर जगह गहरे असंतोष की जड़ें नजर आईं. छात्रों से बात हुई. आहत छात्रों से. शिक्षकों से भी. झुंझलाते, चिड़चिड़ाते लेकिन खामोश. मेरी समझ में नहीं आता कि ये खामोशी आखिर टूटती क्यों नहीं? चलो, इलाहाबाद में यह चुप्पी टूटी तो सही.

बहाव के साथ बहना हमेशा आसान होता है. लेकिन जरूरत वक्त के धारों को मोडऩे की होती है. गलत के खिलाफ डटकर खड़े होने की होती है. 27 सितंबर करीब है. यह दिन ज़ेहन से कभी नहीं निकलता. बंदूकों की खेती करने का दिन. सपने देखने का दिन. खुद पर विश्वास करने का दिन. भगतसिंह का जन्मदिन. भगतसिंह ऐसा नाम है, जिसे सुनते ही एक ओज महसूस होता है. जो हमेशा युवा ही रहा. चेग्वेरा का नाम भी ऐसा ही नाम है. ये नाम युवाओं के लिए प्रेरणा हैं. सारी प्रेरणाएं क्या किताबों में दर्ज होने के लिए हैं? बहुत हुआ तो कुछ लेख लिख देने के लिए. या और हुआ तो राजनीति में उतरकर मंच से भाषण देने के लिए. फिर एक शानदार पॉलिटिकल करियर.

छात्र जीवन में एक साफ दृष्टिकोण बनने की नींव पड़ती है. वही साफ दृष्टिकोण जो जीवन की हर मुश्किल राह पर संबल बनता है. जब विचार और विचारधाराएं किताबों से निकलकर िदगी में दाखिल होती हैं. अगर छात्र पत्रकारिता के हों तब बात और भी सं$जीदा हो जाती है. छात्रों के लिहाज से भी और शिक्षकों के लिहाज से भी.

जब शिक्षा की शुरुआत ही ऐसी समझौतापरस्ती पर पडऩे लगे तो क्या उम्मीद की जा सकती है. इलाहाबाद के छात्रों और उनके शिक्षक सुनील ने अपनी भूमिकाओं को समझा और विरोध का रास्ता अख्तियार किया. एक शांतिपूर्ण विरोध. अब देखना बस इतना है कि कितने कदम हैं जो इन लोगों के साथ होकर इसे कारवां बनाते हैं.

कई बार लडऩा ही जीतना होता है उस लिहाज से जीत हो चुकी है.

मेरी बधाई!

कार्ल मार्क्स की कविता सबके लिए-

बीहड़ रास्तों का सफर
आओ
हम बीहड़ और कठिन सुदूर
यात्रा पर चलें
आओ,
क्योंकि छिछला
निरुद्देश्य जीवन
हमें स्वीकार नहीं.
हम ऊंघते,
कलम घिसते हुए
उत्पीडऩ और लाचारी में
नहीं जियेंगे.
हम आकांक्षा
आक्रोश, आवेग
और अभिमान से
जियेंगे
असली इनसान की तरह.
- कार्ल मार्क्स

17 सित॰ 2009

हम लड़ेगें साथी

इलाहाबाद में चल रहे निजीकरण विरोधी आंदोलन ने छात्रों पर लग रहे उस आरोप कि छात्र ‘करियररिस्ट’ हो गया है की छवि को तोड़ते हुए सत्तासीन ताकतों के बाज़ारवादी एजेण्डे को बेनकाब कर दिया है। हम इस आंदोलन का समर्थन करते हुए हर स्तर पर इस आंदोलन में हमकदम बनेगे। आज जब अखबार पैसे लेकर ख़बर छाप रहे हैं उस दौर में पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों और प्रोफेशनलिज्म को इलाहाबाद के पत्रकारिता के छात्र परिभाषित कर रहें है।

इलाहाबाद से शुरु इस राष्ट्रिय आंदोलन में आज जरुरत है कि इसे देशभर के शिक्षण संस्थानों में ले जाया जाय। जिस तरह से पत्रकारिता विभाग के समानांतर बीए इन मीडिया स्टडीज की दुकान खोलने की कवायद चल रही है ऐसी कवायद पूरे देशभर में चल रही हैं। पहले तो संसाधनों का रोना रोकर सुविधाएं कम की जाती है कि उसके बाद उसके हल के बतौर खून चूसने वाली दुकाने विश्वविद्यालयों में खोली जा रही हैं। इलाहाबाद के साथी धन्यवाद के पात्र हैं जो उंहोने तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद इस आंदोलन को बहादुराना अंदाज में छेड़ दिया। आज जब व्यवस्था छठे वेतन आयोग को लागू कर शिक्षकांे को भी तुष्ट कर दिया है। ऐसे दौर में पत्रकारिता के शिक्षक सुनील उमराव ने एक मिसाल कायम की है की निजीकरण और बाजारीकरण का विरोध सिर्फ मंचों पर ही नहीं सड़कों पर भी होगा।

पत्रकारिता विभाग के छात्रों द्वारा जारी अपील और अनिल यादव का सालों पुराना लेख कम्पनी बाग में देशी फूल वैश्विक स्तर पर उदार होने के नाम पर थोपी जा रही नीतियों पर तमाचा है। विश्वविद्यालय जैसे आधुनिक शिक्षण संस्थान में जिस सामाजिक कार्यकर्ता संपत पाल को परिसर में संगीना के दम पर घुसने नही दिया। इस घटना ने पूरे देश के सामने इस बात को ला दिया है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में लोकतंत्र का गला घोट दिया है। और बु़ि़द्धजीवियों का तमगा लिए शिक्षक विश्वविद्यालय को ‘‘विश्वविद्यालय’’ के रुप में तब्दील कर दिया है। आज जरुरत इस बात की है कि आधुनिक दौर में विश्वविद्यालयों की क्या संकल्पना होगी इस पर विचार किया जाय। क्योंकि जिस तरह पिछले दिनों राष्ट्रªीय ख़बरों के अनुसार कुलानुशासक जटाशंकर त्रिपाठी ने छात्रों को बाहरी कह मुर्गा बनवाया उसने विश्वविद्यालय की पूरी संकल्पना को नेस्तानाबूत कर दिया। क्या आखिर विश्वविद्यालय को समझने जानने के लिए कोई बाहरी व्यक्ति नही आ सकता। और अपने को बुद्धिजीवी का तमगा लगाये लोग उसे अपमानित करेंगे। हम भारतीय जनसंचार संस्थान के छात्र आपके आंदोलन में हरकदम आपके साथ रहने का वादा करते हुए आपके बीमार कुलपति को जादू की झप्पी देते हुए गेट वेल सून मेंटली बोलते हैं।

- ऋषि कुमार सिंह, विनय जायसवाल, अरुण वर्मा, प्रबुद्ध गौतम, अरुण उराव, अर्चना महतो, सौम्य झा, पूर्णिमा उरांव, प्रिया मिश्रा, विजय प्रताप, मणींद्र मिश्रा, हिमांशु शेखर, हेमेंद्र मिश्रा, प्रियभांशू, समेत पूरा भारतीय जनसंचार संस्थान परिवार

लाजीम है कि हम भी देखेंगे !

दोस्तों,
पिछले कई दिनों से इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आपके आंदोलन की खबरे पढ़ता रहा हूं। मन किया कि आपको बधाई दूं सो लिख रहा हूं । आपको सलाम! इस बात पर कि आपने अपनी असहमति जाहिर करने की ठानी, विरोध का हौसला दिखाया. आपका आंदोलन किसी तरह की हार या जीत के उद्देश्य से नहीं है, होना भी नहीं चाहिए. इतने जोश-खरोश के साथ अगर आप विद्या और ज्ञान के तिजारत के खिलाफ खड़े हैं तो फिर नतीजा चाहे जो हो, जीते हुए आप ही माने जाएंगे. आपके बाद वहां पढ़ने आने वाले लोगों के लिए यह सबक ही नहीं होगा, संतोष की बात भी होगी कि कम से कम आपने विद्या मंदिर को कलंकित करने, पढ़ाई के नाम पर गोरखधंधे को रोकने की कोशिश की और साम›र्य भर की. इलाहाबाद में कुछ बरस रहा हूं, विश्वविद्यालय से करीब का नाता रहा है. वहां कई शिक्षक मेरे आत्मीय हैं और इन वर्षों में पश्रकारिता विभाग के तमाम विद्यार्थियों को मैं जानता आया हूं. विभाग में संसाधनों की कमी और तमाम तरह की विषमताओं के बीच मैंने सुनील को अपने विद्यार्थियों की बेहतर पढ़ाई के लिए जूझते हुए देखा है. सुनील अपनी पेशेगत ज्मेदारियों को लेकर किस कदर संजीदा हैं, यह आपके सीनियर्स बखूबी समझते होंगे. ये बातें मैं सटिüफिकेट देने के इरादे से नहीं कह रहा हूं, और यह मेरा अधिकार क्षेश्र भी नहीं है. मगर सेंट्रल यूनिवçर्सटी बनने और आपके नए स्वनामधन्य वीसी के आने की खबर पर सुनील का उत्साह मैंने देखा है. वह उन्साह एक समर्पित शिक्षक का उत्साह था, जिसे अब अपने विद्यार्थियों के लिए जयादा संसाधन मिलने की उम्मीद बंधी थी. उस शिक्षक को ऐसी सांसत में डालने का उपक्रम जिन लोगों ने भी किया हो, वे स्वधन्यमान (यानी जो खुद को धन्य मानता हो) भले हों, विश्वविद्यालय और विद्यार्थियों के हितैषी हरगिज नहीं हो सकते. अंधी कमाई के लिए उटपटांग तरीके अख्तियार करते आए लोगों से भला आप सबको भी और क्या उम्मीद होनी चाहिए. मैं ये बातें किसी व्यक्ति के लिए नहीं कह रहा. व्यक्ति चाहे वह कितना बड़ा और विद्वान क्यों न हो अगर अपने संस्थान, अपने समाज की भलाई नहीं कर सकता तो उसकी विद्वता का मोल दो कौड़ी भी नहीं. व्यक्ति संस्थान से बड़ा नहीं होता, लोग आते-जाते रहते हैं, संस्थाएं और व्यवस्थाएं बची रहती हैं और वे ही किसी काम को आगे ले जाती हैं. कलम को सन्ता के खिलाफ होना चाहिए, यही उसका धर्म है. अच्छा है कि पढ़ाई के दौरान आपने यह सबक भी सीख लिया. यकीन करें, यह जिदगी में बहुत काम आने वाला सबक है. विरोध के लिए नारे लगाना भर काफी नहीं, जरूरी है कि सच्चाई में भरोसा हो और अपनी आन की हिफाजत करने का शऊर आता हो। वरना अना की दुहाई देने से तो वे लोग भी नहीं चूकते जो मौका पड़ने पर बड़ी खामोशी से इसकी तिजारत कर आते हैं- कभी ओहदे और पैसे के फायदे के लिए, कभी टुच्ची सहूलियतों के लिए और कभी यूं ही यानी आदतन. सहूलियतों के लिए समझौते की लत पड़ जाती है और हकीम लुकमान अगर होते तो उनके पास भी इसका इलाज शायद ही होता. आप उन तमाम सहूलियतपसंद और सुविधाभोगियों के बारे में जरा भी न सोचें जो आपको सच के साथ खड़ा जानकर भी साथ आने या खड़ा होने में संकोच कर रहे हैं. कोई प्रपंच या कपट आपके आन्मबल से बढ़कर नहीं. और अब तक तो आप भी यह जान गए हैं कि इस लड़ाई में आप अकेले नहीं हैं. इलाहाबाद के इंसाफपसंद लोगों की बड़ी जमात तो आपके साथ है ही, हम सभी आपके साथ हैं. फैज की यह नजम याद हैं न आपको. मौका है कि एक बार इसे फिर पढ़ें, जोर-जोर से पढ़े और हो सके तो उन्हें भी सुना दें, जिन्हें अपने सिंहासन और ताज पर बड़ा नाज है.
हम देखेंगे/ लाजीम है कि हम भी देखेंगे/ वो दिन के जिसका वादा है/ हम देखेंगे।जब जुल्म- ओ-सितम के कोह-ए-गरां/ रूई की तरह उड़ जाएंगे/ हम मेहकुमों के पांवों तले/ ये धरती धड़ धड़धड़केगी/ और अहल-ए-हुकुम के सर ऊपर/ जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी/ हम देखेंगे.

प्रभात

निजीकरण विरोधी आंदोलन को वकीलों का मिला भारी समर्थन

- सुभाषिनी अली छात्रों के साथ, जल्द आयेंगी इलाहाबाद

इलाहाबाद, 16 सितम्बर 09 इलाहाबाद विश्वविद्यालय मे पत्रकारिता विभाग के समानान्तर एवं शिक्षा के निजीकरण विरोधी आंदोलन 14 वें दिन भी जारी रहा। छात्रों ने आज अधिवक्ताओं के बीच हस्ताक्षर अभियान चलाया। हाईकोर्ट में हस्ताक्षर अभियान दौरान लगभग 1500 वकीलों ने हस्ताक्षर कर विश्वविद्यालय मेे हो रहे शिक्षा के निजीकरण का विरोध जताया। छात्रों के इस आंदोलन का समर्थन करते हुए पूर्व सांसद और वरिष्ठ माकपा नेता सुभाषिनी अली ने कहा कि वे छात्रों द्वारा चलाए जा रहे शिक्षा के निजीकरण विरोधी इस आंदोलन के लिए जल्द इलाहाबाद पहुंचेंगी। छात्रों ने अपने जुलूस के साथ आज वरिष्ठ कांगे्रसी नेता अनिल शास्त्री से भी मुलाकात की। उन्होंने छात्रों के इस निजीकरण विरोधी आंदोलन के साथ अपना पूरा समर्थन व्यक्त किया और विश्वविद्यालय प्रशासन की इस प्रकार की नीतियों को निंदनीय बताया। उन्होंने सरकार तक इस बात को पहुंचाने के लिए छात्रों को आश्वासन दिया।
पत्रकारिता विभाग के समानान्तर सेल्फ फाइनेंस कोर्स चलाने के खिलाफ छात्र अब सड़क पर उतर आयें हैं। अपनी कक्षाएं करने के बाद छात्र 1 बजे से अपने आंदोलन के समर्थन में निकल पड़े। शिक्षा के निजीकरण और पत्रकारिता विभाग के समानान्तर कोर्स को बंद करों, बिना कार्यकारिणी परिषद से पास हुए कोर्स की डिग्री बाटना बंद करो, आदि नारे लिखे बैनर और प्लेकार्ड लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट पहंुचे जहां उन्हें अपने इस आंदोलन का भारी जनसमर्थन मिला। इस दौरान छात्रों ने राष्ट्रपति को भेजा ज्ञापन भी बंटा।
छात्रों द्वारा गांधीवादी ढंग से चलाए जा रहे इस आंदोलन को विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा अराजक बताकर इसके लिए एक चार सदस्यीय जांच कमेटी गठित कर दी है। इविवि प्रशासन के इस फैसले को छात्रों ने पूरी तरह मनमाना और तानाशाहीपूर्ण बताया। छात्रों का कहना है कि विश्वविद्यालय प्रशासन 14 दिनों से चल रहे छात्रों के इस आंदोलन पर जिस तरह का अलोकतांत्रिक रुख अपना रहा है और छात्रों को धमका रहा है इससे साफ हो जाता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन पर शिक्षा माफिया हावी हैं। छात्रों ने कहा कि विश्वद्यालय प्रशासन उनकी 11 सूत्री मांगो पर जवाब देने की बजाय उन्हें अराजक बताकर अपनी कारगुजारियों को छुपाना चाहता है और लोगों को ध्यान इस मुद्दे से हटाने की कोशिश कर रहा है।
समस्त छात्र
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद

‘अब पुलिस के हवाले कैंपस साथियों’

- अनुराग शुक्ला

सामाजिक बदलावों के लिए अपने तरीके से काम कर देश विदेश में नाम काम चुकी गुलाबी गैंग की राष्ट्ीय अध्यक्ष संपत पाल को जब इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के लाइब्रेरी गेट पर सिक्योरिटी और पुलिस वालों से बहस कर रहीं थी तब उन्हें नहीं पता था कि हमारी यूनिवर्सिटी के ‘अकादमिक‘ मुखिया कैंपस को पुलिस के हवाले कर गए हैं. संपत जर्नलिज्म और जनसंचार विभाग के उन स्टूडेंटस के समर्थन में आई थी जो अपने कोर्स के समांतार खोले जा रहे मीडिया स्टडी सेंटर नाम की एक डिग्री बेंचू दुकान के विरोध में आंदोलन कर रहे हैं. संपत यूनिवर्सिटी प्रशासन के प्रोफेशनल स्टडीज के नाम पर की जा रही उस भूल चूक लेनी देनी वाली अकादमिक सेटिंग का विरोध करने आईं थीं जिसमें कोई भी लक्ष्मीपु़त्र आए हरे भरे नोटों के बंडल फेंक कर पत्रकार और मीडिया प्रोफेशनल की डिग्री ले जाए. संपत गांव गरीब के बीच में काम करती हैं और गांव गरीब की बात करने आईं थीं. संपत अपनी गुलाबी गैंग के साथ कहने आई थीं कि डिग्रियां मत बेचो,गांव के लोगों को नरेगा के काम से इतने पैसे नहीं मिलते कि वह प्रोफेशनल स्टीडज के महंगे शो रूम से एक लाख बीस हजार वाली पत्रकारिता की डिग्री खरीद सकें. लेकिन संपत की गुलाबी गैंग को विचारवानांे की यूनिवर्सिटी में लाठी और संगीनों के बल पर घुसने नहीं दिया गया. लाठी और संगीन यूनिवर्सिटी के नए अकादमिकों का नया विचार है. पता लगा है कि मिस्टर राजन हर्षे यूनिवर्सिटी से जाते वक्त पत्रकारों और मास्टरी में ही अफसरी का मजा ले रहे कुछ सहयोगियों से कह गए थे ‘अब पुलिस के हवाले कैंपस साथियों’.

एकेडमिक थानेदारी

संपत जब पुलिस के छोटे बडे थानेदारों से मुखातिब थीं, तभी यूनिवर्सिटी के एकेडमिक थानेदार को फोन लगाया गया लेकिन वज्र वाहनों और बूटों की ठक ठक की संगत में रहने वाले प्राक्टर साहब ने फरमाया कि युनिवर्सिटी में बाहरी लोगों का प्रवेश वर्जित है. बाहरी शब्द की यूनिवर्सिटी के संविधान में क्या व्याख्या है इस बात को राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर मिस्टर हर्षे शायद ज्यादा बेहतर बता पाएं क्योंकि उन्होंने यूनिवर्सिटी में अपने लिए पीस जोन और छात्रों के लिए वार जोन की अवधारणा विकसित की हैं. और हो सकता है आगे के अकादमिक इतिहास में प्रो. हर्षे यूनिवर्सिटीज में फोर्स डिप्लाॅव्यमेंट की वार जोन पीस जोन अवधारणा और शिक्षा को ज्यादा से ज्यादा कीमत पर बेचने का कंस्पेट देने के लिया याद किया जाए
लेकिन जिस वक्त गुलाबी गैंग की सामाजिक कार्यकर्ताओं को बाहरी कहकर कैंपस में आने से रोक दिया गया सुना है उसी समय यूनिवर्सिटी में काई सेमिनार चल रहा था वाइस चांसलर के आज्ञाकारी प्राक्टर क्या ये बताना चाहेंगे कि उस सेमिनार में बोलने वाले सारे लोग भीतरी थे. यूनिवसिटी प्रोफेसरानों की नई भाषा में भीतरी का मतलब छात्रों से ही होगा. गेट पर खडे सभी लोग देख रहे थे गुलाबी गैंग के आने से कुछ देर पहले गेट पर बिना बाहरी भीतरी की पहचान किए लोगों को आने जाने दिया जा रहा था.

विचारों की पहरेदारी का साइंस
लेकिन यूनिवर्सिटी की अकादमिक दुनिया ने विचारों की पहरेदारी के साइंस को ऐसे डेवलेप किया है है कि उनका जवाब होगा कि सेमिनार में आए हुए लोग यूनिवर्सिटी में बौद्धिक व्यायाम करने के लिए बतौर मेहमान आए थे. उनकी आवभगत यूनिवर्सिटी का फर्ज था. तो साहबान गलाबी गैंग को क्यूं रोका गया. संपत भी यूनिवर्सिटी की मेहमान थी और पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के छात्रों के आंदोलन के समर्थन में आईं थीं. विभाग के छात्र और अध्यापक उनकी आवभगत में खडे थे लेकिन फिर भी जंजीरों और संगीनों का सहारा लेना ही पडा. विचारों को रोकने के लिए जंजीरों और संगीनों से रोकने का तरीका बहुत पुराना है. हिटलर से लेकर मुसोलिनी ने इस तरीके का इस्तेमाल किया है. लेकिन अब इस तरीके के इस्तेमाल में खसियत यह है कि अब ये तरीके वे लोग आजमाते हैं जो क्लास में लोकतंत्र की अवधारणाएं पढाते हुए अगले पे कमीशन का इंतजार किया करते हैं.

यूनिवर्सिटी में विचारों की कमी है

संपत भी यूनिवर्सिटी में एक विचार लेकर आई थी जो उन्हेोंने बुंदेलखंड में लोगों के साथ काम करके हासिल किए हैं, अकादमिक अनुलोम विलोम में टीए डीए बनाकर नहीं. संगीनों के साए में घिरी यूनिवर्सिटी में संपत के विचारों का आना इसलिए भी जरूरी था क्योंकि प्रोफेसरों से भरी हमारी यूनिवर्सिटी में विचारों की कमी है. खैर गुलाबी गैंग जो विचार,अनुभव लेकर आया था वह छात्रों तक पहुंचा पुलिस से तकरीर और तकरारों के बाद ताले और जंजीर ख्ुालीं और छात्र एक बार फिर मार्च करते हुए उस अधनंगे फकीर गांधी केे पास पहुंचे जिसने आजाद भारत को विचारों की कद्र करना सिखाया था. वह विचार चाहें सरकारों के सलाहकार रह चुके किसी प्रोफेसर का हो या गुलाबी गैंग की संपत का. संपत शिक्षाविद नहीं है लेकिन उन्होंने कहा कि प्रोफेशनल स्टडीज के नाटकों में लाखों रूपए लेकर पत्रकार बनाने वाली शिक्षा व्यवस्था उन्हीं काले अंग्रेजों की व्यवस्था है जो शिक्षा के जरिए साहब और नौकर की वर्गीय अवधारणा बनाए रखना चाहते हैं. ये उन्हीं दकानदार नुमा सलाहकार प्रोफेसरों की विचारधारा है जो गांव में बच्चों को खिचडी बंटवाने और हर हाथ को जीने भर का काम देने की योजनाएं बनवाते हैं.

हम्टी डम्टी मेंटलिटी

लेकिन यूनिवर्सिटी में आकर इन प्रोफेसरानों की हम्टी डम्टी मेंटलिटी हावी हो जाती है. फिर डिग्रयों को लाखों में बेंचने की तरकीबें शुरू होती हैं. चिकने चुपडे चेहरों का लालच देकर डिग्री के नाम पर ग्लैमर की दुनिया में घुसने के एंट्ी कार्ड बांटे जाते हैं. लेकिन इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में प्रोफेशनल स्टडीज के नाम पर इन एंट्ी कार्ड की कीमत लाखों में रखी जा रही है. जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन डिपार्टमेंट के छात्र इसी बात को लेकर आंदोलन कर रहे हैं कि हमारे जैसा सेलेबेस का दूसरा कोर्स यूनिवर्सिटी में इतने महंगे दाम पर क्यूं बेंचा जा रहा है, जहां सिर्फ पैसा ही आपकी योग्यता है. क्या धीरे धीरे ये पूरे पत्रकारिता विभाग के निजीकरण की तैयारी है.

डिग्री को दुकानों पर मत बेचिए


पत्रकारिता शिक्षा है व्यवसाय नही, इसकी डिग्री को दुकानों पर मत बेचिए के नारे के साथ शुरू हुए आंदोलन में संपत ने अपने तरीके से अपनी बात रखी. पिछले दस दिनों से स्टूडेंटस के आंदोलन में अपनी आवाज से आवाज मिलाने वाले डिपार्टमेंट के टीचर सुनील उमराव ने कहा कि यूनिवर्सिटी प्रशासन की गुंडागर्दी के चलते छात्र और शिक्षकों को एक बार फिर गांधी की शरण में आना पडा. सुनील ने कहा कि विश्वविघालय का मतलब है कि दुनिया भर के विचारों को अपने में जगह दें. प्रो हर्षे अपनी मंचीय तकरीरों में अमरिकी सामा्रज्य विरोधी नोम चेामस्की का खूब नाम लेते हैं तो फिर क्यूं कैंपस को पुलिस के हवाले कर देते हैं. सुनील ने कहा कि अगर विश्वविधालय अपने में अलग अलग तरह के बिचारों को जगह नहीं दे सकता है और उसे कुलपति और प्राक्टर की तानाशाही में ही चलना है तो यूनिवर्सिटी की जगह वाइस चांसलर एंड कंपनी कहा जाए तो ज्यादा बेहतर होगा. पत्रकारिता के दोनों बैचों के स्टूडेंटस ने अपनी बात रखी है और मीडिया स्टडीज को ऐसा धीमा जहर बताया जो मास क्म्युनिकेशन की डिग्री को खरीद फरोख्त की दुकान बना देगा.
डिपार्टमेंट के पुरा छात्र शहनवाज और राजीव ने कहा कि आज गुलाबी गैंग की संपत को यूनिवर्सिटी में आंदोलन का समर्थन करने के लिए रोक दिया गया. लेकिन कल संदीप पांडे, अरूणा राय जैसे लोग आंदोलन को समर्थन देने आएंगे तो यूनिवर्सिटी प्रशासन उन्हें रोक पाएगा. दरअसल मीडिया स्टडीज के नाम पर दुकान खोल कर डिग्री बेचने और संपत को रोके जाने की घटना का सीधा ताल्लुक है. महज कुछ लोगों की दुकानें चमकाने के लिए पत्रकारित्रा की शिक्षा को मीडिया स्टडीज की दुकान में मुहैया कराया जा रहा है. अपनी दुकानों के चमकाने के साथ ये कैंपस की एजूकेशन को अपर मिडिल क्लास का होम प्ले बना देना चाहते हैं. वे नहीं चाहते कि यहां मिड डे मील खाने वाले बच्चे भी दुनिया की खबरनवीसी का सपना पूरा कर सकें.


(अनुराग इलाहाबाद यूनिवर्सिटी पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के पूर्व छात्र हैं. वह फिलहाल दैनिक जागरण से जुड हुए हैं और अवकाश लेकर पत्रकारिता विभाग के छात्र आंदोलन के हमकदम हैं.)

विश्वविद्यालय प्रशासन की संवादहीनता शर्मनाक

-विश्वविद्यालय की चुप्पी पर पत्रकारिता छात्रों ने की प्रेसवार्ता

इलाहाबाद 15 सितम्बर 09. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के छात्रों का आंदोलन आज 13 वें दिन भी जारी रहा। शिक्षा के निजीकरण और पत्रकारित विभाग के समानान्तर कोर्स चलाये जाने के संबध में विश्वविद्यालय के मठाधीशों के द्वारा मीडिया जगत में फैलाये गये भ्रम को दूर करने के लिए आज छात्रों ने पत्रकारों को विशेष जानकारी देने के लिए प्रेस वार्ता की। पत्रकारों से बातचीत के दौरान विभाग के छात्रों ने बताया कि 13 दिन से लगातार चल रहे आंदोलन पर विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनकी मांगो का न तो कोई जवाब दिया और न ही उनके ज्ञापन पर कोई कार्यवायी की। इलाहाबाद जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में अकादमिक संवादहीनता की ऐसी स्थिति को छात्रों ने बेहद शर्मनाक कहा।
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के शिक्षक सुनील उमराव ने कहा- विश्वविद्यालय प्रशासन एक रणनीति के तहत पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के छात्रों के सवालों से बचना चाह रहा है चूंकि यह कोर्स यूजीसी के मानदंडोे के अनुरूप नहीं है। उन्होंने बताया कि बीए इन मीडिया स्टडीज को स्ववित्तपोषित कोर्स सिर्फ एकेडमिक काउंसिल से पास है फिर भी इस कोर्स के प्रवेश के लिए फार्म बेचे जा रहें हैं। जबकि कोर्स अभी कार्यकारिणी परिषद से पास नहीं है। जबकि कार्यकारिणी परिषद से पास न होने के तर्क पर 25 साल पुराने पत्रकारिता एंव जनसंचार विभाग में विश्वविद्यालय प्रशासन ने 2005 से 2007 तक सत्र शून्य रखा। और यहां तक कि पत्रकारिता विभाग के खिलाफ भेदभाव किया गया और उसके विकास के लिए कोई उचित गा्रंट नहीं दी गयी। उन्होंने बताया कि यूजीसे के नियमों के तहत हर विभाग में एक प्रोफेसर, दो रीडर, चार प्रवक्ता होने चादिये लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन इन बातों को नजरंदाज करते हुए सेम वैसे ही कोर्स की निजी दुकाने खोलने के लिए आकुल है और उसके लिए करोड़ों रूपये लगाने के लिए तैयार है। पत्रकारिता विभाग के आंदोलन के बावजूद विश्वविद्यालय के चंद मठाधीशों के हित को देखते हुए कुलपति ने बीए इन मीडिया स्टडीज कोर्स के फार्म बेचने की अनुमति दे दी।
प्रेस वार्ता को संबोधित करते हुए छात्रों ने प्रोफेशनल स्टडीज के कोर्साें को डेलीगेसी भवन में चलाने पर भी सवाल उठाया। उन्होंने विश्वविद्यालय प्रशासन से डेलीगेसी भवन के हिसाब को सार्वजनिक करने के मांग की क्योंकि हर छात्र से डेलीगेसी के लिए फीस वसूली जाती है। इस दौरान छात्रों ने सेंटर फाॅर फोटो जनैलिज्म में ठेके पर नियुक्त किये गये अध्यापकोें की एकेडमिक योग्यता को भी सार्वजनिक करने की मांग की। छात्रों ने बताया कि बीए इन मीडिया स्टडीज की डिग्री यूजीसी के मानकों के अनुरूप नहीं है बावजूद विश्वविद्यालय के कुछ मठाधीश विश्वविद्याल की छवि तले प्रोफेशन डिग्री के नाम पर कर धन उगाही।

समस्त छात्र
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
9721446201 9889646767,9455474188

16 सित॰ 2009

केंद्रीय विश्वविद्यालय या डिग्रियों की दुकान

ऋषि कुमार सिंह

सरकार और एक दुकानदार में कोई फर्क होना चाहिए या नहीं....लेकिन पिछले कुछ दिनों से यह फर्क मिटता जा रहा है। इसके कुछ लैंडमार्क उदाहरण देखे जा सकते हैं। शिक्षा को बाजार के हवाले किया जा रहा है,यानी आज की उच्च शिक्षा उनकी बपौती बनती जा रही है,जिनके पास मंहगी फीस चुकाने की कूबत है। डिग्रियों के बेंचने का उद्यम जो अभी तक निजी क्षेत्र के जिम्मे रखा गया था,मौद्रिक लाभ के मनोविज्ञान के तहत जनकल्याणकारी सरकार ने भी अपना लिया है। यही कारण है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग होने के बावजूद पत्रकारिता का स्ववित्तपोषित कोर्स शुरू किया गया है। जिसके विरोध में सड़कों पर उतरे छात्रों ने विश्वविद्यालय प्रशासन की साजिश को किसी तरह से न मानने की चेतावनी दे दी है। इस कोर्स को शुरू करते समय यू.जी.सी के नियमों को ताक पर रख दिया गया है। जाहिर है कि महज मंहगी फीस के जरिए ही हिंदी पट्टी में उन परिवारों के हजारों सपनों को मार देने की साजिश की जा रही है,जो अपने बच्चों को इलाहाबाद भेजकर उच्चशिक्षा दिलाने का सपना संजोते हैं। इलाहाबाद में रहना और पढ़ाई करना देश दूसरे हिस्सों की तुलना में कम खर्चीला है। (ज्यादा जानकारी के लिए-वरिष्ठ पत्रकार अनिल यादव का लेख-नई पीढ़ी पर पढ़ें)।ऐसे में यह सवाल लाजमी है कि एक ही विश्वविद्यालय में दो समानान्तर विभागों को चलाने का मकसद क्या है.... ? इलाहाबाद विश्वविद्यालय का यह कदम उस बड़ी कवायद का हिस्सा है, जिसमें यथास्थितिवाद को मजबूत करने की कोशिश हो रही है। यथास्थितवाद को बरकरार रखने के लिए ऐसी सभी प्रक्रियाओं और जगहों को कुतर्कों और साजिशों के जरिए तहस-नहस कर देने की कोशिश हो रही है,जिससे यथास्थितिवाद को खतरा है।
छात्रसंघ को बेहाल करने की साजिश जो बहुत पहले रची गई थी आज लगभग सफल है,क्योंकि प्रशासन अपनी तानाशाही प्रवृत्ति को मजबूत करने के लिए उन सभी अंकुशों से पहले ही निपट लेना चाहती है,जो उसके आड़े आते हैं। अगर विश्वविद्यालय प्रशासन पहले से मौजूद जनसंचार विभाग को मजबूत और सुविधासम्पन्न बनाता तो बिना किसी शक के यहां पर उन तबकों के लोग आते,(अनिल यादव के शब्दों में)जिनके पास सब कुछ है,सिर्फ पैसा नहीं है। ऐसे लोग में पत्रकारीय सरोकारिता का असली ध्वज वाहक बनने की क्षमता है,जो संस्थानिक परिष्कार मिल जाने पर सरकारी या अन्य जगहों पर की जा रही साजिशों के खिलाफ लामबंद होने की पूरी सम्भावना रखते हैं। कुल मिलाकर भविष्य के जनपक्षीय नेतृत्व को जन्म से पहले ही मार देने की कोशिश की जा रही है। ताकि यथास्थितवाद के ढांचे को कोई खतरा न पैदा हो। जहां तक स्ववित्तपोषित कोर्स में ऐसे लोगों की जगह की बात है,तो हम आमदनी के गैर-बराबरी के बंटवारे से यह सहज अंदाजा लगा सकते हैं। इतनी मंहगी फीस जुटाने में वे सभी छात्र असमर्थ होंगे जो ग्रामीण या कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से आते हैं। इन जगहों पर आरक्षित श्रेणी की सीटें खाली रहने की पूरी सम्भावना है जिसको बाद में अन्य वर्ग के छात्रों से भर दिया जाएगा।
मंहगी फीस चुकाकर जो भी समाज में आयेंगे,उनके भीतर पत्रकार कम एक सेल्समैन के गुण दा होंगे,जो सबसे पहले अपनी चुकता की गई फीस के एवज अच्छा भुगतान पाने की कोशिश करेंगे। जल्दी सफल होने के लिए वह सब कुछ करेंगे,जो उन्हें ज्यादा से ज्यादा पैसा दिला सके। क्योंकि मंहगी फीस चुकाने के बाद मौद्रिक लाभ का मनोविज्ञान जकड़ चुका होगा। इसके बारे में मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है कि जिस चैनल में नौकरी कर रहा हूँ। वहां पर इंटर्नशिप करने कई छात्र-छात्राएं आते हैं। उनकी फीस के बारे में जानकारी लेकर जो भी पता चलता है वह हैरत में डालता है। कुल पिछले एक साल में पच्चीसों नए पत्रकारों से मुलाकात हुई है। उनमें एक-दो को छोडकर बाकी सब आभिभूत होने वाले और बॉलीवुड की तर्ज पर पत्रकारिता करने वाले मिले हैं। मंहगी फीस चुकाकर पत्रकार बनने वाली लड़कियों का तो और भी बुरा हाल है। जाने क्या और कैसे तैयार किया गया है कि उन्हें विपाशा वसु हॉट के अलावा कुछ नजर ही नहीं आती और राजनीतिक मुद्दों पर बात करने को बुजुर्गियत मानती हैं।
जब सच्चाई को साफ-साफ यानीं नग्न सत्य देखने की जगह नंगे होकर सत्य दिखाने वाली पत्रकारिता की हवा तेज है,तो ऐसे में इलाहाबाद विश्वविद्यालय का स्ववित्तपोषित पत्रकारिता कोर्स चलाने का फैसला काफी कुटिलता के साथ लिया गया है। क्योंकि नग्नता के इस दौर में चीजों को जानने-समझने और लोगों को जोड़ने वाले पत्रकार इन्ही जगहों से निकल कर सामने आ रहे हैं। इस पूरे फैसले को इस नजरिये भी देखा जाना चाहिए। इसके अलावा इलाहाबाद विश्वविद्यालय अपनी खास किस्म की बौद्धिक संस्कृति के लिए जाना जाता रहा है और इसी लोकप्रियता और विश्वास को भुनाने के लिए स्ववित्तपोषित कोर्स का तरीका निकाला गया है। पहले से मौजूद जनसंचार विभाग में सुधार से यथास्थितिवाद को नुकसान पहुंच सकता था,इसलिए उसे और कमजोर करने और भविष्य में घाटे का उद्यम साबित करने की साजिश की गई है,जो पूरी तरह से जनहित के खिलाफ है,निंदनीय है।

ऋषि आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र और पत्रकार हैं.

जाना होगा धनतंत्र की इस शिक्षा को

कलम तोड़कर
रख दी स्याही हाथ में
कहते है अब तकदीर लिखो
कल के हिंदुस्तान की
गवाह इतिहास है
दौलत की ताकत से
हूकुमत नहीं चला करती


दुनिया का रुख
हो जाता है उस तरफ
चल पड़ता है जिधर
गरीब, किसान, नौजवान और छात्र


देश है इनका
शिक्षा है इनकी
इसका व्यापार नहीं चलेगा
मानवता के पथ की शाला पर
इस तरह से धनवानों
को राज नहीं होगा
जाना होगा धनतंत्र की इस शिक्षा को
क्योंकि लोकतंत्र के असली वारिस
सामने आने लगे हैं
और तोड़ देगें
बाज़ार का ये कुचक्र
भरोसा दिलाने लगे हैं.

-आपका साथी
विनय जायसवाल


साथियों
आप भी इस आन्दोलन में कोई सहयोग या वैचारिक समर्थन देना चाहते हैं तो आपका स्वागत है. आपके समर्थन से इस आन्दोलन में नया उत्साह आएगा. अपने विचार हम तक पहुँचने के लिए आप इन पर मेल कर सकते हैं -
naipirhi@gmail.com, media.rajeev@gmail.com, vijai.media@gmail.com, sandeep9935131246@gmail.com

गरीबों को शिक्षा से वंचित करने की साजिश कर रहा है विश्वविद्यालय: सम्पत पाल

- सामाजिक नेता सम्पत पाल को अराजक बताकर, इविवि प्रशासन ने परिसर में घुसने से रोका

खबरचौरा (इलाहाबाद), 12 सितम्बर 09. पत्रकारिता विभाग के समानान्तर स्ववित्तपोषित कोर्स शुरू किये जाने के खिलाफ छात्रों के निजीकरण विरोधी आंदोलन के समर्थन में आज गुलाबी गैंग की राष्ट्रीय अध्यक्षा सम्पत पाल भी आगे आयीं। पिछले दस दिनों से जारी छात्रों के इस आंदोलन पर चुप्पी साधे हुआ विश्वविद्यालय प्रशासन सम्पत पाल के आने की खबर सुनते ही इस कदर डर गया कि उन्हें परिसर के अंदर घुसने ही नहीं दिया और कहा अराजक लोगों को परिसर में नहीं जाने दिया जायेगा। गेट पर पुलिस प्रशासन के साथ विभाग के छात्रों की घंटों चली बातचीत के बाद संपत पाल को अंदन नहीं दिया गया तो छात्रों ने बाहर निकलकर गुलाबी गैंग के साथ गांधी भवन की ओर मार्च किया।
आज आंदोलन के दसवे दिन छात्रों ने गरीबों और दलितों के हक के लिए लड़ने वाली और गुलाबी गैंग की राष्ट्रीय अध्यक्षा सम्पत पाल को आमंत्रित किया था ताकि उनके माध्यम से अपने इस आंदोलन को गाॅव-देहात तक पहुंचाया जा सके। लेकिन तानाशाह विश्वविद्यालय प्रशासन ने पुलिस के बल पर उन्हें गेट पर रोक लिया। और जब छात्र उन्हें लिवाने के लिए गेट पर पहुंचे तो प्रशासन के नुमाइंदों ने कहा कि अराजक तत्वों को परिसर में घुसने नहीं दिया जायेगा और अगर छात्रों को उनसे बात करनी है तो उन्हें भी परिसर के बाहर जाना होगा। छात्रों ने गुलाबी गैंग के साथ विश्वविद्यालय प्रशासन के इस तानाशाही पूर्ण रवैये के खिलाफ नारे लगाते हुए गांधी भवन तक मार्च किया।
गांधी भवन पहुंचकर छात्रों ने गुलाबी गैंग को विश्वविद्यालय की कालाबाजारी से अवगत कराया। जिस पर सम्पत पाल ने कहा कि विश्वविद्यालय द्वारा शिक्षा को बेचने की जो दुकान खोली जा रही है उससे हमारे गाॅव देहात के गरीब बच्चे कभी भी विश्वविद्यालय का मुंह नहीं देख पायेंगे। ये हम गरीबो को शिक्षा से वंचित करने की साजिश है जिससे हम लोग हमेशा दबे कुचले ही बने रहें और उनकी गलत नीतियों का कोई विरोध न कर सके। उन्होंने छात्रों को उनके इस संघर्ष में गुलाबी गैंग के हर कदम पर साथ देने का भरोसा दिलाया और कहा कि जरूरत पड़ी तो गुलाबी गैंग छात्रों के इस संघर्ष लिए संसद तक जाने को तैयार है।
‘‘सवाल पूंछते रहों’’ अभियान के तहत आज विभाग के छात्र मनोज मिश्रा ने पुस्कालय से सम्बंधित सवाल पूछे।

समस्त छात्र,
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद

आन्दोलन की आग म. प्र. तक

आन्दोलन को मुकाम तक पहुंचाए

साथियों !
हमें ये जानकार बहुत अच्छा लगा की पत्रकारिता के छात्र एक बार फिर हक़ की लड़ाई के लिए आगे आये है. हम यहाँ आपसे अपने भी छात्रजीवन के अनुभव बाटना चाहेंगे. हमने भी अगस्त 2008 में ग्वालियर(मध्य प्रदेश) के जीवाजी यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता विभाग में हो रही अनियमितताओं के लिए आन्दोलन किया था. हमारा आन्दोलन भी कुछ हद तक सफल रहा लेकिन उतना नहीं जितना होना चाहिए. आन्दोलन खडा करना और बनाए रखना बहुत टेढी खीर है. क्यूंकि समय के साथ कई छात्रों के हौसले टूटने लगते है, तो कभी छात्र उस हक़ के लिए नहीं लड़ना चाहते जिसका लाभ उन्हें नहीं मिल सकता. क्यूंकि हमारी यूनिवर्सिटी के नियम कानून इतने पेचीदे होते है की उन्हें पूरा होने में ही लम्बा अरसा गुजर जाता है.
हालाँकि हम सभी को आप लोगों के आन्दोलन से काफी उम्मीदे हैं. हम लोग आप लोगों के इस पूरे आन्दोलन के साथ हैं. आपके इस आन्दोलन से छत्रों को एक नई दिशा मिलेगी, इस उम्मीद और शुभकामनाओं के साथ,

निहारिका श्रीवास्तव, लोकेन्द्र सिंह, हरि कृष्ण विभोर शर्मा, दीप्ती, सीनू जैन और साथी
एमजेएमसी (अंतिम वर्ष)
जीवाजी यूनिवर्सिटी,
ग्वालियर(मध्य प्रदेश)


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हम आपके साथ हैं !

इलाहाबाद विश्वविद्यालय एक बार फिर तानाषाहियों के द्वारा लगायी आग में जल रहा है. विश्वविद्यालय मे छात्रो के शिक्षा स्तर में बजाये गुणवत्ता देने के विद्यार्थियो के मूल अधिकारो को भी छीना जा रहा है. कुछ शिक्षा स्वार्थियो ने विश्वविद्यालय को गर्त में गिराने की ठान ली है, सुधार व विकास में दिए जा रहे हजारों करोड़ो रूप्यो में विश्वविद्यालय का सुधार व विकास तो हाषिये पर चला गया है लेकिन इन शिक्षा स्वार्थियो की जेबे जरूर भरी जा रही है. छात्रों ने जब इस कोर्स का लोकतांत्रिक विरोध करना षुरू किया तो विश्वविद्यालय प्रषासन यू0 पी0 की,बदनाम पुलसिया राज के सहारे सात छात्रों को जेल डलवा दिया तथा छा़त्रो को निषाना बनाकर उनके आंदोलन को कुचलने की कोषिष की, वहीं विश्वविद्यालय में अकेले पत्रकारिता विभाग को कई सालो से जिंदा रख रहे विभागाध्यक्ष सुनील उमराव भी छात्रों के साथ आन्दोलन मे षामिल है. विडम्बना है कि भारत में अपने पत्रकारिता के मूल्यों को बनाए रखने वालें इलाहाबाद में आज इलाहाबाद वि0 वि0 के पत्रकारिता विभाग को बदतर हाल में झोंका जा रहा है। इलाहाबाद वि0 वि0 के छात्र लगातार आन्दोलन को तेज कर रहे हैं, वहीं विष्वविद्यालय शासन बहरा और गूंगा बनकर छात्रो के आंदोलन को कुचलने पर आमदा है।
एसे में हम सभी माखनलाल चर्तुवेदी प़त्रकारिता वि0 वि0 के छात्र इस आन्दोलन को एक दिषा देने की कोषिष करेगें। कब तक हम छात्रों के अधिकारों का हनन होता रहेगा, उठाओ आवाज हमारे साथ इन दमनकारियों को हमे ही हराना होगा, हम सभी माखनलाल चर्तुवेदी प़त्रकारिता वि0 वि0 के छात्र आन्दोलन मे षामिल हो सभी छात्रांे से अपील करते हैं कि अपने विचारो से आन्दोलन को गति दें।

विवेक मिश्रा, आशीष चौरसिया, शोभित शर्मा, अंशुमान सिंह, प्रकाश पाण्डे, आदित्य मिश्रा, भूपेन्द्र पाण्डे, जीतेश श्रीवास्तव, प्रत्यूष मिश्रा, ललित कुचालिया, जयदेव, क्षितिज, शंकर, सनद गुप्ता, अभिमन्यू सिंह, जितेन्द्र चौबे, सौरभ श्रीवास्तव, रूबी सिंह, ज्योत्सना, रजनीश पाण्डे, रोहित सिंह एवं

समस्त छात्र
पत्रकारिता व जनसंपर्क विभाग,
माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय,
भोपाल, मध्य प्रदेश


साथियों
आप भी इस आन्दोलन में कोई सहयोग या वैचारिक समर्थन देना चाहते हैं तो आपका स्वागत है. आपके समर्थन से इस आन्दोलन में नया उत्साह आएगा. अपने विचार हम तक पहुँचने के लिए आप इन पर मेल कर सकते हैं -
naipirhi@gmail.com, media.rajeev@gmail.com, vijai.media@gmail.com, sandeep9935131246@gmail.com

इलाहबाद विश्वविद्यालय बना निजीकरण विरोधी छात्र आंदोलन का केंद्र

सविता वर्मा
दैनिक भास्कर से

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में चल रहे निजीकरण विरोधी आंदोलन पर पत्रकारों द्वारा सवाल पूछने पर कपिल सिब्बल की चुप्पी ने आंदोलन को और मुखर कर दिया है। इस आंदोलन के समर्थन में पूरे देश से समाजसेवी-बुद्धिजीवी समेत देश के कोने-कोने से छात्रों के प्रतिनिधि मंडल इलाहाबाद पहुंचने लगा हैं। वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी, अनिल चमड़िया, संदीप पांडे, सुभाषनी अली, सुभाष गताड़े समेत देश भर के सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों ने इस आंदोलन का समर्थन करते हुए जल्द इलाहाबाद पहुंचने की बात कही है। तो वहीं बुंदेलखंड की गुलाबी गैंग की सम्पत पाल ने भी इस आंदोलन का समर्थन करते हुए शनिवार को विश्वविद्यालय पहुंचकर समर्थन देने का ऐलान किया है। यह आंदोलन तब भड़का जब विश्ववि़द्यालय में पत्रकारिता विभाग के समनांतर यूजीसी के मानदंडों को धता बताते हुए पत्रकारिता के एक और सेल्फ फाइनेंस कोर्स की शुरुआत कर दी गयी।

दस दिन से चल रहे इस आंदोलन ने विश्वविद्यालय प्रशासन की नींद हराम कर दी है। निजीकरण के सवाल पर बेजवाब हो चुके कुलपति प्रो0 आरजी हर्षे ने पहले तो आंदोलन को दबानेे के लिए पत्रकारिता विभाग के शिक्षक सुनील उमराव जो आंदोलन में छात्रों के हमकदम हैं को नोटिस जारी किया। पर कभी गुलाब के फूल बांट कर तो कभी गुब्बारे लेकर चल रहे रचनात्मक आंदोलन की लोकप्रियता के चलते जब विश्वविद्यालय प्रशासन आंदोलन को रोक नहीं पाया तो उसने इस आंदोलन से उपजे छात्रसंघ की मांग करने वाले आंदोलन का दमन कर पूरे कैंपस को संगीनों की छावनी में तब्दील कर दिया। पिछले तीन दिनों से जहां भी प्रतिरोध हो रहा छात्रों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा जा रहा है और जेलों में ठूंसा जा रहा है। पर पत्रकारिता विभाग के छात्रों को शहर के बुद्धिजीवियों और छात्रों से मिल रहे सहयोग के कारण विश्वविद्यालय प्रशासन को उनकी आवाज दबाना महंगा लग रहा है। क्योंकि छात्र ‘सवाल पूछते रहो’ अभियान के तहत हर दिन विश्वविद्यालय प्रशासन से तीन सवाल पूछ रहे हैं जिससे आगे चलकर विश्वविद्यालय प्रशासन का काला चिट्ठा सामने आ जाएगा।

विश्वविद्यालय प्रशासन के लिए नया शुरु हुआ सेल्फ फाइनेंस कोर्स बीए इन मीडिया स्टडीज गले की हड्डी बन गया है। क्योंकि अगर वह अपने काले चिट्ठों को छिपाने के लिए कोर्स को वापस ले लेता है तो विश्वविद्यालय में चल रहे दर्जन भर सेल्फफाइनेंस कोर्सों पर सवाल उठ जाएगा। अगर इसे जारी रखता है तो आंदोलन पूरा काला चिट्ठा सबके ला देगा। इन सवालों से बचने के लिए कुलपति छुट्टी के बहाने इलाहाबाद से बाहर चले गए है। जहां एक ओर कुलपति इसे दो विभागों का झगड़ा बताकर अपना पल्ला झाड़ रहे हैं वहीं दूसरी ओर विश्वविद्यालय के सूत्रों के अनुसार सेल्फफाइनेंस कोर्स चलाने के लिए जिस सेंटर की स्थापना की गयी है वो विश्वविद्यालय के संसद द्वारा पारित अधिनियम में ही अस्तित्वहीन है। फिर ऐसे में विभागों का झगड़ा कह विश्वविद्यालय प्रशासन अपने ही नियम कानूनों को धता कर निजीकरण की बयार में बहता नजर आ रहा है। बात इतनी ही नहीं है किसी भी नए कोर्स को संचालित करने के लिए विद्वत परिषद के बाद कार्यपरिषद से स्वीकृत होना आवश्यक है।

पत्रकारिता विभाग के शिक्षक सुनील उमाराव बताते हैं कि जिस बीए इन मीडिया स्टडीज को शुरु किया जा रहा है उसी स्तर के कोर्स बीजेएमसी को 2005 में विश्वविद्यालय के केंद्रीय दर्जा पाने के बाद अवैध बता बंद कर दिया गया था। जिसके बाद एम इन मास कम्युनिकेशन कोर्स जो वर्तमान में चल रहा है को सेल्फफाइनेंस में चलाने का दबाव बनाया गया। इस संघर्ष में विद्वत परिषद से पास होने के बाद भी दो साल तक कार्यपरिषद से मंजूरी न मिलने के चलते विभाग बंद रहा। तब ऐसे में सवाल लाजिमी है कि कार्यपरिषद की मंजूरी के बगैर बीएइन मीडिया स्टडीज को कैसे शुरु किया जा सकता है। जिसका जिक्र्र विश्वविद्यालय की आधिकारिक वेब साइट में भी नहीं है। यहां यह भी जानना दिलचस्प होगा कि इस फर्जीवाड़े में शामिल लोगों ने विश्वविद्यालय की वेब साइट के इतर एक अलग वेब साइट बना रखी है जिसमें सेल्फफाइनेंस डिग्रियों की दुकानों की जानकारी दी गयी है, जबकि विश्वविद्यालय की साइट में इनका कोई जिक्र नहीं है।

इस नए कोर्स की रुपरेखा तय कर विद्वत परिषद के सामने प्रस्ताव रखने वाले धनंजय चोपड़ा जो प्रोफेशनल स्टडीज में ठेके पर रखे गए अध्यापक हैं पर भी सवाल उठ रहे हैं कि उन्हें किसने यह अधिकार दिया। विश्वविद्यालय की इस सेल्फफाइनेंसों की शतरंजी बिसात को नियंत्रित करने वाले प्रो0 जीके राय हैं। जिनके बारे में आइसा के सचिव सुनील मौर्या का कहना है कि वो 2002 में विश्वविद्यालय में सेल्फफाइनेंस कोर्सों के पैदा होने के बाद से ही वे अनवरत निदेशक पद पर काबिज हैं। जबकि 2005 में केन्द्रीय विश्वविद्यालय बनने के बाद 2007 में आए रोटेशन सिस्टम जिसे जनवरी 08 में लागू किया गया के तहत कोई भी प्रो0 दो साल तक ही विभागाध्यक्ष या डीन रह सकता है। जीके राय अपना स्पस्टीकरण देते हुए कहते हैं कि विद्वत परिषद में कोर्स पास होने के बाद आश्यक नहीं कि उसे कार्यकारिणी परिषद के समक्ष ले जाया जाय, उसे कुलपति जो कार्यकारिणी परिषद के अध्यक्ष हैं अपने विवेक से चलाने की मंजूरी दे सकते हैं।

यहां जानना बड़ा दिलचस्प होगा कि जिस तरह कुलपतियों के ‘विवेक’ पर जीके राय लंबे समय से बने हैं ठीक उनका कोर्स भी उसी फार्मूले के तहत है। पर यहां सवाल इसी पर उठता है कि बिना आधिकारिक व्यक्ति के इस कोर्स को कैसे विद्वत परिषद ने मंजूरी दे दी। हिंदी विभाग के प्रो0 सूर्यनारायण सिंह कहते हैं कि जिस बाजारु पत्रकारिता कोर्स की बात की जा रही है उसका पाठ्यक्रम पहले से चल रहे एमए इन मास काम्युनिकेशन से मिलता जुलता है। ऐसे में एक ही कोर्स के समानांतर दूसरा कोर्स यूजीसी के मानदंडों पर ही नहीं उतरता। इसे सिर्फ और सिर्फ धन्धा करने के लिए खोला जा रहा है क्योंकि अगर उसी पाठ्यक्रम के लिए छात्र मात्र 14 हजार रुपए देता है तो आखिर क्यों उसके लिए डेढ़ लाख रुपए वसूला जाएगा।

यहां गौरतलब है कि केंदीय विश्वविद्यालय का दर्जा मिलने के बाद हर साल आ रहे पैसों को जब विश्वविद्यालय खर्च नहीं कर पा रहा है और पैसा वापस लौट जा रहा है तब क्यों संसाधनों का रोना रो कर सेल्फफाइनेंस कोर्सो को लाया जा रहा है। आंदोलन को स्वरुप राष्ट्रव्यापी हो गया है महत्मा गांधी अन्तर्राष्ट्री हिंदी विश्वविद्यालय, भारतीय जंनसंचार संस्थान नई दिल्ली, जामिया मिलिया विश्वविद्यालय, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय समेत देश भर के छात्रों का जल्द जमावड़ा हेगा इलाहाबाद में।

साथियों! अपने इस आन्दोलन की खबर को दैनिक भास्कर (12 सितम्बर,09) ने प्रमुखता से प्रकाशित किया है.

कम्पनी बाग में देसी फूल

साथियों,

आज पत्रकारिता के निजीकरण विरोधी आंदोलन का पहला चरण समाप्त हुआ दूसरे चरण की शुरुआत होने के साथ ही आन्दोलन को तोड़ने वाले तत्व और अधिक सक्रिय हो गए हैं। साथियों ऐसे दौर में जब हमारे कुलपति एक तरफ गांधीवादी होने का ढिढोरा पीटते हैं तो दूसरी तरफ विश्वविद्यालय को दुकान में तब्दील करने में लगे लोगों की हर संभव मदद कर रहें हो तो ऐसे में हमारे वरिष्ठ पत्रकार अनिल यादव का अमर उजाला में अगस्त 2000 में छपा लेख ‘कंपनी बाग में देसी फूल’ आज फिर प्रासंगिक हो उठा है। लेख वैसे तो सालों पुराना है फिर भी आज विश्वविद्यालय और इस पूरे पूर्वांचल और बुन्देलखंड से आए लाखांे छात्रों की आकंाक्षाओं को अभिव्यक्त करता है। पर विश्वविद्यालय को कुछ लोग अचार की दुकान में तब्दील करना चाहतें है. साथियों यह कोई जुमला नही है। प्रोफेशनल स्टडीज के नाम पर हमारे सम्मानित महोदयों ने अचार ही नही रेडिमेड़ कपड़ों की फैक्टरी भी खोल ली है इसी ओवरकांफिडेंस में अब वे कैमरामैन और रिपोर्टर की फैक्टरी खोल रहे हैं। ये सही है कि अपना धंधा बढाने का सबको सवैधानिक अधिकार है पर विश्वविद्यालय को तो बक्श ही देना चाहिए था। पता नही किस ‘‘भावना’’ से फेरी वाले यूनिवर्सिटी में चक्कर नही लगाते। हमारे सम्मानित मास्टरों को तो इस भावना का तो ख्याल रखते हुए फेरी वालो से ही सीख लेनी चाहिए। इसी भावना का आदर करते हुए हमारे फुटपाथ के दुकानदार भाई यूनिवर्सिटी के बाहर सड़को पर दुकान लगाते है।
ऐसे में जब कुलपति जैसा पढ़ा-लिखा व्यक्ति मानसिक रुप से दिवालिया होकर पूरे विश्ववि़द्यालय को बंेच-खाने पर उतारु हो तो हम चाहते हैं कि आप इस बीमार व्यक्ति को ‘‘जादू की झप्पी’’ देकर ‘‘गेट वेल सून मेंटली’’ बोले।
लेकिन सावधान! इस बीमार के बारे में यहां बताना जरुरी होगा कि ये फोन करने पर एफआईआर की धमकी देने की ब्लैकमेंलिग भी करते हैं और बात बढ़ जाने पर कर भी देते हैं। एक सूचना के मुताबिक पिछले दिनों विश्वविद्यालय में छात्रों को मुर्गा बनाने की घटना पर जब जनसत्ता के पत्रकार राघवेंद्र प्रताप सिंह ने इनसे पूछा तो इन्होंने बताया कि मैं राज्यपाल का प्रतिनिधि हू. मुझसे बात नहीं कर सकते मैं मुकदमा कर दूंगा और दूसरे दिन इस बीमार व्यक्ति ने राघवेंद्र पर मुकदमा भी कर दिया। इन्हें यह भी बताना होगा कि वो राज्यपाल नहीं बल्कि राष्ट्रपति के प्रतिनिधि हैं। और जितनी भी हमें जानकारी है उसके अनुसार कुलपति से सार्वजनिक तौर पर कोई भी व्यक्ति बात कर सकता है और पत्रकार के ऊपर अगर वो मुकदमा करते हैं तो यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है।
खैर बात जो भी हो कुलपति महोदय के विश्वविद्यालय में पद ग्रहण करने के बाद से साल दर साल पदभ्रष्ट हुए हैं। अंदरखाने की ख़बर है कि कुलपति विश्वविद्यालय में सक्रिय शिक्षा माफियाओं के दबाव में काम कर रहें है।
हम कुलपति महोदय का मेल और फोन नंबर सार्वजनिक करते हुए कंपनी बाग में देसी फूल लेख को भी प्रस्तुत कर रहे हैं।

मोबाइल नं0 - 09935354578
rgharshe@gmail.com
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कम्पनी बाग में देसी फूल

अनिल यादव

उन्हे यहां देखकर अनायास पीटर्सबर्ग में पढ़ने वाले दोस्तोवस्की के आत्मपीड़ा में डूबे छात्र याद आते हैं। प्रयाग में खड़े होकर पीटर्सबर्ग को याद करने की वजह कोई बौद्धिक चोंचलापन नहीं है, सीधी सी बात यह है कि सड़कों पर और गलियों में सबसे अधिक वही दीखते हैं, फिर भी अपने साहित्य में कहीं नजर नहीं आते यह हिन्दी के बाबू टाइप के लेखकों का मोतियाबिन्द है, उसकी वजह से दोस्तोवस्की और चेखव से उधार मांग कर काम चलाना पड़ता है। साहित्य ही क्यों वे नाटकों , फिल्मों, अखबारों में भी नजर नहीं आते। हिन्दी में छात्रों के नाम पर अक्सर गुनाहों का देवता मार्का ‘चंदर’ ही नजर आते हैं जो भूरे रंग की सैंडिल पहनते हैं, जिनके माथे पर बालों की एक लट लापरवाही से झूलती रहती हैं और जिनकी मोहनी मुस्कान पर लड़कियां निसार हुयी रहती हैं। जिन्दगी भर दलिद्दर भोगने के बावजूद हिन्दी का लेखक पता नहीं क्यों यर्थात् से मुंह चुराते हुए हाय चंदर हाय चंदर करता रहता है । सोने से दिल और लोहे के हाथों वाले ये लड़के कभी कभार फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यासों मे जुगनु की तरह चमक उठते हैं फिर अंधियारे में खो जाते हैं, बहुत ढूंढने पर एक काशीनाथ सिंह मिले, जिन्होनें ‘अपना मोर्चा’ में ‘ज्वान’ के जरिए विश्वविद्यालय को लेकर एक फंतासी बयान की है। ‘अपना मोर्चा’ शायद हिन्दी का अकेला दुबला-पतला उपन्यास है जिसमें ऐसे छात्रों की कहानी कही गयी है, जो जब एडमिशन लेने आते थे तो उनके बालों में भूसे के तिनके फंसे होते थे और घुटनों पर बैलों की दुलत्ती के निशान पाये जाते थे। जो सड़क पर गुजरते बैलों को ‘सोकना’ और ‘धौरा’ कहकर पहचानते थे, जो घर से सतुआ, पिसान और गुड़ लाते थे और जिनकी जांघें लंगोट की काछ से बरसात के दिनों में कट जाया करती थीं। उपन्यासों और कहानियांे से बेदखल हो कर वे कहीं गये नहीं, वे यहीं हैं, हमारे अगल-बगल और पड़ोस में, वे इन दिनों भी डिग्री वाले विश्वविद्यालय से लेकर जीवन के टेढ़े मेढ़े गलियारों तक अपने अस्तित्व की पीड़ा भरी खामोश लड़ाई लड़ रहे हैं। हो यह रहा है कि बाजार, कंपनियां, विश्वविद्यालय, सरकार और मीडिया इन दिनों छात्रों की जो चिकनी-चिकनी प्यारी-प्यारी छवियों बेच रहें हैं, उनकी चकाचैंध में धूप से पक कर कांसा हुए चेहरों वाले ये लड़के कहीं किनारे भकुआए खड़े रह जाते हैं, उन पर किसी की नजर नहीं जाती।

उनसे मिलना है तो आजकल किसी दिन दुपहरिया में कंपनी बाग आइए, विक्टोरिया टाॅवर के पास किसी झुरमुट में तीन छल्ले की झूलन सीट और चैड़े कैरियर वाली इक्का दुक्का साइकिलें दिखेंगी, गियर वाली डिजाइनर छरहरी साइकिलों के बीच वे चैड़ी हड्डियों वाले मजबूत देहाती की तरह लगती हैं। इन्हें वे गांव से अपने साथ लायें हैं। किसान परिवार में और एक जोड़ा मेहनती हाथ जोड़ने की जरूरत के चलते वे बहुत कम उम्र में ब्याह दिये जाते हैं। इन दिनों सरकार यह कह रही है कि धनी परिवारों के छात्र ही विश्वविद्यालय में पढ़ने आते हैं इसलिए उच्च शिक्षा के सस्ते होने का कोई औचित्य नहीं है। यह महान सूत्र खोजने वाले जड़ जमीन से कटे नेताओं और बाबूओं को जान लेना चाहिए कि जिन्हे अब भी दहेज में यह साइकिल, चपटे माॅडल वाली एचएमटी सोना घड़ी और बाजा मिलता है, वे इन्ही विश्वविद्यालयों में पढ़ते है और उनकी तादात बहुत ज्यादा है। उनका किसी बैंक में कोई खाता नहीं है, जिसमें उनके मां बाप के भेजे चेक जमा होते हांे। वे हर महीने गांव जाते हैं और अनाज बेचकर पढ़ाई का खर्चा लाते हैं। वे औने पौने अनाज बेचने की तकलीफ जानते हैं इसीलिए घरों से शहर वापस लौटते हुए जेब भरी होने के बावजूद गुमसुम रहतेे हैं। वे हमारे गांवों के सबसे होनहार लोग हैं जो बहुत ही क्रूर और सघन सामाजिक चयन से गुजरकर यहां पहुंचते हैं। वे अपने घर और ससुराल के आशाओं के केन्द्र हैं। वे खिड़कियां हैं जो सपनों की आधुनिक दुनिया में खुलती हैं। इन्ही सपनों में झूलते ढेर सारे गांव जीते हैं।
वे यहां कंपनी बाग की मुलायम अभिजन दूब पर बैठकर उंचे रुतबे की नौकरियों के लिए हर साल होने वाली प्रतियोगी परिक्षाओं की तैयारी करते हैं कलेक्टर, कत्तान या मुंसिफ होना उनके लिए बहुत दूर का सपना है। इस सपने की बात छाड़िये, उनका पीछा करने में ही बड़ा थ्रिल है। वे इसी रोमांच में जीते है। कंपनी बाग के रुमानी झुरमुटों में किताबों के साथ होना भी उनके लिए बड़ी बात चीज है क्योंकि वे सस्ते किराए की जिन कोठरियोें में रहते हैं पकाते है, वहां हवा और रोशनी आने की मनाही है। वहां काइयां और लोलुप मकान मालिकों की पाबंदियां और नखरे है। चालीस वाॅट से ज्यादा पाॅवर का बल्ब जलाने पर कोई बल्ब फोड़ देता है तो कोई रात में पाखाने में ताला लगाकर सोता है।ये लड़के किरासिन तेल की तलाश में जेब में परिचय पत्र और हाथ में कनस्तर लिए लाइनों में लगते हैं खर्च चलाने के लिए ट्यूशन पढ़ाते हैं। सेकेंड हैंड किताबें और किलो के भाव बिकने वाली काॅपियां तलाशते हैं। शहर की इन अंधेरी कोठरियों और क्लास में टिके रहने की जद्दोजहद ही इनमें से कइयों को इतना थका डालती है कि उनकी टहनियों पर कमीजंे लटकती मिलती हैं।
किताबों के इर्दगिर्द उंहे देखकर यह नतीजा निकालना कत्तई गलत होगा कि ये लड़के बहुत मेधावी हैं और उन सबमें ज्ञान की अदम्य पिपासा है। इनमें से ज्यादातर के लिए शिक्षा हंसिए जैसा कोई औजार है जिसमें वे अपने भविष्य के रास्ते पर उगे झाड़-झंखाड़ की निराई करते हैं। अगर उनकी मेधा जाननी है तो उंहे लार्ड मैकाले के नही किसी और पैमाने पर जांचिए। आप इनमें किसी को अंगे्रजी में सोशियोलाॅजी लिखने को कहें और वह सुशीला जी लिख दे तो हंसिए मत, वे आपको आधुनिक वर्णाश्रम और जातिवाद की सामाजिक इंजिनियरी कई दिनों तक लगातार पढ़ा सकते हैं क्योंकि इसे उन्होने पढ़ा और सुना नही, भोगा और जिया हैै।
अभी-अभी ग्राम पंचायतों के चुनाव बीते हैं, उसमें वे गले-गले डूबे थे। जातिवाद राजनीति का एक-एक पेंच वे जानते हैं आने वाले दिनों में इस चुनाव से उपजे नए दोस्ती और दुश्मनी के समीकरणांे का दंश भी वे झेलेंगे। इनमें से कितने ऐसे हैं जो जर-जमीन के झगड़ों की तारीखों पर हर तीसरे महीने मुफस्सिल की कचहरियों में जाते है उंहे भारतीय यथार्थ की गहरी समझ है लेकिन उनके पास प्रोफेसरों के बौद्धिक लटक-झटके और अदांए नही हैं कि वे उसे वातानुकूलित सभागारों में बयान कर सकें। कभी-कभी इलीट और काॅमनर के बीच की चैड़ी सांस्कृतिक खाई और कभी-कभी तो हमारी शिक्षा पद्धति ही चीन की दीवार बन जाती है।
यथार्थ की इस समझदारी और समाज से उनके गहरे सरोकारों की वजह से ही वे हमेशा संघर्षाें के बीच फंसे नजर आते हैं। याद कीजिए आपने आखिरी बार जो छात्रों का जूलूस देखा था उसके सबसे अधिक चेहरे कैसे थे? यही हैं वे जो लाठी चार्ज के बाद अस्पताल में और गिरफ्तारी के बाद जेलों में सबसे अधिक पाए जाते हैं।वे चुपचाप लड़ते हैं और इस संघर्ष का कभी प्रतिदान नही मांगते और न ही शहरी बाबुओं की तरह ‘आई हेट पालिटिक्स’ जैसे जुमले बोलकर नकली हंसी हंसते हैं।
उनके बारे में इतनी बातचीत का सबब, एक अध्यापक का वो बयान है जिसमंे उन्होने कहा है कि उच्चशिक्षा सरकार का संवैधानिक दायित्व नही है। यह अध्यापक संयोग से भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री भी हैं इधर देश की सरकार दुकानदार जैसा सलूक कर रही है जो शिक्षा को उन्हीं लोगों के हाथों बेंचना चाहता है, जो उसकी ज्यादा क़ीमत दे सकें। यही वजह है कि फीसें धुआधार बढ़ी हैं। और विश्वविद्यालय में सीटें कम हो रही हैं। ऐसे पाठ्यक्रमों को प्रात्साहित किया जा रहा है जिंहे पढ़कर अधकचरी जानकारी वाले आपरेटर, सेल्समैन और मैनेजर पैदा होतें हैं। इनका अपने ध्ंाधे और पैसे के अलावा और किसी चीज से सरोकार नही होता। इस कठिन समय में गांवों के ये लड़के कहां जायेंगे? क्योंकि उनके पास पैसा ही नही है, बाकी सब कुछ है। कोई ताज्जुब नही कि आने वाले दिनों में आपको विश्वविद्यालय परिसरों में से लड़के न दिखाई पड़े। वे कंपनी बाग के खिले देशी फूल हैं। उन्हे जी भरकर देख लीजिए।क्या पता कल रहें न रहें

(साभार अमर उजाला, 17 अगस्त 2000 को प्रकाशित)

एक आग तो बाकी है अभी

प्रतिभा कटियार

इस महत्वपूर्ण आन्दोलन के कई सुखद पहलू हैं. एक तो यही कि पत्रकारिता का पहला पाठ ये छात्र खुद ही लिख भी रहे हैं और पढ़ भी रहे हैं. ऐसे आन्दोलनों ने हमेशा इस विश्वास को जिलाए रखा है कि दौर कितना भी मुश्किल हो, काफी कुछ है जिसे बचाया जाना चाहिए. देश के कई हिस्से में लोगों को आन्दोलित भी कर रहा है ये आन्दोलन.
सबको बधाई!


एक आग तो बाकी है अभी
उसकी आंखों में जलन थी
हाथों में कोई पत्थर नहीं था।
सीने में हलचल थी लेकिन
कोई बैनर उसने नहीं बनाया
सिद्धांतों के बीचपलने-बढऩे के बावजूद
नहीं तैयार किया कोई मैनिफेस्टो।
दिल में था गुबार कि
धज्जियां उड़ा दे
समाज की बुराइयों की ,
तोड़ दे अव्य्वास्थों के चक्रव्यूह
तोड़ दे सारे बांध मजबूरियों के
गढ़ ही दे नई इबारत
कि जिंदगी हंसने लगे
कि अन्याय सहने वालों को नहीं
करने वालों को लगे डर
प्रतिभाओं को न देनी पड़ें
पुर्नपरीक्षाएं जाहिलों के सम्मुख
कि आसमान जरा साफ ही हो ले
या बरस ही ले जी भर के
कुछ हो तो कि सब ठीक हो जाए
या तो आ जाए तूफान कोई
या थम ही जाए सीने का तूफान
लेकिन नहीं हो रहा कुछ भी
बस कंप्यूटर पर टाइप हो रहा है
एक बायोडाटा
तैयार हो रही है फेहरिस्त
उन कामों को गिनाने की
जिनसे कई गुना बेहतर वो कर सकता है।
सारे आंदोलनों, विरोधों औरसिद्धान्तों को
लग गया पूर्ण विराम
जब हाथ में आया
एक अदद अप्वाइंटमेंट लेटर....

(कविता प्रतिभा की दुनिया से साभार)

युवाओं में जोश बचा है...


आंदोलनरत साथियों!

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जारी पत्रकारिता के छात्रों के आंदोलन की ख़बर पढ़कर अच्छा लगा कि आज भी युवाओं में वह जोश बचा हुआ है जो हर जुल्म और अन्याय के ख़िलाफ़ मुट्ठी तान कर खड़ा हो जाता है. आज जिस तरह देशभर में पैसे का बोलबाला बढ़ता जा रहा है और कुछ लोग यह समझने लगे हैं कि पैसे के बल पर सबकुछ खरीदा जा सकता है.और कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सबकुछ बेचना चाहते हैं. ऐसे लोगों को
हराने के लिए ऐसे आंदोलनों की सख़्त ज़रूरत है. मैं आपके इस आंदोलन का पूरी तरह से समर्थन करता हूं. हम आज ऐसे समय में रह रहे हैं जब देश के किसी भी हिस्से से छात्र आंदोलन की ख़बर तक नहीं आती है.लगता है युवा सो गए हैं. ऐसे समय में आपका आंदोलन एक नई किरण के रूप में नज़र आ रहा है. आज जब भूमंडलीकरण के इस दौर में हम युवा अपने करियर से आगे कुछ देख-सुन नहीं पाते हैं. हमारे आसपास क्या हो रहा है, हम उससे भी बेख़बर रहते हैं. शायद यह इसी का नतीज़ा है कि आज देशभर में शिक्षा का नीजिकरण अपने चरम पर हैं. विश्वविद्यालयी शिक्षा का स्तर एकदम से गिर गया है.विश्विवद्यालय डिग्री बेचने के केंद्र बन गए हैं. आज ऐसे समय मुझे 90 के दशक के शुरुआत में हुए आरक्षण विरोधी आंदोलन को चलाने वाले उन दोस्तों की याद आ रही है जो अपनी जान देने तक को तैयार थे और कइयों ने तो जान दे दी थी.वह आंदोलन चलाने वाले लोग आज न जाने कहां हैं.
आज जब पैसे के दम पे कोई भी डिग्री ख़रीद ली जा रही है तो, उनके पास इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने तक की फुर्सत नहीं है.ख़ैर यह समय ऐसी बातों का नहीं है. मुझे उम्मीद है कि आपका आंदोलन अपने रास्ते से भटकेगा नहीं और अपने अंज़ाम तक ज़रूर पहुँचेगा.जिससे देश के दूसरे हिस्से के छात्रों और युवाओं को रोशनी मिलेगी.

क्रांतिकारी सलाम...

आपका
कुमार राजेश
पत्रकार, जनसत्ता
नोएडा, उत्तर प्रदेश
+919818967588

निजीकरण के सवाल पर कपिल सिब्बल ने साधी चुप्पी

- संदीप पाण्डेय ने जताया विरोध
- शिक्षा के बाजारीकरण के विरोध में गुलाबी गैंग भी शामिल
- नारे लिखे गुब्बारे लेकर परिसर में की गांधीगीरी
- सामाजिक कार्यकर्ता अरूणा राय व जामिया मिलिया व वर्धा के छात्रों ने किया समर्थन


खबरचौरा (इलाहाबाद) 11 सितम्बर 09/ पत्रकारिता विभाग को बचाने और निजीकरण विरोधी आंदोलन के सम्बंध में कल दिल्ली में पत्रकारों के सवालों पर कपिल सिब्बल की चुप्पी के खिलाफ छात्रों ने रंगबिरंगे गुब्बारे लेकर परिसर में की गांधीगीरी। आज इस आंदोलन का नेतृत्व गुलाबी गैंग की नेता नीलम पाल और सरोज पाल ने किया। सामाजिक कार्यकर्ता अरूणा राय और मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित संदीप पाण्डेय ने आंदोलन का समर्थन किया तो वहीं जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय नई दिल्ली के प्रवीण मालवीय और सरिता व महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रिय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के छात्रों ने भी अपने समर्थन पात्र भेजें.
पत्रकारिता विभाग के छात्रों ने आज अपनी मांगो पर मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल की चुप्पी के खिलाफ रंग-बिरंगे गुब्बारे लेकर विरोध जताते हुए मांग की कि कपिल सिब्बल इसका जवाब दें। छात्रों ने कहा कि हमारे निजीकरण विरोधी आंदोलन पर न तो विश्वविद्यालय प्रशासन जवाब दे रहा और न ही सरकार। ऐसे में आज हमने नारे लिखे गुब्बारों के माध्यम से अपनी मांगो को रखा। जिनपर लिखा था ‘‘शिक्षा के बाजारीकरण विरोधी आंदोलन पर चुप्पी क्यों कपिल सिब्बल जवाब दो, पत्रकारिता की बाजार में नीलामी क्यांे कपिल सिब्बल जवाब दो।’’ संदीप पाण्डेय ने भी कपिल सिब्बल की चुप्पी पर विरोध जताया।
आंदोलन के समर्थन में गुलाबी गैंग की नेत्री नीलम पाल और सरोज पाल आईं और उन्होंने कहा कि जिस तरह लाखों रूपये वसूलने की तैयारी यहां चल रही है उससे हमारे ग्रामीण इलाकों के बच्चें विश्वविद्यालय का मुह कभी नहीं देख पायेंगे। इस आंदोलन का समर्थन करते हुए संदीप पांण्डेय ने कहा कि शि़क्षा के बाजारीकरण के खिलाफ चल रहे इस राष्ट्रीय आंदोलन पर मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल के चुप्पी ने सरकार के मंसूबों को साफ कर दिया है। उन्होंने बताया कि आन्दोंलन के समर्थन में वे जल्द इलाहाबाद आयेंगे। इस आन्दोंलन के समर्थन में देश के कोने-कोने के विश्ववि़द्यालयों के छात्रों का समर्थन मिलने लगा है। जामिया मिलिया इस्लामिया के पुरा छात्रों ने भी समर्थन पत्र जारी किया। जामिया की पुरा छात्रा सरिता ने कहा कि यह आंदोलन शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ संगठित प्रतिवाद बनेगा। और उन्होंने यह भी जानकारी दी कि उनका प्रतिनिधि मंडल जल्द ही इलाहाबाद आयेंगा।
‘‘सवाल पूछते रहो’’ अभियान के तहत आज विभाग की छात्रा विभूति सिंह ने पिछले दिनों विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा सीनेेट हाॅल में एक निजी कम्पनी द्वारा कुलपति का जन्मदिवस को प्रायोजित करने को लेकर सवाल किया कि क्या सीनेट हाॅल में शादी-व्याह, तेरहवीं और जन्मदिन जैसे अवसरों के लिए क्या आवांटित किया जा सकता है। छात्रा ने यह भी पूछा है कि विश्वविद्यालय में ऐसे कौन-कौन से शिक्षक हैं जो शिक्षण कार्य के अलावा प्रशासनिक व अन्य ऐसे पदों पर नियुक्त हैं ? और केन्दीय दर्जा मिलने के बाद से पुस्तकालय को प्राप्त अनुदान व खरीदी गयी किताबों का ब्योरा भी मांगा है।
समस्त छात्र
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद

शिक्षण संस्थानों में निजी पुँजी निवेश व छात्रों के उपर हमलो के खिलाफ़, म.गां.अ.हि.वि.वि., वर्धा में रोष

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जन संचार विभाग होने के बावजुद, विश्वविद्याल प्रशासन ने आँख मुदकर यू.जी.सी. के नियमों को ताक पर रखते हुये एक निजी मिडिया अध्ययन केंद्र के रूप मे ’सेंण्टर फ़ार फ़ोटो जर्नलिज्म एण्ड विजुवल कम्युनिकेशन’ को लिज पर डिग्री बाटने का धंधा शुरु कर दी है, जिससे साम्राज्यवादी मिडिया को प्रसारित करने के लिये, वर्करो को पैदा किया जायेगा. इस संस्थान के शुल्क के ढाँचें ( जो एक लाख बीस हजार है) को देखकर लगता है कि आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछ्डे़ छात्रों को मिडिया शिक्षा से दूर करने की साजिश रची जा रही है, एक ही विश्वविद्यालय में दो समानांतर विभाग चलाने की मंशा क्या है? इस तरह के निजी संस्थानों को खोलने में विश्वविद्यालय प्रशासन रूचि क्यो ले रहा है.

निजी पत्रकारिता दुकान के बिरोध में एवम छात्रसंघो की बहाली के लिये लोकतांत्रिक तरीके से चल रहे आदोंलन पर पुलिस द्वारा बर्बर लाठीचार्ज किया गया और विश्वविद्यालय द्वारा सरकार की मदद से आदोंलन को दबाने का प्रयास किया जा रहा है, छात्रों, शिक्षकों एवम शहर के बुद्धिजिवियों के द्वारा चल रहे लोकतात्रिक आदोंलन के समर्थन में महात्मा गाँधी अंर्तराष्ट्रिय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा की तरफ़ से समस्त छात्रों और शिक्षकों ने सरकार के द्वारा प्रायोजित निजी शिक्षाकरण पर विश्वअविद्यालय प्रशासन के खिलाफ़ रोष प्रकट किया गया.
इसके लिए हुई बैठक में जनसंचार विभाग के चंद्रिका, संदीप दुबे, अनुज शुक्ला, दिलीप, अनिस, देवाशिष प्रशून, धनेश जोशी, लक्ष्मण प्रसाद उपस्थित रहे.

सब बेच डालिए, आपको पूरा अधिकार है!

विजय प्रताप

...तो मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल जी के पास भी इस बात का जवाब नहीं की इलाहबाद में पत्रकारिता की शिक्षा का नीजिकरण सही है या गलत. गुरुवार को नई दिल्ली में एक प्रेस कोंफ्रेंस में दैनिक जागरण के पत्रकार ने इलाहाबाद के पत्रकारिता विभाग के छात्रों का मुद्दा उठाया तो वह बगले झांकने लगे. मंत्री ने गोलमोल सा जवाब दिया "सभी को साथ लेकर चलने की जरूरत है।"
इसका क्या अर्थ लगाया जाना चाहिए. आन्दोलन कर रहे छात्र तो सभी को साथ लेकर चलने को तैयार हैं. लेकिन क्या कपिल सिब्बल जी हमारे साथ चलेंगे? क्या उनकी सरकार अपने नुमाइन्दे कुलपति से यह पूछ सकती है की वह छत्रहितों के खिलाफ यह निजीकरण क्यों कर रहे हैं? क्या वह ये भी नहीं पूछ सकते की मीडिया को जो नया पाठ्यक्रम शुरू करने जा रहे हैं क्या वह यूजीसी के नियमों को पूरा करता है?
साथियों, इसका जवाब सिर्फ 'नहीं' होगा. क्योंकि यह वही कपिल सिब्बल साहब हैं जिन्होंने अभी थोड़े दिन पहले प्राथमिक शिक्षा को दूकान का माल बनाने के लिए "सबको शिक्षा का अधिकार" का नारा दिया. नीजि कम्पनिया भी कुछ ऐसा ही नारा दिया करती हैं. क्योंकि उनको पता है की इस "सब" का मतलब केवल उन्हीं से है जिनकी जेब में पैसा है. मुरली मनोहर जोशी के बाद निजी कंपनियों और पूंजीपति घरानों ने अब कपिल जी को अपना निजीकरण का रथ हांकने का ठेका दिया है. और कपिल सिब्बल उनकी उम्मीदों पर खरे उतरने की बखूबी कोशिश कर रहे हैं. इसलिए यह जानकर की इलाहाबाद में उनके चेलों ने उनके रथ से दो कदम आगे चलते हुए, पहले ही निजीकरण शुरू कर दिया है, तो वह नाराज कतई नहीं होंगे. यह जरुर है की सामने जनता हो तो वह कुलपति को दो-चार बातें सुना दें, उनके चाटुकार जी.के. राय को इतने छोटे स्तर पर निजीकरण करने के लिए हटा दे. लेकिन मकसद उनका भी कुछ ऐसा ही है. वह शायद इससे बड़े स्तर पर निजीकरण की आश लगाये हों.
मुख्य धारा की मीडिया भी आज यही चाहती है की समाज की बात करने वाले जीवजन्तु उससे सौ कोस दूर रहे. इसलिए वह खुद के मीडिया संसथान खोल रही है. वहां आप थैले भर पैसा लेकर जाईए, वह आपको सनसनाते हुए एक डिग्री पकडा देगें. अब यह आप पर है की उसके बाद अपना पैसा कैसे वसूल करते हैं. आप चाहे सनसनी बेचिए, आप अखबारों में खबरे बेचिए, लोगों की अस्मत बेचिए, उनके आंसू, बेडरूम-बाथरूम के सीन बेचिए और इससे भी दिल नहीं भरे तो पूरा अखबार या चैनल बेच दीजिये. आपको पूरा अधिकार है, आपने इतने पैसे खर्च कर डिग्री जो खरीदी है.
हालाँकि इलाहाबाद के छात्र आन्दोलन को देख ये साफ़ है की कुछ लोग हैं जो इस खरीद बेच के सौदे से दूर असल पत्रकारीता के लिए लड़ रहे हैं. यह छात्र आन्दोलन इस बात की तस्दीक है की, निजीकरण के इस रथ को रोकने का हौसला केवल यही युवा पीढी कर सकती है. वैसे भी इलाहाबाद की धरती ऐसे कई आंदोलनों का गवाह बन चुकी है. यहाँ के आन्दोलनों ने हर बार बदलाव की कहानी लिखी है. इस बार इस आन्दोलन की डोर समाज के सबसे सजग माने जाने वाले तबके ने संभाली है. इसे मिल रहे जनसमर्थन को देख ऐसा लगता है, की इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रशासन की अपने फैसले पर पछतावा हो रहा होगा, वह लगातार आन्दोलनरत छात्रों को डरा धमका उन्हें तोड़ना चाहता है. लेकिन यकीं मानिए ऐसे हौसलों के दम पर ही दुनिया टिकी है.

दैनिक जागरण की खबर पढें

अब आठवीं तक समान कैरीकुलम चाहती है सरकार

15 सित॰ 2009

जलाने के लिए एक चिंगारी काफी है!

साथियों,

आप सभी के आंदोलन के तेवर को देख कर यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है, कि आने वाले समय में यह आंदोलन छात्र एकता व शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ संगठित प्रतिवाद की मिसाल बनेगा। आज जब शिक्षा को मूल अधिकार का दर्जा देने की जरूरत है उस पर चहुंओर से प्रहार किया जा रहा है। शिक्षा का जिस तरह से आभिजात्यीकरण किया जा रहा है, वह समाज के लिए विभाजनकारी सिद्ध होगा। यही नहीं समाज का तथाकथित वह प्रतिभावान तबका जो हर सामाजिक समस्या का हर शिक्षा व अज्ञानता में तलाषता है को भी बढ़ावा मिलेगा। यह पूरी कोषिष शिक्षा को एक-दो लाख में डिग्री खरीद सकने वाले लोगों तक समेट देने की संगठित कोषिष की जा रही है।इलाहाबाद जैसे महत्वपूर्ण षैक्षिक केन्द्र पर जहां न केवल उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ बल्कि पूर्वोत्तर से भी छात्र सस्ती व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की तलाष में आते हैं उसे शिक्षा की दुकान में तब्दील करने की बड़ी साजिष चल रही है। दरअसल छोट-छोट स्तरों पर ऐसी दुकानें खोलने की कोषिष एक राश्ट्व्यापी अभियान का हिस्सा प्रतीत होती है। अभी प्रो यषपाल समिति ने भी उच्च शिक्षा को लेकर कुछ ऐसी ही सिफारिषें की थी। समिति ने विष्वविद्यालयों में निवेष के लिए व्यावसायिक निवेषक तैयार करने पर जोर दिया था। इकोनाॅमिक्स के अनुसार निवेषक निवेष वहीं करेगा जहां उसे सीधा लाभ दिखे। अर्थात यह समिति भी विष्वविद्यालयों को निजी दुकान बनने की फिराक में है। उधर, माननीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ‘शिक्षा का अधिकार’ के नाम पर प्राथमिक शिक्षा को भी खरीद फरोख्त की वस्तु बना देने पर तुले हैं। तो इस नजरिए से देखा जाए तो आप सभी का आंदोलन किसी एक जगह की समस्या को लेकर नहीं है। यह जरूर है कि कहीं न कहीं से षुरूआत तो होगी। एक बड़े आंदोलन की षुरूआत के लिए किसी काॅलेज की मेस ही काफी है। ऐसे में दोस्तों आप के इस आंदोलन में हम सभी युवा साथी भी तन, मन, धन से आपके साथ हैं। हम आशा व उम्मीद करते हैं कि आप सभी इसे किसी मुकाम तक ले जाकर छोड़ेंगे।


शुभकामनाओं सहित!


प्रवीण मालवीय,श्याम सिंह, विकास कुमार, सरिता, नीतू प्रिया ( सभी जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली के पुरा छात्र हैं।)


आप भी इस आन्दोलन में कोई सहयोग या वैचारिक समर्थन देना चाहते हैं तो आपका स्वागत है। आपके समर्थन से इस आन्दोलन में नया उत्साह आएगा। अपने विचार हम तक पहुँचने के लिए आप इन पर मेल कर सकते हैं - naipirhi@gmail।com, media.rajeev@gmail.com, vijai.media@gmail.com, sandeep9935131246@gmail.com

इलाहाबाद में पीएसी ने छात्रों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा

- एक दजर्न

घायल शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ शुरु हुआ आंदोलन आज उस समय भड़क उठा जब छात्रसंघ की मांग को लेकर हजरों छात्रों ने कुलपति कार्यालय को घेर लिया। पीएसी और शस्त्र पुलिस बल ने लाठीचार्ज किया जिसमें दजर्नों छात्र घायल हो गए। छात्रों ने यह आरोप लगाया है कि छात्रसंघ पर पिछले तीन साल से अघोषित आपातकाल लगाकर विश्वविद्यालय छात्र रिोधी नीतियों को थोप रहा है। पूरे कैम्पस में छात्रों को आतंकित करने के लिए पचासों पुलिस पीएसी बल की गाड़ियां तैनात कर दी गयी और छात्रों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया। परिसर के बाहर चाय और किताबों के रेहड़ी पट्टी ालों की दुकानों को पुलिस ालों ने तहस-नहस कर बुरी तरह से पीटकर अपना गुस्सा ङाड़ा। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आज जहां एक तरफ पहले से चल रहे पत्रकारिता भिाग को बचाने और निजीकरण रिोधी आंदोलन पर कुलपति की चुप्पी से नाराज छात्रों ने परिसर में जमकर नारेबाजी की। हाथों में तख्तियां लिए छात्रों ने नारे लगाये ‘‘विश्वविद्यालय है छात्रों का डिग्री की दूकान नही, फर्जी डिग्री देना बंद करो, शिक्षा के दलालों कैंपस छाड़ो, प्रोफेशनलिज्म के नाम पर ठगना बंद करो।’’ तो ही दूसरी तरफ हजरों छात्रों ने पीस जोन तोड़ते हुए कुलपति कार्यालय घेर लिया। यहां गौरतलब पहलू है कि कुलपति प्रोफेसर आरजी हर्षे ने अपनी मनमानी और छात्र रिोधी नीतियों को लागू करने के लिए अपने कार्यालय को पीस जोन क्षेत्र ंघोषित किया है जहां छात्र अपनी मांगों को लेकर धरना प्रदर्शन नही कर सकते। बहरहाल इलाहाबाद विश्वविद्यालय समेत तमाम संबद्घ महाद्यिालयों के छात्रों का आंदोलन शांतिपूर्ण ढंग से चल रहा था और उनकी मांग थी की कुलपति बाहर आकर उनकी मांगों को सुने। पर कुलपति अपनी आदत के अनुसार बाहर नही आये। ठीक इसी क्त कुलपति बाहर आओ छात्रसंघ बहाल करो के नारों के बीच कुलपति कार्यालय के सामने अंग्रेजी भिाग से पत्थरबाजी शुरु हो गयी। इसके बाद हां पर मौजूद पीएसी और शस्त्र पुलिस बल ने लाठीचार्ज किया जिसमें दजर्नों छात्रों को गंभीर चोटें आयी। विश्वविद्यालय के सूत्रों के अनुसार शांतिपूर्ण ढंग से चल रहे इस आंदोलन में एकाएक हुयी पत्थरबाजी प्राचीन इतिहास भिाग के एक रिष्ठ प्रोफेसर की कूटनीति का नतीज था। पूरे कैम्पस में छात्रों को आतंकित करने के लिए पचासों पुलिस पीएसी बल की गाड़िया तैनात कर दी गयी और पूरे दिन भर छात्रों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया। परिसर के बाहर चाय और किताबों के रेहड़ी पट्टी ालों की दुकानों को पुलिस ालों ने तहस-नहस कर बुरी तरह से पीटकर अपना गुस्सा ङाड़ा। पिछले दिनों शिक्षा के निजीकरण के रिोध में शुरु हुए आंदोलन ने इन रिष्ठ प्रोफेसर को दबा में ला दिया था। और ो परिसर में चल रहे आंदोलनों को दिग्भ्रमित करने और विश्वविद्यालय प्रशासन पर अपने दबा को बरकरार रखने के लिए इस छात्ररिोधी रणनीति का सहारा लिया। सूत्रों के अनुसार इन आंदोलन के चलते हो रही बदनामी और अपना काला चिट्ठा खुलने के डर से श्ििद्यालय के कुलपति छुट्टियों के बहाने इलाहाबाद से बाहर जने की ख़बर है। आइसा के सचिव सुनील मौर्या ने इस पूरी घटना की निंदा करते हुए कहा की जब भी छात्र आंदोलन तेज होता है और निर्णायक दौर में पहुंचने ाला होता है कुलपति इलाहाबाद छोड़कर भाग जते हैं। उधर पत्रकारिता भिाग के छात्रों ने अपने आंदोलन को नया स्रुप देते हुए कल से पूरे शहर में प्रदर्शन करेंगे। पत्रकारिता भिाग के छात्रों ने ‘‘साल पूछते रहो’’ अभियान के तहत लोकतंत्र रिोधी पीस जोन के बारे में पूछा कि यह विश्वविद्यालय के किस संधिान के तहत बनाया गया है। ही दूसरी तरफ तीन साल पहले हुए बहुचर्चित पर्चा लीक काण्ड जिसमें विश्वविद्यालय के रसूखदार लोग लिप्त थे पर हुयी उच्चस्तरीय जंच की रिपोर्ट को क्यों नही र्साजनिक किया गया का साल उठाया। ऐसे में इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रशासन के काले कारनामों की घेरेबंदी तेजी से हो रही है तो हीं विश्वविद्यालय प्रशासन इन आन्दोलनों को तोड़ने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा रहा है।

जनसत्ता से साभार

14 सित॰ 2009

सरकारी दुकान में तब्दील होते शिक्षा के मंदिर

- विनय जायसवाल

बहुत दिन बाद कुछ जिन्दा रहने की खबर मिली। बाज़ार में बिकते शिक्षा को बचाने की जो मुहिम इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के विद्यार्थियों ने चलायी है। उससे देश में आम नागरिक के शिक्षा पर अधिकार की नयी आशा जागी है। अगर समय रहते ऐसे आन्दोलन नहीं किये गए तो देश के अमीरजादे गरीब लोंगो को देश की मुख्य धारा में आने का सपना तोड़ देंगे। पिछले दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के समांतर एक स्ववित्तपोषित पत्रकारिता कोर्स खोलने का विरोध बड़ी तेजी से आगे गति पकड़ रहा है. यह विरोध न सिर्फ एक कोर्स को बचाने का है बल्कि पत्रकारिता में उस परंपरा को जीवित रखने का भी है जो व्यवस्था के खिलाफ की पत्रकारिता रही है. बाज़ार ने शिक्षा के साथ मीडिया को पंगु और अमीरों के हाथ की कठपुतली बनाने का जो खेल रचा है उसके प्रति ये विरोध शुरुआत हो सकती है लेकिन ये आने वाले दिनों के लिए एक बड़े जन आन्दोलन की पृष्ठभूमि साबित होगी। हमें लोकतंत्र बचाना है तो शिक्षा और पत्रकारिता दोनों को बाजारीकरण से बजाना होगा. तभी देश का आखिरी आदमी भी देश के सबसे बड़े पद पर जाने का अपना सपना पूरा कर सकता है. पत्रकारिता ने देश के आजादी की लडाई लड़ी तो इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने देश को छात्र आन्दोलन के जरिये नयी राजनीतिक दिशा दी. अब पत्रकारिता का छात्र राजनीती के गढ़ के साथ फिर मेल हुआ. सच मानिये वक्त भले लगे, मगर शिक्षा के इस बाजारीकरण की मृत्यु तय है.

( विनय जायसवाल आईआईएमसी, नई दिल्ली के पुरा छात्र और सजग पत्रकार है.)

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