16 नव॰ 2009

आलोक तोमर
प्रभाष जोशी चले गए। उनकी अस्थियां भी उस नर्मदा में विसर्जित हो गई जिस वे हमेशा मां कहते थे और अक्सर नर्मदा को याद कर के इतने भावुक हो जाते थे कि गला भर आता था। इन दिनों हमारे प्रभाष जी को ले कर संवेदनाओं के लेख, संस्मरण और शोक सभाओं का दौर चल रहा है। वे लोग जो कुछ दिन पहले तक इंटरनेट पर प्रभाष जी को इस युग का सबसे पतित, मनुवादी और ब्राह्मणवादी पत्रकार करार दे रहे थे, उनकी बोलती बंद है। उनमें से कई तो उनके निधन पर घड़ियाली आंसू भी बहाते दिखे।
लेकिन अब वक्त प्रभाष जी को याद करने से ज्यादा उनके सरोकारो को याद करने का है। तिहत्तर साल की उम्र में भी जिन सरोकारो को ले कर प्रभाष जी देश के हर कोने तक हर किस्म के वाहन से और होटलों से ले कर लोगों के घरों में ठहर कर पत्रकारिता के कायाकल्प और उसमें आ गए दोषों से कलंक मुक्ति की अलख जगा रहे थे, उनके इसी सरोकार को जारी रखना और आगे बढ़ाना शायद प्रभाष जी को सबसे बड़ी श्रध्दांजलि होगी। पता नहीं आज जो लोग आंसू बहा रहे हैं वे इस सरोकार को सहेजने में कितनी रुचि दिखाएंगे। सरोकार रोटी और शराब के पैसा नहीं देता। उसके लिए तो प्रभाष जी जैसा कलेजा चाहिए और एक सक्रिय और तेजस्वी वैराग्य चाहिए।
प्रभाष जी पत्रकारिता के नाम पर हो रही धंधेबाजी के खिलाफ जूझ रहे थे। वे समाज की हर बुराई और हर अन्याय के खिलाफ लड़ रहे थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ भी वे खड़े थे और बंगाल के नंदीग्राम के ग्रामीणों के साथ भी शामिल थे। हमारे मित्र और विश्वविख्यात कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा बता रहे थे कि चंडीगढ़ में एक्सप्रेस के संपादक रहने के दौरान उन्होंने एक सवाल किया था कि जिस देश में 70 प्रतिशत लोग खेती पर आधारित हो वहां गंभीर कृषि पत्रकारिता क्यों नहीं हो सकती? देवेंद्र शर्मा कृषि वैज्ञानिक बनने के रास्ते पर थे मगर कृषि पत्रकार बन गए और इन दिनों उन्हीं से पता लगा कि विदेशी बीजों और मल्टीनेशनल खेती के अलावा किसानों पर कर्जे के खिलाफ भी प्रभाष जी की जंग जारी थी।
प्रभाष जी के बेटे संदीप ने उनके अंतिम क्षणों का वर्णन किया है। सचिन के आउट होते ही वे टीवी वाले कमरे से उठ कर चले गए थे और संदीप जो खुद भी रणजी और कांउटी तक खेल चुके थे, ने पिता को फोन किया तो आखिरी सवाल था कि क्या स्कोर हुआ है? इसके बाद फोन मां ने लिया और कहा कि बेटा जल्दी आओ, पिता जी बेहोश हो गए। सो प्रभाष जी के अंतिम शब्द थे- ‘क्या स्कोर हुआ है’।
क्रिकेट की भाषा में ही कहे तो प्रभाष जी ने अपने आपको हिट विकेट कर दिया। उम्र हो चली थी। पच्चीस साल से शुगर के मरीज थे। एक बाई पास सर्जरी हो चुकी थी। पेस मेकर लगा हुआ था। फिर भी अगर किसी से मिलना है तो मिलना है। तीन मंजिल चढ़ के चले जाएंगे। प्रभाष जी जैसा न कोई हुआ है, न कोई होगा क्योंकि जैसा कि पहले और हमेशा कहा कि प्रभाष जोशी बनने के लिए कलेजा चाहिए। जिस समय प्रभाष जी का जनसत्ता अपने चरम पर था और विज्ञापन देने वालों की और पैसा दे कर खबर छपवानों वालों की लाइन लगी होती थी, प्रभाष जी ने जनसत्ता को घाटे में चलने दिया लेकिन वे सौदे नहीं किए जिनके खिलाफ वे आखिर तक लड़ रहे थे। इंडियन एक्सप्रेस के एक्सप्रेस टॉवर्स की किराएदार न्यू बैंक ऑफ इंडिया के घपलों को बैंक के निपट जाने तक उजागर करने का पूरा मौका दिया और इसके बावजूद दिया कि उनके खास मित्र और बड़े वकील लक्ष्मी मल्ल सिंघवी रामनाथ गोयनका तक पहुंच गए थे। इसके अलावा अखबार को साल में करोड़ों का विज्ञापन देने वाले मारुति उद्योग समूह के मुखिया के खिलाफ अभियान चलाया, विज्ञापन बंद हो गए मगर उन्हें परवाह नहीं थी।
बाजार के कुछ नियम होते हैं मगर पत्रकारिता की एक पूरी आचार संहिता होती है। प्रभाष जी ने इस आचार संहिता को वास्तविकता बनाने के लिए कई मोर्चे खोल रखे थे। इतना ही नहीं एक मोर्चा हिंद स्वराज का भी था। प्रभाष जी भारत की पत्रकारिता को आजादी का मंत्र देने वाले रामनाथ गोयनका की एक प्रमाणिक जीवनी लिखना चाहते थे और एक किताब आजादी के बाद की राजनीति पर लिखना चाहते थे और यह सब दो साल में यानी 75 का आंकड़ा पार करने के पहले कर लेना चाहते थे। मगर काल ने मौका ही नहीं दिया।
प्रभाष जोशी को याद करना असल में उन कामनाओं को पूरा करना होगा जिनमें से एक भी खुद उनके लिए नहीं थी। वे एक मुक्त और ताकतवर समाज चाहते थे। ऐसा समाज बने और वही प्रभाष जी को याद करे, इससे बड़ी श्रध्दांजलि दूसरी नहीं हो सकती। मगर दिक्कत यह है कि आज अखबार चलाने के साथ शराब की फैक्ट्रियां और दूसरे कारोबार करने वाले लोगों की जो जमात है और इसमें से कई अखबार को सिर्फ अपने कारोबार का कवच बनाना चाहते हैं उनके लिए उनके पत्रकार उनके धंधे के चौकीदार के अलावा कुछ नहीं होते। प्रभाष जी की लड़ाई पत्रकार को चौकीदार बनाने के खिलाफ थी। जो यह लड़ाई जारी रखेगा वही प्रभाष जी की परंपरा का हिस्सेदार होने का हक पाएगा।
प्रभाष जी के जाने के यथार्थ का आभास सिर्फ पत्रकारिता जगत को नहीं बल्कि पूरे समाज को होने में वक्त लगेगा। अभी से बहुत सारे आंदोलनकर्मी, बहुत सारे जूझारू पत्रकार और बहुत से साहित्यकार कहने लग गए हैं कि प्रभाष जी के बिना सब कुछ अधूरा लग रहा है। प्रभाष जी को भी इस संसार में जो अधूरा लगता था उसे पूरा करने की कोशिश वे कर रहे हैं। पहले भी कह चुका हूं और फिर कह रहा हूं कि प्रभाष जी वैरागी नहीं थे मगर उनकी सांसारिकता और उनके संघर्ष हमारे संसार को बेहतर और रहने लायक बनाने वाले थे। प्रभाष जी के आत्मा को भगवान कभी शांति नहीं दे। उनकी आत्मा हमारी नायक बनी रहे। आंखे बंद कर के सुनिए यह आत्मा पुकार रही है- आओ और संघर्ष के सहयात्री बनो। कोई है?
Mohlla se sabhar

7 नव॰ 2009

'सर कटाने की नौबत आई तो कटने वाला पहला सर प्रभाष जोशी का होगा'

-प्रभाष जोशी को एक आंदोलन की श्रद्धांजलि

अनुराग शुक्ला

ऑफिस से निकल चुका था लेकिन सिटी एडिशन से सुशील का फोन आया कि प्रभाष जी नहीं रहे. यकीन नहीं हुआ, टीवी चैनलों को उलटना पुलटना शुरू किया. लेकिन कहीं कोई सूचना नहीं थी. दिल्ली के दो चार साçथयों को फोन लगाया. तब तक एनडीटीवी पर स्लग लैश हुआ कि प्रभाष जी नहीं रहे.

टीवी पर लिख के आ रहा था "जाने माने पत्रकार प्रभाष जोशी का निधन" . उन शब्दों को पढ़ने समझने के बजाय प्रभाष जी की वह मूर्ति याद आ गई जब वह इलाहाबाद यूनिवçर्सटी के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के छात्रों के शिक्षा के व्यापारीकरण के खिलाफ आंदोलन में शामिल होने आए थे. बिल्कुल ठीक और तेवर के साथ. प्रभाष जी विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ जमकर बोले. सार्वजनिक मंच से बताया कि यूनिवçर्सटी में डिगि्रयां बेचने वालों ने उनको आंदोलन में न आने देने के लिए कितने कागद कारे किए. ये भी बताया कि कैसे उनके करीबियों से कहलवाया गए कि शिक्षा के निजीकरण विरोध आंदोलन में वो न आए. लेकिन प्रभाष जी आए और निजीकरण के दलालों की पोल भी खोली. सुनील उमराव और शहनवाज ने आंदोलन का पक्ष रखा तो प्रभाष जी भावुक हो गए और कहा कि मैं तो बुजुर्ग आदमी हूं, छात्रों की इस लड़ाई में अगर सर कटाने की नौबत आई तो कटने वाला पहला सर प्रभाष जोषी का होगा.

प्रभाष जी के इन शब्दों ने वहां मौजूद छात्रों की लड़ाई को एक नया जोश नया जज्बा दिया था. व्यवस्था के एक प्रति मूधüन्य पत्रकार के गुस्से ने हम सबको एक नई ताकत दी थी. गेस्ट हाउस में प्रभाष जी से मिलने वालों की भीड थी. उसमें सत्ताकामी भी थे और सत्ता के प्रतिगामी भी. लेकिन प्रभाष जी अडिग थे. उन्होंने आंदोलन के समथन में बार-बार आने का वादा किया था.

प्रभाष जी ने कहा था कि अगर इस लड़ाई में सर कटाने की नौबत आई तो कटने वाला पहला सर प्रभाष जोषी का होगा. लेकिन हम से किसी को ये न मालूम था कि फिर से लौट कर आने का वादा करने वाले प्रभाष जी यूं चले जाएंगे. अभी तो उन्हें कितने कागद कारे करने थे. एमएनसी के दलालों के खिलाफ कितनी लड़ाई लड़नी थी. अभी कुछ दिनों पहले एक साथी से फोन पर बातचीत में उन्होंने हरियाण और महाराष्ट्र के चुनाव में अखबारों के खबरों के धंधे का खुलासा करने का वादा किया था. आज सुबह शहनवाज भाई का फोन आया बता रहे थे कि प्रभाष जी से बात करने की सोच रहा था कि एक पत्रकार महोदय शिक्षा के निजीकरण के आंदोलन को बदनाम करने की साजिश कर रहे हैं. लेकिन बात अधूरी रह गई. पत्रकारिता धर्म पर खरी बात करने वाला चुपचाप चला गया. अब कौन मीडिया के विज्ञापन के धंधे को उजागर करेगा. अब शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ तमाम दबावों को दरकिनार कर छात्रों का साथ देने कौन इलाहाबाद आएगा?

प्रभाष जी को हमारे और हमारे जैसे तमाम आंदोलनों की श्रद्धांजलि.

6 नव॰ 2009

पत्रकारिता जगत के पुरोधा प्रभाष जोशी के निधन पर श्रद्धांजलि



प्रभाष जोशी आम आदमी के लिए लड़ने वाले योद्धा थे: जियाउल हक

इलाहाबाद, 6 नवम्बर 2009! पत्रकारिता ज़गत के सशक्त हस्ताक्षर एवं जनसत्ता के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी नहीं रहे। देश के अंदर पत्रकारिता को जनसरोकारों से जोड़ने में उन्होंने प्रभावकारी भूमिका निभाई थी। वे आजीवन पत्रकारिता को आम जनजीवन की आवाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध रहे। मीडिया जगत में सत्ता प्रतिष्ठानो और बाजार के दखल के खिलाफ लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए वे अंतिम समय तक बेचैन रहे। आज वह हमारे बीच मौजूद नहीं हैं। देश के सामाजिक और लोकतांत्रिक आंदोलनों को उनकी कमी लम्बे समय तक खलेगी। उनके निधन पर पत्रकारिता विभाग की तरफ से आज एक शोक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें बतौर मुख्य अतिथि जाने-माने समाजसेवी और प्रभाष जोशी के पुराने साथी वरिष्ठ काॅमरेड जियाउल हक ने विभाग के सामने बने खबर चैरा प्रांगण में उनकी तस्वीर पर माल्यार्पण कर श्रद्धासुमन अर्पित किये। इसी क्रम में विभाग के समस्त छात्र छात्राओं द्वारा भी उनकी तस्वीर पर पुष्पार्पण किया गया।

प्रभाष जी को श्रद्धांजलि देते हुए काॅमरेड जियाउल हक ने कहा कि जोशी जी का जाना पूरे हिन्दुस्तान के जनवादी प्रगतिशील सोच रखने वाले लोगों के लिए एक अपूरणीय क्षति है। उन्होंने कहा कि प्रभाष जी की अचानक हुई मृत्यु से उन्हे इतना सदमा पहुंचा है जिसे वे शब्दों में बयां नहीं कर सकते। उनका कहना था कि प्रभाष जी सिर्फ एक पत्रकार ही नहीं थे बल्कि आम जनता से जुड़े मुद्दों पर अपनी मुखर आवाज और धारदार कलम के बूते संघर्ष करने वाले एक योद्धा थे। वे आम आदमी के मुद्दों पर उनकी आवाज बनकर जनप्रतिनिधियोें और संसद तक को कटघरे में खड़ा करने वाले एक सशक्त आधार स्तम्भ थे। इस स्तम्भ का न रहना आमजन के लिए एक ऐसी क्षति है जिसकी भरपाई होना आने वाले समय में मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
इस दौरान छात्रों का कहना था कि पिछले 30 सितम्बर को विभाग द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन के समर्थन में आये प्रभाष जोशी ने छात्रों से ये वादा लिया था कि वे किसी भी कीमत पर अपने कदम पीछे नहीं हटायेंगे। छात्रों ने अपने आन्दोलन के 65वें दिन आज एक बार फिर उनकी उस बात को याद करते हुए संकल्प लिया कि वे अपने आंदोलन को जारी रखेंगे। छात्रों ने कहा कि प्रभाष जी, पत्रकारिता के जिस जनपक्षधर स्वरुप और लोकतंात्रिक मूल्यों को बचाने लिए आजीवन संघर्षरत रहे, हम पत्रकारिता के छात्र उनके इन आदर्शों को आत्मसात करते हुए पत्रकारिता के इन सरोकारों को बचाने के लिए दृढ़संकल्पित हैं।
इस क्रम में प्रभाष जोशी द्वारा आंदोलन के समर्थन में विभाग में दिये गये भाषण की डाक्यूमेंट्रªªी फिल्म भी दिखाई गयी। इस दौरान पूर्व आइएएस श्री राम वर्मा, वरिष्ठ गांधीवादी श्री बल्लभ, पुनीत मालवीय,जनसत्ता के पत्रकार राघवेंद्र, आदि लोग उपस्थित रहे।

समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
9721446201,9793867715,9307761822

प्रभाष जोशी जी ने दी पत्रकारिता छात्र आन्दोलन को नई धार

हिन्दी पत्रकारिता के पितामह और पत्रकारिता के पेशेगत आदर्शाें को एक नई ऊंचाई देने वाले प्रभाष जोशी अब हमारे बीच नहीं रहे। एक बारगी सुनकर यकीन नहीं हुआ कि जन अधिकारों और प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करने वाला पुरोधा अचानक हमे छोड़ गया। पिछले 30 सितम्बर को ही वो हमारे बीच हमारे विभाग में थे- हमारे आंदोलन के हमराह के रुप में। विश्वविद्यालय के कोने में उपेक्षित पड़े हमारे छोटे से विभाग द्वारा विश्वविद्यालय प्रशासन की गलत नीतियों और शिक्षा के निजीकरण के विरोध में जब अपने आंदोलन की शुरुआत की गयी तो हमारे इस संघर्ष में सबसे पहले आने वालों में एक नाम प्रभाष जोशी का भी था। हम लोगों में कोई भी ऐसा नहीं था, जिसे वे पहले से जानते रहे हों, लेकिन जब हमने उन्हें अपने आंदोलन के बारे बताया और उनसे साथ आने का आग्रह किया तो उन्होंने अपनी सेहत और स्वास्थ्य की बिल्कुल परवाह न करते हुए हमारे समर्थन में इलाहाबाद आना सहर्ष स्वीकार कर लिया और इसके बाद विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा उन्हें आने से रोकने की सारी कोशिशों के बावजूद वे यहां आये। हमारे मंच से बोलते हुए वे कई बार भावुक हुए और कई बार अपनी मृत्यु को भी याद किया। यहां तक कि हमारे विभाग के आंदोलन के लिए उन्होंने अपना सर तक कटाने की बात कही।
प्रभाष जी का पूरा जीवन हमारे जैसी युवा पीढ़ी के लिए आदर्श और प्रेरणा स्रोत रहेगा, विशेष कर हमारे विभाग के लिए क्योंकि हमारे विभाग में आकर उन्होंने हमारे संघर्ष को एक नई धार दी। प्रभाष जोशी का जाना हिन्दी पत्रकारिता के एक ऐसे मूर्धन्य सितारे का जाना है, जिसकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ने वाली। उनके जाने से पत्रकारिता जगत में जो शून्य पैदा हुआ है उसकी पूर्ति आने वाले लम्बे समय तक सम्भव नहीं दिखती। इस दुख की घड़ी मे हम उनके परिवार के प्रति अपनी पूरी संवेदना और सहानुभूति व्यक्त करते हैं और ईश्वर से कामना करते हैं कि उनके परिवार को इस दुख को सहने की शक्ति प्रदान करे। जाते समय विभाग के छात्रों से भावुक होकर उन्होंने कहा था कि तुम लोगों ने जो लड़ाई शुरु की है, इससे कभी पीछे मत हटना और इस आंदोलन में हर कदम पर मैं तुम्हारे साथ हूं। उन्होंने यहां तक कहा कि इस संघर्ष में अगर कभी सर कटाने की भी नौबत आयी तो उसमें पहला सर प्रभाष जोशी का होगा। इसके बाद हम सभी ने उन्हें विश्वास दिलाया कि हम किसी भी हालत में अपने कदम पीछे नहीं लेंगे। आज हमारे आंदोलन का 65वां दिन है और हमारा विरोध लगातार जारी है। पत्रकारिता के सरोकारों को जिन्दा रखने के लिए हम आज भी सड़को पर हैं और इस बात के लिए दृढ़ संकल्पित भी, कि हम आजीवन पत्रकारिता के आदर्शाें को बचाने के लिए लड़ेंगे और अगर जरुरत पड़ी तो मरेंगे भी। शायद यही हमारी तरफ से पत्रकारिता जगत के इस भीष्मपितामह को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

नाम आँखों के साथ

समस्त छात्र
पत्रकारिता विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद